Udaaseenvat’, aaseenH, gunaeH, yaH, na, vichaalyate,
GunaH, vartante, iti, ev, yaH, avtishthati, na, ingte ||23||
Translation: (YaH) who (udaaseenvat’) one who is withdrawn from the enjoyment of all substances i.e. like a witness (aaseenH) situated (gunaeH) by the gunas (na, vichaalyate) can not be disturbed (gunaH, ev) gunas only in gunas (vartante) operate (iti) understanding this (yaH) who exclusively in the Sachchidanandghan Parmatma (avtishthati) situated in (na, ingte) is never wavered from that state. (23)
One, who is withdrawn from the enjoyment of all substances i.e. is situated like a witness, can not be disturbed by the gunas, and understanding that the gunas (Rajgun-Brahma, Satgun-Vishnu and Tamgun-Shiv) only operate in the gunas (Rajgun, Satgun and Tamgun), who remains exclusively situated in the Sachchidanandghan[1] Parmatma[2] and is never wavered from that state.
The meaning of Shlok 23 is that a devotee who becomes fully acquainted with the Tatvgyan[3] of the Purna Parmatma[4] is then not influenced by the transitory happiness obtained form the three gunas i.e. the three Gods Shri Brahma Ji, Shri Vishnu Ji and Shri Shiv Ji. He becomes familiar with their position and power. Like, in Gita Adhyay 2 Shlok 46, it is evident that just like the faith left in a small reservoir of water on obtaining a large reservoir i.e. a lake which is brimming with water (one does not dislike the small reservoir but after becoming familiar with its capacity, one develops full faith in the large reservoir of water), after obtaining the knowledge of the Purna Brahm one does not hate other gods but automatically develops full faith in that Purna Parmatma.
उदासीनवत्, आसीनः, गुणैः, यः, न, विचाल्यते,
गुणाः, वर्तन्ते, इति, एव, यः, अवतिष्ठति, न, इंगते।।23।।
अनुवाद: (यः) जो (उदासीनवत्) सर्व पदार्थों के भोग से उदास हुआ होता है उस उदासीन अर्थात् साक्षीके सदृश (आसीनः) स्थित हुआ (गुणैः) गुणोंके द्वारा (न,विचाल्यते) विचलित नहीं किया जा सकता और (गुणाः,एव) गुण ही गुणोंमें (वर्तन्ते) बरतते हैं (इति) ऐसा समझता हुआ (यः) जो सच्चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे (अवतिष्ठति) स्थित रहता है एवं (न,इंगते) उस स्थितिसे कभी विचलित नहीं होता। (23)
भावार्थ - श्लोक 23 का भावार्थ है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा के तत्वज्ञान से पूर्ण परिचितगहरी नजर गीता में हो जाता है वह फिर तीनों गुणों अर्थात् तीनों प्रभुओं श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी से मिलने वाले क्षणिक सुख से प्रभावित नहीं होता। इनकी स्थिति व शक्ति से परिचित है। जैसे गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में प्रमाण है कि पूर्ण रूप से परिपूर्ण जल से भरे हुए बहुत बड़े जलाशय अर्थात् झील के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में जितनी श्रद्धा रह जाती है, छोटे जलाशय बुरे नहीं लगते परन्तु उनकी क्षमता से परिचित हो जाने से बड़े जलाशय में पूर्ण आस्था बन जाती है। इसी प्रकार पूर्ण ब्रह्म के ज्ञान के पश्चात् अन्य प्रभुओं से घृणा नहीं बनती, परन्तु पूर्ण आस्था उस पूर्ण परमात्मा में स्वत् बन जाती है।
[1] True Happiness-giving God
[2] God
[3] True/Complete spiritual knowledge
[4] Complete God / Supreme God