Chapter 9 Verse 13

Chapter 9 Verse 13

MahaatmaanH, tu, mam’, paarth, daiveem’, prakrtim’, aashritaH,
Bhajanti, ananyamanasH, gyaatva, bhootaadim’, avyyam’ ||13||

Translation: (Tu) on the other hand (Paarth) Oh son of Kunti! (daiveem’) divine i.e. of a sage (Prakrtim’) nature (aashritaH) adopting (mahaatmaanH) the Mahatmas (bhootadim’) the eternal cause of all the living beings (avyyam’) the immortal God (gyatva) knowing in essence (mam’) me (ananyamanasH) with undeviated mind (bhajanti) do my bhajan. (13)

Translation

On the other hand, oh son of Kunti! Mahatmas by adopting a divine nature i.e. that of a sage, knowing in essence the eternal cause of all the living beings, the immortal God, do my bhajan with undeviated mind.

Meaning

In Adhyay 9 Shlok 11-12, there is description of those devout souls who do not know the Purna Parmatma (Complete God) and Brahm in essence. They worship other gods out of their nature. In Adhyay 9 Shlok 13 {whose relation is with Adhyay 7 Shlok 17-18 that a Gyaani, a knowledgeable person, is dear to me; I am dear to a gyaani (a knowledgeable person), but they are dependent on my inferior salvation only.}, it is said that those who know me and that Purna Parmatma, they then worship me because it is stated in Gita Adhyay 17 Shlok 23 that for the attainment of the Complete God (Purna Parmatma), there is said to be sumiran of three mantras: Om’-Tat’-Sat’. Om’ is jaap of Brahm. In Adhyay 9 Shlok 13, it has been stated with the same purport that after knowing the Purna Parmatma and me (Brahm) in essence, mahatmas worship me. They do not know about other mantras (Tat’ and Sat’). Therefore, from their self-deduced conclusion (drdvrtaH), with determination, some do worship by doing yagya of knowledge i.e. prayer etc (devotional singing), and some considering the Viraat form (the entire world is God only). For them, I am everything. In Adhyay 9 Shlok 20 to 24, the conclusion of Adhyay 9 Shlok 11 to 19 has been given that both of those types of worshippers (who worship other gods, and who worship me according to the Vedas,  who did not obtain the real mantra), undergo destruction. They do not attain salvation.


महात्मानः, तु, माम्, पार्थ, दैवीम्, प्रकृतिम्, आश्रिताः,
भजन्ति, अनन्यमनसः, ज्ञात्वा, भूतादिम्, अव्ययम्।।13।।

अनुवाद: (तु) दूसरी तरफ (पार्थ) हे कुन्तीपुत्रा! (दैवीम्) दैवी अर्थात् साधु (प्रकृ ृतिम्) स्वभावके (आश्रिताः) धारण किए हुए से (महात्मानः) महात्माजन (भूतादिम्) सर्व प्राणियों के सनातन कारण (अव्ययम्) अविनाशी स्वरूप परमात्मा (ज्ञात्वा) तत्व से जानकर (माम्) मुझको (अनन्यमनसः) अनन्य मनसे युक्त होकर (भजन्ति) भजते हैं। (13)

भावार्थ:-- अध्याय 9 श्लोक सं. 11.12 में तो उन श्रद्धालुओं का वर्णन है जो पूर्ण परमात्मा तथा ब्रह्म को तत्व से नहीं जानते वे तो अन्य देवताओं की साधना स्वभाव वश करते हैं। अध्याय 9 श्लोक सं. 13 (जिसका सम्बन्ध अध्याय 7 श्लोक 17.18 से है कि ज्ञानी मुझे अच्छा है ज्ञानी को मैं अच्छा लगता हूँ परन्तु वे मेरी अनुत्तम गति में ही आश्रित हैं) में कहा है कि जो मुझे तथा उस पूर्ण परमात्मा को जानते हैं वे फिर मुझे भजते हैं क्योंकि गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्ति का तीन मन्त्रा का स्मरण कहा है। ओम्-तत्-सत् ओम् जाप ब्रह्म का है। इस अध्याय 9 श्लोक 13 में उसी भाव से कहा है कि पूर्ण परमात्मा और मुझे (ब्रह्म को) तत्व से जानकर महात्मा जन मुझे भजते हैं। उनको अन्य मन्त्रों (तत् व सत्) का ज्ञान नहीं होता। इसलिए अपने आप निकाले निष्कर्ष से(दृृढव्रताः) दृृढता के साथ कोई ज्ञान यज्ञ अर्थात् स्तूति आदि (कीर्तन) करके कोई विराट रूप (सर्व संसार परमात्मा ही है) जानकर साधना करते हैं। उनके लिए सर्वसवा मैं ही हूँ। अध्याय 9 श्लोक 20 से 24 में अध्याय 9 श्लोक 11 से 19 का निष्कर्ष दिया है कि वे दोनों प्रकार के साधक (अन्य देवताओं को भजते वाले तथा मुझे वेदों के आधार से भजने वाले जिनको वास्तविक मन्त्रा प्राप्त नहीं हुआ) वे दोनों ही विनाश को प्राप्त होते हैं। मोक्ष प्राप्त नहीं करते।