Chapter 11 Verse 55

Chapter 11 Verse 55

Matkarmkrt, matparamH, madbhaktH, sangvarjitH,
NirvairH, sarvbhooteshu, yaH, saH, mam, eti, pandav||55||

Translation: (Pandav) Oh Arjun! (yaH) he who (matkarmkrt) who performs all actions towards me according to the scriptures (matparamH) who is best according to my opinion (madbhaktH) my Matavlambi devotee (sangvarjitH) is detached and (sarvbhooteshu) towards all the living beings (nirvairH) free from enmity (saH) he (mam) me alone (eti) comes to / attain. (55)

Translation

Oh Arjun! He who performs all actions towards me according to the scriptures, who is best according to my opinion, my Matavlambi devotee, is detached and free from enmity towards all the living beings, he comes to me alone; which means he comes to the great heaven built in my Brahm Lok, where sometimes this Kaal grants audience in Vishnu form. Brahm Kaal cannot be attained in the actual form.

A devotee, who does matanusar sadhna[1] i.e. according to the sadhna mentioned in Vedas (because the doctrine of Brahm sadhna is mentioned in Vedas or now in Gita Ji), is known as a superior devotee. Because those who perform other sadhna which is not in accordance with the scriptures, have been called as sinners and of demoniac nature. Its evidence is given in detail in Gita Adhyay 7 Shlok 12 to 18, 20 to 23. Abandoning the injunctions of scriptures, following arbitrary way of worship is useless (evidence Gita Ji Adhyay 16 Shlok 23, 24). That superior devotee also goes to Kaal which means remains in Kaal’s (Jyoti Niranjan) trap. Even the God, the narrator of Gita, is unaware of the way of attaining the Supreme God. Therefore has said that find the Tatvdarshi saints (Gita Adhyay 4 Shlok 34 and Adhyay 18 Shlok 62).

(End of Adhyay Eleven)


मत्कर्मकृत्, मत्परमः, मद्भक्तः, संगवर्जितः,
निर्वैरः, सर्वभूतेषु, यः, सः, माम्, एति, पाण्डव।।55।।

अनुवाद: (पाण्डव) हे अर्जुन! (यः) जो (मत्कर्मकृत्) मेरे प्रति शास्त्रानुकूल सम्पूर्ण कत्र्तव्य-कर्मोंको करनेवाला है, (मत्परमः) मेरे मतानुसार श्रेष्ठ (मद्भक्तः) मतावलम्बी मेरा भक्त (संगवर्जितः) आसक्तिरहित है और (सर्वेभूतेषु) सम्पूर्ण प्राणियोंमें (निर्वैरः) वैरभावसे रहित है (सः) वह (माम्) मुझको ही (एति) प्राप्त होता है। अर्थात् मेरे ब्रह्म लोक में बने महास्वर्ग में आ जाता है। जहाँ कभी.2 विष्णु रूप में यह काल दर्शन देता है। ब्रह्म काल को वास्तविक रूप में प्राप्त नहीं किया जा सकता। (55)

मतानुसार अर्थात् वेदों में वर्णित साधना के अनुसार {ब्रह्म साधना का मत(विचार) वेदों में वर्णन है या अब गीता जी में} जो साधक साधना करता है वह उत्तम साधक कहलाता है। क्योंकि अन्य साधना जो शास्त्रानुकूल नहीं है उसको करने वाले पापी तथा राक्षस स्वभाव के कहें हैं। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 18, 20 से 23 तक में विस्तृत विवरण कहा है तथा शास्त्रा विधि को त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमानी पूजा करना व्यर्थ है, (प्रमाण गीता जी के अध्याय 16 के श्लोक 23,24) वह भी काल को ही प्राप्त होता है अर्थात् काल(ज्योति निरंजन) के जाल में ही रहता है। पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने की विधि से गीता बोलने वाला भगवान भी अपरिचित है। इसलिए कहा है कि तत्वदर्शी संतों को खोज(गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा अध्याय18 श्लोक 62)।

(इति अध्याय ग्यारहवाँ)


[1]Religious Practice / Way of worship