गीता अध्याय 3 के श्लोक 1-2 में अर्जुन ने पूछा है कि हे जनार्दन! यदि आप कर्मों से बुद्धि (ज्ञान) को श्रेष्ठ मानते हो तो मुझे गुम राह किस लिए कर रहो हो? आप ठीक से सलाह दें जिससे मेरा कल्याण हो। आपकी बातों में विरोधाभास लग रहा है। आपकी ये दोतरफा (दोगली) बातें मुझे भ्रम में डाल रही हैं।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 3 से 8 में भगवान ने कहा है कि हे निष्पाप! (अर्जुन) इस लोक में ज्ञानी तो ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं तथा योगी कर्म योग को फिर भी ऐसा कोई नहीं है जो कर्म किए बिना बचे। निष्कर्मता नहीं बन सकती और कर्म त्यागने मात्रा से भी उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता। अध्याय 3 श्लोक 4 में निष्कर्मता का भावार्थ है कि जैसे किसी व्यक्ति ने एक एकड़ गेहूँ की पक्की हुई फसल काटनी है तो उसे काटना प्रारम्भ करके ही फसल काटने वाला कार्य पूरा किया जाएगा तब कार्य शेष नहीं रहेगा इस प्रकार कार्य पूरा होने से ही निष्कर्मता प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति कर्म प्रारम्भ करने से ही परमात्मा प्राप्ति रूपी कार्य पूरा होगा। फिर निष्कर्मता बनेगी। कोई कार्य शेष नहीं रहेगा। यदि भक्ति कर्म नहीं करेगें तो यह त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) बलपूर्वक अन्य व्यर्थ के कार्यों में लगाएगी। चूंकि स्वभाव वश माया (प्रकृति) से उत्पन्न तीनों गुण (रज-ब्रह्मा, सत-विष्णु, तम-शिव) जीव से जबरदस्ती कर्म करवाते हैं। जैसे जूआ खेलना, शराब आदि नशीली वस्तुओं का सेवन करना, चोरी-लूट, व्याभीचार करना, अधिक धन उपार्जन के अर्थ पाप करना जैसे मिलावट- धोखाधड़ी आदि कर्म जीव तीनों देवताओं से निकल रहे गुणों के प्रभाव से करता है। जब तक मानव (स्त्राी-पुरूष) पूर्ण गुरू धारण नहीं करता, तब तक वह ऐसा होता है जैसे बिना खेवटिया (मल्लाह) की नौका जो हवा के झोंकों तथा पानी की लहरों व दरिया के बहाव से प्रभावित होकर इधर-उधर जाती है। भंवर में फँसकर नष्ट हो जाती है। पूर्ण सतगुरू की शरण में जब मानव (स्त्राी-पुरूष) आ जाता है तो वह मल्लाह वाली नौका बन जाता है। सतगुरू रूपी मल्लाह जीव रूपी नौका को संसार सागर में इधर-उधर बहने (भटकने) नहीं देता। अपनी कुशलता से चलाकर दरिया के उस पार सकुशल पहुँचा देता है। जिनको पूर्ण गुरू नहीं मिला। वे जो मनमुखी भक्तजन (साधक) कर्म इन्द्रियों को हठ पूर्वक रोक कर एक स्थान पर भजन पर बैठते हैं तो उनका मन ज्ञान इन्द्रियों के प्रभाव से प्रभावी रहता है। वे लोग दिखावा आडम्बर वश समाधिस्थ दिखाई देते हैं। वे पाखण्डी हैं अर्थात् कर्म त्याग से भजन नहीं बनता। करने योग्य कर्म करता रहे तथा ज्ञान से मन व इन्द्रियों को अच्छे कर्मों में संलग्न रखे। शास्त्रों में वर्णित विधि से करने योग्य कर्म करना श्रेष्ठ है यदि सांसारिक कर्म नहीं करेगा तो तेरा निर्वाह (परिवार पोषण) कैसे होगा?
अध्याय 3 के श्लोक 9 में कहा है कि निष्काम भाव से शास्त्रा अनुकूल किये हुए धार्मिक कर्म (यज्ञ) लाभदायक हैं। यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठान जैसे पाँचों यज्ञ तथा नाम जाप करने के अतिरिक्त जूआ खेलना, शराब, तम्बाकू, माँस सेवन करना, फिल्म देखना, निंदा करना, व्याभीचार करना आदि-आदि कर्मों को करने वाला व्यक्ति कर्मों में बँधता है। इसलिए परमात्मा के निमित शास्त्रा वर्णित कर्तव्य कर्म कर।
विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 9 तक एक स्थान पर एकान्त में विशेष आसन पर बैठ कर कान-आँखें आदि बंद करके हठयोग करने की मनाही की है तथा शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना करना श्रेयकर बताया है। प्रत्येक सद्ग्रन्थों में सांसारिक कार्य करते-करते नाम जाप व यज्ञादि करने का भक्ति विधान बताया है।
प्रमाण:- पवित्र गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म का उच्चारण करके सुमरण करने का केवल एक मात्र ओं (ॐ) अक्षर है जो इसका जाप अन्तिम श्वांस तक कर्म करते-करते भी करता है वह मेरे वाली परमगति को प्राप्त होता है।
अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि हर समय मेरा स्मरण भी कर तथा युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे आदेश का पालन करते हुए अर्थात् सांसारिक कर्म करते-करते साधना करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा। भले ही अपनी परमगति को गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अति अश्रेष्ठ अर्थात् अति व्यर्थ बताया है, परंतु ब्रह्म साधना की विधि यही है।
