Esha, braahmee, sthitiH, paarth, na, enaam, praapya, vimuhyaati,
Sthitva, asyaam, antkaale, api, brahmnirvaanam, richchhti ||72||
Translation: (Paarth) Oh Arjun! (esha) this renunciation of desires, the above-mentioned state free from arrogance, (braahmee) of the devotee who has attained God (sthitiH) is the state (enaam) this (praapya) not acquiring (na) not, a devotee (vimuhyaati) becomes attracted to sense objects/worldly enjoyments (antkaale) at the time of death (asyaam) a devotee whose defects have not ended, he in this state (sthitva) being established (api) even (brahmnirvaanam) Supreme God (richchhti) the ability to attain finishes i.e. remains deprived of the benefit of attaining Supreme God. (72)
Oh Arjun! This above-mentioned state of renunciation of desires, free from arrogance, is the state of a devotee who has attained God. By not acquiring this, a devotee becomes attracted to the sense objects/ worldly enjoyments and at the time of death one whose defects have not ended, he even when established in this state looses the ability to attain the Supreme God i.e. remains deprived of the benefit of attaining Supreme God.
A devotee who appears to be enriched with devotion after taking initiation from a Complete / Supreme Saint, but does not give up worldly pleasures, he even after acquiring all the naams (mantras) remains deprived of the attainment of the Supreme God. In Gita Adhyay 2 Shlok 70, regarding both types of individuals has been said. Therefore, in Shlok 71 there is mention about a defectless devotee and in Shlok 72, there is mention about a devotee attracted towards worldly enjoyments.
(End of Adhyay 2)
एषा, ब्राह्मी, स्थितिः, पार्थ, न, एनाम्, प्राप्य, विमुह्यति,
स्थित्वा, अस्याम्, अन्तकाले, अपि, ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋच्छति।।72।।
अनुवाद: (पार्थ) हे अर्जुन! (एषा) यह इच्छाओं आदि का त्याग, अहंकार रहित उपरोक्त स्थिति (ब्राह्मी) परमात्मा को प्राप्त साधक की (स्थितिः) स्थिति है। (एनाम्) इसको (प्राप्य) प्राप्त (न) न होकर साधक (विमुह्यति) विषयों में मोहित हो जाता है और (अन्तकाले) अन्त समय में (अस्याम्) जिस साधक के विकार समाप्त नहीं हुए वह इस स्थितिमें (स्थित्वा) स्थित होकर (अपि) भी (ब्रह्मनिर्वाणम्) पूर्ण परमात्माको (ऋच्छति) प्राप्त होने की क्षमता समाप्त हो जाती है अर्थात् पूर्ण परमात्मा प्राप्ति के लाभ से वंचित रह जाता है। (72)
भावार्थ:- जो साधक पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके साधना सम्पन्न नजर आता है, परंत विषय विकार त्याग नहीं करता, वह सर्व नाम प्राप्त करके भी पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति से वंचित रह जाता है। गीता अध्याय 2 श्लोक 70 में दोनों प्रकार के व्यक्तियों के विषय में कहा गया है। इसलिए श्लोक 71 में विकार रहित साधक के विषय में कहा है तथा श्लोक 72 में विकारों में मोहित साधक के विषय में कहा है।
(इति अध्याय दूसरा)