फिर अध्याय 8 श्लोक 8 से 10 तक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है, उस परमात्मा अर्थात् पूर्णब्रह्म की भक्ति करो, जिसका विवरण गीता अध्याय 8 श्लोक 8.10 में तथा अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 1 व 4 तथा 17 में दिया है। उसका भी यही विधान है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की साधना तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करता हुआ तथा सांसारिक कार्य करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह उस परम दिव्य पुरुष अर्थात् पूर्ण परमात्मा को ही प्राप्त होता है। तत्वदर्शी संत का संकेत गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में दिया है। तत्वदर्शी सन्त की पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में है यही प्रमाण पवित्रा यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्रा 10 तथा 13 में दिया है।
यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 का भावार्थ:-
पवित्र वेदों को बोलने वाले ब्रह्म ने कहा कि पूर्ण परमात्मा के विषय में कोई तो कहता है कि वह अवतार रूप में उत्पन्न होता है अर्थात् आकार में कहा जाता है, कोई उसे कभी अवतार रूप में आकार में उत्पन्न न होने वाला अर्थात् निराकार कहता है। उस पूर्ण परमात्मा का तत्वज्ञान तो धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संत ही बताऐंगे कि वास्तव में पूर्ण परमात्मा का शरीर कैसा है? वह कैसे प्रकट होता है? पूर्ण परमात्मा की पूरी जानकारी धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संतों से सुनों। मैं वेद ज्ञान देने वाला ब्रह्म भी नहीं जानता। फिर भी अपनी भक्ति विधि को बताते हुए अध्याय 40 मंत्र 15 में कहा है कि मेरी साधना ओ3म् (ॐ) नाम का जाप कार्य करते-करते कर, विशेष आस्था के साथ सुमरण कर तथा मनुष्य जीवन का मुख्य कत्र्तव्य जान कर सुमरण कर, इससे मृत्यु उपरान्त अर्थात् शरीर छूटने पर मेरे वाला अमरत्व अर्थात् परमगति को प्राप्त हो जाएगा। जैसे सूक्ष्म शरीर में कुछ शक्ति आ जाती है, कुछ समय तक अमर हो जाता है। जिस कारण स्वर्ग या महास्वर्ग यानि ब्रह्मलोक में चला जाता है। पुनः जन्म-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 3 के श्लोक 10 में कहा है कि प्रजापति ने कल्प के प्रारम्भ में कहा था कि सब प्रजा यज्ञ करंे। इससे तुम्हें सांसारिक भोग प्राप्त होंगे, न कि मुक्ति। इसका जीवित प्रमाण है कि यज्ञों से सांसारिक भोगों व स्वर्ग प्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं। क्ष्यज्ञ भी आवश्यक हैं जैसे गेहूँ का बीज जमीन में बीजने के पश्चात् उसको सिंचाई के लिए जल तथा पोषण के लिए खाद की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार परमात्मा की भक्ति के लिए नाम मंत्रा रूपी बीज आत्मा में डालने के पश्चात् उसमें यज्ञों (पाँचों यज्ञों = धर्म यज्ञ, हवन यज्ञ, ध्यान यज्ञ, प्रणाम यज्ञ, ज्ञान यज्ञ) रूपी जल व खाद की आवश्यकता होती है। परंतु पूर्ण गुरु से नाम ले कर गुरु मर्यादा में रहते हुए अंतिम समय तक अनन्य मन से नाम जाप (अभ्यास योग) करता रहे वह साधक अंत में अपने इष्ट लोक में चला जाता है तथा जब तक संसार में रहता है, उसको यज्ञों के फल रूप में संसारिक सुविधाऐं भी अधिक मिलती रहती हैं। वही यज्ञों में प्रतिष्ठित इष्ट (पूर्ण परमात्मा) ही मन इच्छित यज्ञों का फल देता है। प्रमाण के लिए गीता जी के अध्याय 3 के श्लोक 14.15 में देखें। अध्याय 3 के श्लोक 11 में कहा है कि देवता यज्ञ से उन्नत होकर आप को उन्नत करें अर्थात् धनवान बनाएगें। इस प्रकार एक दूसरे का सहयोग रखो।
अध्याय 3 का श्लोक 10
सहयज्ञाः, प्रजाः, सृष्टा, पुरा, उवाच, प्रजापतिः,
अनेन, प्रसविष्यध्वम्, एषः, वः, अस्तु, इष्टकामधुक्।।10।।
अनुवाद: (प्रजापतिः) प्रजापति यानि कुल के मालिक ने (पुरा) कल्पके आदिमें (सहयज्ञाः) यज्ञसहित (प्रजाः) प्रजाओंको (सृष्टा) रचकर उनसे (उवाच) कहा कि (अनेन) अन्न द्वारा होने वाला धार्मिक कर्म जिसे धर्म यज्ञ कहते हैं, जिसमें भोजन-भण्डारे यानि लंगर करना है, इस यज्ञ के द्वारा (प्रसविष्यध्वम्) वृद्धि को प्राप्त होओ और (वः) तुम साधकों को (एषः) यह पूर्ण परमात्मा (इष्टकामधुक्) यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट ही इच्छित भोग प्रदान करनेवाला (अस्तु) हो।(3/10)
भावार्थ:- पूर्ण परमात्मा ने कल्प के प्रारम्भ में यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों का ज्ञान तथा प्रजा को उत्पन्न करके उनसे कहा था कि अन्न द्वारा होने वाले धार्मिक कर्म जिसे धर्म यज्ञ कहते हैं जिसमें भोजन-भण्डारा यानि लंगर करना। इस यज्ञ के द्वारा बुद्धि को प्राप्त होओ यानि धर्म करने से धन प्राप्त होता है। तुम साधकों को यज्ञ में पूज्य इष्ट देव ही मनवांछित भोग प्रदान करे। यानि धन चाहिए तो दान धर्म कर, मुक्ति चाहिए तो ‘‘भज सतनाम’’ वाले सिद्धांत अनुसार पूर्ण परमात्मा साधक को लाभ देता है, उसे प्राप्त करो।(3/10)
अध्याय 3 का श्लोक 11
देवान्, भावयत, अनेन, ते, देवाः, भावयन्तु, वः,
परस्परम् भावयन्तः, श्रेयः, परम्, अवाप्स्यथ।।11।।
हिन्दी अनुवाद:- यज्ञ के द्वारा देवताओं अर्थात् संसार रूपी पौधे की शाखाओं को उन्नत करो और वे देवता अर्थात् शाखाऐं तुम लोगों को उन्नत करें यानि पौधा पेड़ बनेगा। शाखाऐं फल देंगी। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करके परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।(3ध्11)
नोट:- इस ज्ञान को समझने के लिए कृपा देखें इसी पुस्तक के पृष्ठ 42 पर संसार रूपी पौधे का चित्र। चित्रों के द्वारा गीता अध्याय 3 के श्लोक 10-15 तक को समझना सरल हो जाएगा।
वशेष:- गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में वर्णित उल्टा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष है, उस की जड़ (मूल) तो पूर्ण परमात्मा है तथा तना परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष है तथा डार क्षर पुरुष (ब्रह्म) है व तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी रूपी शाखायें हैं। वृक्ष को मूल(जड़) से ही खुराक अर्थात् आहार प्राप्त होता है। जैसे हम आम का पौधा लगायेंगे तो मूल को सीचेंगे, जड़ से खुराक तना में जायेगी, तना से मोटी डार में, डार से शाखाओं में जायेगी, फिर उन शाखाओं को फल लगेंगे, फिर वह टहनियां अपने आप फल देंगी। इसी प्रकार पूर्णब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म रूपी मूल की पूजा अर्थात् सिंचाई करने से अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म रूपी तना में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी, फिर अक्षर पुरुष से क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म रूपी डार में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी। फिर ब्रह्म से तीनों गुण अर्थात् श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी रूपी तीनों शाखाओं में संस्कार अर्थात् खुराक जायेगी। फिर इन तीनों देवताओं रूपी टहनियों को फल लगेंगे अर्थात् फिर तीनों प्रभु श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी हमें संस्कार आधार पर ही कर्म फल देते हैं। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16 व 17 में भी है कि दो प्रभु इस पृथ्वी लोक में हैं, एक क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, दूसरा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म। ये दोनों प्रभु तथा इनके लोक में सर्व प्राणी तो नाशवान हैं, वास्तव में अविनाशी तथा तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करने वाला परमेश्वर परमात्मा तो उपरोक्त दोनों भगवानों से भिन्न है।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 12 का हिन्दी अनुवाद:- यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम साधकों को इच्छित भोग यानि सुख पदार्थ बिना माँगे निश्चय ही देते रहेंगे। भावार्थ है कि भक्ति रूपी पौधे के मूल की सिंचाई करके पेड़ बना लेते हैं। शाखाऐं बढ़ जाती हैं। उन शाखाओं को अपने-आप फल लगते हैं। बिना माँगे ही सेवक को फल देते हैं। इस प्रकार पूर्ण परमात्मा रूपी मूल यानि जड़ की ईष्ट रूप में प्रतिष्ठित करके पूजा करने वाले के शास्त्रा अनुकूल भक्ति कर्मों का फल तीनों देवता (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव) ही बिना माँगे देते रहते हैं। जो धन कर्मानुसार मानव को मिला है, यदि उसमें से दान-धर्म नहीं करते यानि देवताओं को नहीं बढ़ाते यानि मूल मालिक को ईष्ट देव रूप में प्रतिष्ठित करके दान नहीं देते, अपितु स्वयं ही भोगते हैं। वह तो परमात्मा का चोर है। (3/12)
गीता अध्याय 3 श्लोक 13 का अनुवाद:- जैसे गीता अध्याय 3 के श्लोक 12 में कहा है कि यज्ञ (शास्त्राविधि से किए धार्मिक अनुष्ठान) से पुष्ट(इष्ट) देवता आपको सांसारिक सुविधा कर्मफल के आधार पर देते हैं। फिर जो उसका कुछ अंश धर्म में नहीं लगाते अर्थात् जो धर्म यज्ञ आदि नहीं करते वे (संविधान तोड़े हुए हैं) पापी हैं, चोर हैं। गीता अध्याय 3 के श्लोक 13 में वर्णन है कि यज्ञ में प्रतिष्ठित (पूर्ण परमात्मा) इष्टदेव को भोग लगाकर फिर भण्डारा करें। वे साधक यज्ञ के द्वारा होने वाले लाभ को प्राप्त हो जाएंगे। ख्सर्व पापों से मुक्त होने का अभिप्राय यह है कि जो यज्ञ नहीं करते वे पापी कहे हैं और जो शास्त्रा विधि के अनुसार (मतानुसार) यज्ञ करते हैं वे उन सर्व पापों से बच जाते हैं जो यज्ञ न करने से लगने थे, यदि कोई यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठान नहीं करता, वह तो चोर बताया है। प्रतिदिन या सत्संग के समय भोजन प्रसाद बनता है। सर्व प्रथम कुछ भोजन अलग निकाल कर पूर्ण परमात्मा को भोग लगाया जाना चाहिए। उसके पश्चात् शेष भोजन भण्डारा वितरित किया जाना चाहिए। प्रभु के भोग से बचा शेष भोजन व प्रसाद खाने वाले के कुछ पाप विनाश हो जाते हैं। इस प्रकार पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके उसके बताए अनुसार सर्व भक्ति कार्य करने से साधक पूर्ण मुक्त हो जाता है।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 14-19 का हिन्दी अनुवाद:-
प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है। वृष्टि यज्ञ से यानि धार्मिक अनुष्ठान से होती है। यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठान शास्त्रा अनुकूल कर्मों से सफल होते हैं।(3/14)
कर्मों को तू ब्रह्म यानि काल ब्रह्म से उत्पन्न जान क्योंकि जीव सतलोक को त्यागकर काल लोक में आए तो कर्म करके सर्व पदार्थ प्राप्त करते हैं। सतलोक में बिना कर्म किए सर्व पदार्थ प्राप्त होते हैं। वहाँ नैष्कर्मय मुक्ति जीव को प्राप्त होती है। इस श्लोक में आगे कहा है कि ब्रह्म यानि काल ब्रह्म की उत्पत्ति अविनाशी परमात्मा यानि परम अक्षर पुरूष से हुई है, ऐसा जान। इससे सिद्ध होता है कि (‘‘सर्वगतम् ब्रह्म’’) सर्वव्यापी परम अक्षर ब्रह्म सदा ही यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों में प्रतिष्ठित है, ईष्ट रूप में पूज्य है।(3/15)
हे पृथ्यु पुत्र यानि पार्थ! जो व्यक्ति इस काल ब्रह्म के लोक में इस प्रकार प्रचलित विधान चक्र के अनुकूल नहीं बरतता यानि शास्त्रों में दिए व्याख्यान के अनुसार भक्ति कर्म नहीं करता, वह इन्द्रियों के भोगों में रमण करने वाला पापायु यानि जीवनभर पाप करने वाला व्यक्ति व्यर्थ ही जीवित रहता है।(3/16)
परंतु जो मानव आत्मा यानि सच्चे मन से परमात्मा के विद्यान का पालन करता है और जो अपने शास्त्रा अनुकूल कर्म से तृप्त है तथा जिसे अपनी आत्मा से किए शास्त्रानुकूल कर्म से संतुष्टि हो, उसके लिए अन्य पदार्थ की प्राप्ति के लिए कर्मों से कोई प्रयोजन नहीं रहता।(3/17)
उस महापुरूष के लिए विश्व में न तो व्यर्थ के पाप कर्म करने से कोई प्रयोजन रह जाता है तथा न शास्त्रानुकूल धार्मिक कर्म न करने से कोई प्रयोजन रह जाता है यानि तत्वज्ञान परिचित व्यक्ति अशुभ कर्म कदापि नहीं करता तथा शुभ व शास्त्रोक्त साधना किए बिना भी नहीं रह सकता। वह केवल परमार्थ के कार्य ही करता है। किसी भी प्राणी से स्वार्थ सिद्धि के लिए ही
सम्बन्ध नहीं रखता। वह सबका शुभचिंतक होता है।(3/18)
इसलिए आप तथा अन्य साधक निरंतर आसक्ति रहित होकर सदा शास्त्रोक्त कर्तव्य कर्म को भली-भांति करते रहो क्योंकि काल लोक से आसक्ति हटाकर शास्त्रोक्त भक्ति कर्म करता हुआ साधक (परम् पुरूषः) गीता ज्ञान दाता से पर यानि दूसरे पुरूषः यानि परमात्मा को प्राप्त होता है।(3/19)
विश्लेषण:- गीता अध्याय 3 के श्लोक 19 में मूल पाठ में लिखा है कि साधक शास्त्रोक्त साधना करके ‘‘परम् आप्नोति पुरूषः’’ अन्य परमात्मा को प्राप्त होता है। ‘‘परम्’’ का अर्थ अन्य गीता अनुवादकों ने ‘‘परम्’’ का अर्थ परमात्मा किया है। इन्हीं अनुवादकों ने इसी अध्याय 3 के श्लोक 42-43 में ‘‘परम्’’ का अर्थ ‘‘पर’’ किया है। ‘‘पर’’ का अर्थ ‘‘श्रेष्ठ’’ किया है। यदि हिन्दी की बात करें तो ‘‘पर’’ का अर्थ अन्य या आगे वाला (छमगज) होता है। जैसे दादा, फिर परदादा तथा ब्रह्म, फिर परब्रह्म यानि दूसरा ब्रह्म या अन्य ब्रह्म होता है। इन्हीं अनुवादकों ने गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में ‘‘परः’’ का अर्थ परे किया है। अध्याय 8 के ही श्लोक 22 में ‘‘परः’’ का अर्थ ‘‘परम’’ किया है जबकि मूल पाठ से स्पष्ट है कि परः का अर्थ अन्य यानि दूसरा है, जैसे अध्याय 8 श्लोक 22 में परः का अर्थ अन्य, दूसरा सही है जो इस प्रकार है:-
पुरूषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया। यस्य अन्तः स्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम्।।(8/22)
इस अध्याय 8 के श्लोक 22 का यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:- (पार्थ) हे पार्थ! (सः परः पुरूषः) वह मेरे से अन्य परमात्मा (तू) तो (अनन्या भक्तया लभ्यः) अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। जिस परमात्मा के आधीन सर्व प्राणी हैं और जिस सच्चिदानंद घन परमात्मा से यह सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण है यानि जो सर्वगतम् यानि सर्वव्यापी परमात्मा है। वह गीता ज्ञान दाता से अन्य है।(8/22)
इन्हीं गीता के अनुवादकों ने गीता अध्याय 7 के श्लोक 13 में ‘‘परम्’’ का अर्थ परे किया है जो मूल पाठ व अनुवाद में इस प्रकार है:- (एभ्यः) इन तीनों गुणों से (परम्) परे (माम्) मुझ (अव्ययम्) अविनाशी को (न) नहीं (अभिजानाति) जानते तथा अध्याय 14 श्लोक 19 में भी ‘‘परम्’’ का अर्थ परे किया है। लेखक यह सिद्ध करना चाहता है कि मेरे अतिरिक्त विश्व में किसी को भी सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान नहीं। जिस कारण से सबने अर्थों का अनर्थ करके गीता की गरिमा को गिराया है। श्री कृष्ण उर्फ विष्णु को सर्व का मालिक परमात्मा बताया है जो स्पष्ट झूठ है। इसी कारण से जहाँ-जहाँ गीता में अस्पष्ट यानि सांकेतिक या संक्षिप्त में लिखा है कि पूर्ण परमात्मा गीता ज्ञान दाता से भिन्न है। वहाँ-वहाँ पर अनुवाद बिल्कुल गलत कर दिया। अर्थों का अनर्थ किया है। जिन श्लोकों में गीता ज्ञान देने वाले से अन्य पूर्ण परमात्मा का स्पष्ट वर्णन है, वहाँ अन्य अनुवादकर्ताओं ने स्पष्ट लिखना पड़ा, परंतु इनको पता नहीं वह कौन परमात्मा है?
जैसे गीता अध्याय 8 श्लोक 3, 8-10, 20, 21, 22 में, अध्याय 4 श्लोक 31-32 में, अध्याय 5 श्लोक 14-16, 19, 20, 24-26 , अध्याय 6 श्लोक 7, अध्याय 12 श्लोक 1-5, अध्याय 13 श्लोक 12-28, 30, 31, 34 में, अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, 66 में गीता ज्ञान देने वाले से अन्य पूर्ण परमात्मा का वर्णन है।
उपरोक्त श्लोकों को आप इसी पुस्तक के उसी अध्याय के सारांश में पढ़ें जहाँ पर विस्तार से वर्णन है।
उदाहरण के लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 31 में अन्य परमात्मा का स्पष्ट वर्णन मूल पाठ में है तो अनुवादकों ने स्पष्ट लिखना पड़ा, परंतु श्लोक 32 में सांकेतिक वर्णन है। वहाँ अर्थ का अनर्थ करके गलत अनुवाद कर दिया। इसमें ‘‘ब्रह्मणः’’ शब्द का अर्थ वेद कर दिया जबकि इन्होंने ही गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ब्रह्मणः का अर्थ सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि पूर्ण ब्रह्म ठीक किया है। इसलिए अध्याय 4 श्लोक 32 में भी पूर्ण परमात्मा का वर्णन है। प्रसंग चल रहा है कि गीता अध्याय 3 के श्लोक 19 में ‘‘परम् = पर’’ का अर्थ अन्य अनुवादकों ने ‘‘परम्’’ यानि पर का अर्थ परमात्मा किया है तथा एस्कोन वालों ने ‘‘परम्’’ यानि पर का अर्थ परब्रह्म किया है। जिससे यह तो प्रमाणित होता है कि अनुवादक मानते हैं कि इस अध्याय 3 के श्लोक 19 में गीता ज्ञान दाता से अन्य (दूसरे) परमात्मा का वर्णन है। परब्रह्म का भी अर्थ अन्य यानि दूसरा ब्रह्म यानि अन्य परमात्मा बनता है, अनुवाद में गोलमाल करना चाहा है। परंतु सच्चाई छिपती नहीं है। मूल पाठ में ‘‘परम् पुरूषः आप्नोति’’ से स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता से पर पुरूष यानि दूसरे परमात्मा को (आप्नोति) प्राप्त होता है। यह ठीक है। इस अध्याय 3 श्लोक 35 में ‘‘पर धर्म’’ का अर्थ दूसरे का धर्म इन्हीं अनुवादकों ने किया है। इसलिए यहाँ भी ‘‘परम्’’ का अर्थ दूसरा पुरूष यानि परमात्मा करना उचित है।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 14-15 में कहा है कि सब प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होता है, वर्षा यज्ञ से होती है, यज्ञ शुभ कर्मों से उत्पन्न होते हैं तथा कर्म, ब्रह्म (काल) द्वारा उत्पन्न हुए और ब्रह्म (काल) अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। वही सर्वव्यापी अविनाशी परमात्मा सदा ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है अर्थात् यज्ञों से होने वाला लाभ भी वही (सतपुरुष ही) देता है। इसलिए यज्ञों का भी पूर्ण लाभ पूर्ण परमात्मा से ही सिद्ध हुआ। इन दोनों श्लोकों में स्पष्ट है कि काल ब्रह्म की उत्पत्ति अविनाशी परमात्मा से हुई है। वही सर्वव्यापी परमात्मा ही यज्ञों द्वारा पूज्य है तथा वही फल देता है। ‘सर्वगतम् ब्रह्म‘ का अर्थ है सर्वव्यापी भगवान यानि वासुदेव। जैसे काल ब्रह्म तो केवल इक्कीस ब्रह्मण्डों में व्यापक है। परब्रह्म केवल सात शंख ब्रह्मण्डों में व्यापक है। परंतु पूर्णब्रह्म (सतपुरुष) असंख ब्रह्मण्डों (सर्व ब्रह्मण्डों) जिसमें ब्रह्म व परब्रह्म के ब्रह्मण्ड और अन्य ब्रह्मण्ड भी शामिल हैं, में व्यापक है। इसलिए सर्वव्यापक परमात्मा ‘‘पूर्ण ब्रह्म‘‘ हुआ जो सर्वव्यापक भगवान और कुल मालिक है। जैसे:-
ईश = क्षर पुरुष = ब्रह्म (इक्कीस ब्रह्मण्ड में व्यापक है।)
ईश्वर = अक्षर पुरुष = परब्रह्म (सात शंख ब्रह्मण्ड में व्यापक है।)
परमेश्वर = परम अक्षर पुरुष = पूर्णब्रह्म (सतपुरुष) जो अनन्त कोटि ब्रह्मांडों में व्यापक है यानि सर्वव्यापक है। जैसे मंत्री अपने विभाग में व्यापक है, मुख्य मन्त्राी अपने राज्य (state) में व्यापक है और प्रधान मन्त्राी पूरे देश (राष्ट्र) के सब राज्यों (states) में व्यापक है और राष्ट्रपति भी सर्व राष्ट्र में व्यापक है प्रत्येक प्रभु में शक्ति है परंतु कुल मालिक (पूर्ण शक्ति युक्त) प्रधान मन्त्राी तथा राष्ट्रपति हैं। इसी प्रकार ब्रह्म (ईश/काल) के तीनों पुत्रा (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) प्रान्त अर्थात् एक ब्रह्मण्ड में विभागीय मन्त्राी (स्वामी) हैं। ब्रह्मा सर्व जीवों को उत्पन्न करने वाले विभाग का मालिक है, परंतु सब का मालिक नहीं है। इसी प्रकार विष्णु स्थिती करने वाले विभाग में मालिक है, परंतु सब का मालिक नहीं है। इसी प्रकार शिव (संहार करने) विनाश करने के विभाग के मालिक हैं परंतु सब के मालिक नहीं हैं। इसी प्रकार ब्रह्म (ईश/ज्योतिनिरंजन/काल) केवल इक्कीस ब्रह्मण्ड के मालिक हैं, सब के मालिक नहीं हैं। इसी प्रकार अक्षर पुरुष (ईश्वर/परब्रह्म) केवल सात शंख ब्रह्मण्ड के
मालिक हैं सर्व के मालिक नहीं हैं।
हाँ, पूर्णब्रह्म (परमेश्वर/सतपुरुष) अनंत करोड़ ब्रह्मण्डों जिसमें ब्रह्मा-विष्णु-शिव के तीनों (स्वर्ग-मृत्यु-पाताल) लोक, ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मण्ड व परब्रह्म के सात शंख ब्रह्मण्ड भी शामिल हैं, का मालिक है अर्थात् कुल का मालिक सर्वव्यापक परमात्मा (सर्वगतम् ब्रह्म/ सतपुरुष) ही है जो सर्व साधनाओं का फल दाता है। जैसे वृक्ष की जड़ें (मूल) ही पूर्ण वृक्ष की पालन कत्र्ता हैं। ऐसे --
कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार। तीनों देवा साखा हैं, पात रूप संसार।।1।।
कबीर, एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। माली सीचैं मूल कूं, फूलै फलै अघाय।।2।।
कबीर, हम ही अलख अल्लाह हैं, मूल रूप करतार। अनंत कोटि ब्रह्मण्ड का, मैं ही सृजनहार।।3।।
भावार्थ:- गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 में प्रमाण है, उसी का वर्णन परमेश्वर कबीर जी ने सम्पूर्ण तथा विस्तार से बताया है कि मैं (परम अक्षर पुरूष) तो संसार रूपी वृक्ष का मूल हूँ। मैं ही सर्व ब्रह्मण्डों का रचने वाला हूँ। मूल होने से सर्व का पोषण करता हूँ तथा अक्षर पुरूष संसार वृक्ष का तना जानो और क्षर पुरूष मोटी डारों में से एक डार जानो तथा तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) को उस डार रूप क्षर पुरूष पर लगी तीन शाखा जानो। उन शाखाओं पर लगे पत्तों को संसार के जीव-जंतु, मानव आदि प्राणी जानो। एक जड़ की सिंचाई करने से सर्व वृक्ष फल-फूल जाता है। यदि शाखाओं को जमीन में रोपकर सिंचाई करेंगे तो पौधा नष्ट हो जाएगा। इसलिए एक पूर्ण परमात्मा को इष्ट रूप में पूजने से भक्ति रूपी पौधा फलता-फूलता है यानि सर्व लाभ मिलते हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 10.19 तक का भावार्थ जानने के लिए देखें भक्ति रूपी पौधे का
चित्रा इसी पुस्तक के पृष्ठ 41-42 पर।)
गीता अध्याय 3 के श्लोक 16 में लिखा है कि जो यज्ञ नहीं करता वह व्यर्थ जीवन जी रहा है। जो व्यक्ति इस लोक में बने भक्ति नियमों (भजन करना, यज्ञ, दान, दया करना) का पालन नहीं करता, मौज मारता रहता है, वह पाप आत्मा संसार में व्यर्थ ही आया है।
संत गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि:-
जिन पुत्र नहीं यज्ञ करी, पिंड प्रधान पराण। नाहक जग में अवतरे, जिनसे नीका श्वान।।
भावार्थ:- जिस पुत्रा ने शास्त्राविधि अनुसार धार्मिक अनुष्ठान नहीं किए और शास्त्रा विरूद्ध पिण्डदान, श्राद्ध आदि कर्मकाण्ड किए, उससे तो कुत्ता भी अच्छा यानि पिता की आत्मा धार्मिक पुत्रा से प्रसन्न होती है। पिता या माता के जीवन काल में पुत्रा को चाहिए कि गुरू जी की आज्ञा लेकर धर्म-कर्म करे। अन्यथा उस पुत्रा से तो पशु भी अच्छा है।
गुरु से दीक्षा लेकर नाम जाप न करके केवल यज्ञ करने से मुक्ति नहीं है बल्कि यह लेन-देन बताया। गीता जी के अध्याय 3 के श्लोक 9 से 16 तक का भावार्थ है कि यज्ञ करने से मात्र एक सांसारिक सुविधा उपलब्ध होती है, मुक्ति नहीं। परंतु यज्ञ मोक्ष में सहयोगी हैं। बिना नाम दीक्षा लिए की गई यज्ञ केवल संसारिक सुविधाऐं देती हैं। साथ में यह भी सिद्ध हुआ कि यह सर्व सुविधा भी पूर्णब्रह्म सतपुरुष (मूल=जड़ों) द्वारा दी जाती है जो स्वयं कबीर साहेब (कविर्देव) हैं।, मुझ दास (रामपाल दास) के अतिरिक्त श्रीमद्भगवद् गीता जी के सब अनुवादकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न अध्यायों में ब्रह्म का अर्थ वेद तथा परमात्मा दोनों किया है। यह उनकी अल्पज्ञता का ही प्रमाण है, ब्रह्म का अर्थ परमात्मा होता है, वेद नहीं। जैसे एक तो राजा होता है, वह तो ब्रह्म जानों तथा एक उसके द्वारा बनाया गया संविधान होता है, वह वेद जानों। कोई अज्ञानी राजा का अर्थ नरेश न करके संविधान करे तो उचित नहीं। इसलिए ब्रह्म का अर्थ परमात्मा होता है। जैसे किसी उपायुक्त के कार्यालय के अन्य अधिकारी व कर्मचारी आपस में चर्चा करते समय बार-बार उपायुक्त साहेब न कह कर केवल साहेब ही प्रयोग करते हैं। उपायुक्त साहेब का कोई आदेश एक-दूसरे को सुनाते समय कहते हैं कि साहेब ने कहा है कि अमुक दस्तावेज तैयार करो। उनके लिए उपायुक्त साहेब स्वयं ही जाना माना होता है।
इसी प्रकार काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन-काल) के इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों में इसी क्षर पुरुष को साहेब अर्थात् ब्रह्म नाम से जाना जाता है। इसलिए उपरोक्त श्लोकों में जाना-माना होने के कारण लिखा है कि ब्रह्म की उत्पत्ति अविनाशी परमात्मा (सर्व व्यापक पूर्ण परमात्मा) से हुई है। वही सर्वगतम् ब्रह्म अर्थात् सर्वव्यापक परमात्मा ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है यानि पूज्य है।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 17-18 का भावार्थ है कि जो व्यक्ति आत्म-तत्व का ध्यान करता है उसे अन्य यज्ञों की भी आवश्यकता नहीं होती क्योंकि ध्यान भी एक यज्ञ है तथा ध्यान वही व्यक्ति अधिक करता है जो वानप्रस्थ हो जाता है जैसे श्रृंगी ऋषि हुआ था। वह भी ध्यान में रहता था। फिर वह अन्य यज्ञ नहीं कर सकता। परंतु तत्वज्ञान हो जाने के पश्चात् साधक न तो शास्त्रा विधि रहित साधना (मनमाना आचरण) करता है तथा न ही स्वार्थवश करवाता है। उसका उद्देश्य स्वार्थवश धन उपार्जन नहीं रहता। इसलिए कहा है कि कोई कार्य नहीं रहता अर्थात् निरंतर प्रभु चिन्तन में ही मग्न रहता है।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 20 में प्रमाण है कि -
बिन इच्छा जो देत है, सो दान कहावै। फल बाचैं नहीं तासका, सो अमरापुर जावै।
शब्दार्थ:- जो श्रद्धालु किसी मनोकामना की पूर्ति की इच्छा न रखकर अपना धार्मिक कर्तव्य जानकर दान करता है, वह वास्तविक दान है। ऐसा व्यक्ति पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर अमर लोक (शाशवत स्थान) में चला जाता है यानि मोक्ष प्राप्त करता है।
राजा जनक भी यज्ञ आदि करते थे परंतु इच्छा रूपी नहीं। मनुष्य का कर्तव्य समझ कर किया गया यज्ञ परमात्मा प्राप्ति में सहयोग देता है तथा यज्ञ का फल भी देता है।
(इन श्लोकों से भी स्पष्ट है कि गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी में प्रवेश करके बोला था।)
गीता अध्याय 3 के श्लोक 21 से 24 में कहा है कि हे अर्जुन! ज्ञानी साधु संतों को अच्छे कर्म शास्त्रा अनुकूल करने चाहिए, चूंकि उन्हीं (संत जनों) का अनुसरण अन्य समाज भी करता है। जबकि मुझे तीन लोक में कोई कर्म करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि तीन लोक की सर्व सुविधा मैं बिन कर्म किए भी प्राप्त कर सकता हूँ। फिर भी अच्छे कर्म करता हूँ ताकि अन्य प्राणी भी मेरा अनुसरण करें, नहीं तो मैं समाज का नाश करने वाला वर्णशंकरता को पैदा करने वाला साबित हो जाऊँ।
विचार करें:- श्री कृष्ण जी के चरित्र का अनुसरण करने से तो समाज में अराजकता, अश्लीलता का आलम हो जाएगा। जैसे कुंवारी राधा से रमण (काम क्रीड़ा), कुंवारी कुब्जा से भोग विलास, गोपियों के वस्त्रा हरण करना तथा उनको जल से निःवस्त्रा बाहर निकालना। गोपियों ने जल से बाहर आते समय एक हाथ से गुप्तांग को ढ़का हुआ था तथा दूसरे से अपनी छातियों को छुपा रखा था। फिर भी श्री कृष्ण भगवान बोले कि ऐसे नहीं, दोनों हाथ ऊपर करो, तब कपड़े मिलेंगे। जब सब गोपियों ने दोनों हाथ ऊपर किए, उस समय वे बिल्कुल नग्न थी। तब भगवान कृष्ण जी ने उनके कपड़े दिए। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें ‘‘श्री मद्भागवत सुधा सागर‘‘।
रूकमणी को जबरदस्ती उठा कर भाग जाना और जब उसके भाई रूकमी ने अपनी बहन की इज्जत बचाने के लिए पीछा किया तो श्री कृष्ण जी ने उसे रथ से बाँध कर घसीटा।
अर्जुन को क्षत्राी धर्म पालन न करने से होने वाली हानि जोर देकर समझाना तथा स्वयं कालयवन राजा के सामने युद्ध छोड़ कर भाग जाना, क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध आचरण है।
युधिष्ठिर से झूठ बुलवाना कि कह दे कि अश्वत्थामा (द्रोणाचार्य का पुत्रा) मर गया आदि-2।
कथनी और करनी में अंतर भी यह सिद्ध करता है कि भगवान कृष्ण जी ने श्रीमद् भगवद् गीता नहीं कही। गीता ज्ञान कहने वाला गीता जी में कहता है कि यदि सोच समझ कर कर्म न करुं तो मैं वर्णशंकरता का कारण साबित होऊँ। फिर कथन से विरूद्ध आचरण। पवित्रा श्रीमद् भगवद् गीता जी श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रविष्ट करके काल (ब्रह्म) भगवान ने अपना उल्लु सीधा (युद्ध करवा कर लाखों व्यक्तियों का संहार करवाना था) करने के लिए कही, क्योंकि काल (ब्रह्म) ने गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में कहा है कि मैं किसी को किसी भी साधना से दर्शन नहीं दूंगा। परंतु सर्व कार्य मेरे द्वारा गुप्त शक्ति (निराकार शक्ति) से किए जाएंगे। गीता अध्याय 7 श्लोक 24.25 में भी स्पष्ट कहा है कि मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। यह मेरा अटल अनुत्तम यानि घटिया नियम है। मैं कभी किसी के प्रत्यक्ष नहीं होता। यदि श्री कृष्ण गीता बोल रहे होते तो यह नहीं कहते। वे तो सर्व के समक्ष उपस्थित थे।
इससे सिद्ध हुआ कि गीता का ज्ञान काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके कहा था। गीता अध्याय 3 के श्लोक 21-25 का हिन्दी अनुवाद:-
श्रेष्ठ व्यक्ति जैसा आचरण करते हैं, अन्य व्यक्ति भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जैसा भी प्रमाण जनता के समक्ष कर देता है, उस क्षेत्रा के अन्य व्यक्ति समुदाय उसके अनुसार बरतने लगते हैं।(3/21)
हे पार्थ यानि हे अर्जुन! मेरे लिए तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है। फिर भी मैं (गीता ज्ञान दाता) कर्मों में ही बरतता हूँ।(3/22)
क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।(3/23)
यदि मैं सावधान होकर शुभ कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायें और मैं यानि गीता ज्ञान दाता संकरता करने वाला होऊँ। इस लोक की समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ।(3/24)
हे भारत यानि भरतवंशी अर्जुन! कर्मों में आसक्त हुए अज्ञानी जन जिस प्रकार दृढ़तापूर्वक कर्म करते हैं। आसक्ति रहित विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि लोक संग्रह करता हुआ यानि शुभ कर्मों का प्रचार करके तथा स्वयं अच्छा आचरण करके अपने अनुयाई बनाने के लिए उसी प्रकार दृढ़ता से कर्म करे। जैसे अज्ञानी गलत को पूरी लगन से करता है, मुड़कर नहीं देखता। उसी प्रकार परमार्थी को परमार्थ पर लगना चाहिए।(3/25)
गीता अध्याय 3 श्लोक 25 से 29 तक का भावार्थ:- पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 श्लोक 13 में वेद ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि जिस व्यक्ति को अक्षर ज्ञान है उसे विद्वान कहते हैं जिसे अक्षर ज्ञान नहीं है उसे अविद्वान कहते हैं। परन्तु विद्वान तथा अविद्वान की वास्तविक जानकारी तत्वदर्शी सन्त ही बताते हैं उनसे सुनों। पूर्ण परमात्मा कविर्देव जी ने अपनी अमृतवाणी (कविर्वाणी) में विद्वान तथा अविद्वान की परिभाषा बताई है। कहा है कि जिसे तत्वज्ञान है वह वास्तव में विद्वान है। केवल अक्षर ज्ञान (किसी भाषा का ज्ञान) होने से विद्वान नहीं होता। क्योंकि जो संस्कृत भाषा में विद्वान माना जाता है, वह पंजाबी भाषा को न जानने वाला उस भाषा में अविद्वान है।
इसी आधार से गीता अध्याय 3 श्लोक 25 से 29 तक के ज्ञान को जानना है। श्लोक 25 में कहा है कि शास्त्राअनुकूल साधना रूपी कर्तव्य कर्म में आसक्त अविद्वान अर्थात् अशिक्षित् जिस प्रकार भक्ति कत्र्तव्य कर्म करते हैं। विद्वान (शिक्षित्) भी लोक संग्रह अर्थात् अधिक अनुयाई इकट्ठे करना चाहता हुआ उसी प्रकार करे (जैसे अविद्वान अर्थात् भोले भाले अशिक्षित शास्त्रानुकूल साधना तत्वदर्शी सन्त से प्राप्त करके करते हैं इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा।)
अध्याय 3 श्लोक 26 का भावार्थ है कि तत्वदर्शी सन्त द्वारा शास्त्राविधि अनुसार साधना प्राप्त अशिक्षित व्यक्ति की बुद्धि में शिक्षित (अक्षर ज्ञान युक्त) व्यक्ति भ्रम उत्पन्न न करे अपितु स्वयं भी शास्त्राअनुसार साधना करे तथा उनको भी प्रोत्साहित करे। जैसे परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी तत्वदर्शी संत की भूमिका करने के लिए काशी नगर में जुलाहा जाति में प्रकट हुए। लोग उन्हें अशिक्षित अर्थात् अविद्वान मानते थे। परन्तु वे सर्व विद्वानों के विद्वान तथा सर्व भगवानों के भगवान हैं। अन्य अशिक्षित व्यक्तियों को शास्त्राविधि अनुसार साधना प्रदान करते थे। अन्य अक्षर ज्ञानयुक्त व्यक्ति (ब्राह्मण) उन मन्दबुद्धि वाले भोले-भाले व्यक्तियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न कर देते थे कहा करते यह जुलाहा तो अशिक्षित है। यह क्या जाने शास्त्रों के गूढ़ रहस्य को तुम्हारी साधना व्यर्थ है। वे भोले-भाले अशिक्षित विचलित हो जाते थे तथा मार्ग भ्रष्ट होकर जीवन व्यर्थ कर लेते थे। गीता अध्याय 3 श्लोक 26 में यही कहा है कि वह विद्वान (शिक्षित व्यक्ति) यदि जनता को शिष्य रूप में इकट्ठा करना चाहता है तो स्वयं भी शास्त्राअनुसार साधना करे तथा उन भोले-भालों से भी करावे।(3/26)
अध्याय 3 श्लोक 27 से 29 का भावार्थ है कि प्राणी जब तक पूर्ण सन्त की शरण ग्रहण नहीं करता तब तक अपने संस्कार ही प्राप्त करता है। संस्कार का फल तीनों भगवानों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) द्वारा दिया जाता है तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा,सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) प्रकृति अर्थात् दुर्गा से उत्पन्न है। वह शिक्षित व्यक्ति तत्वज्ञान से अपरिचित होने से मूढ़ कहा जाता है फिर वह अहंकार वश अपने को कर्मों का कत्र्ता मानता है। अहंकार वश सर्व शास्त्रों को तत्वज्ञानी द्वारा अच्छी तरह समझ कर भी अपने अहंकार युक्त हठ को स्वभाव वश नहीं छोड़ता अर्थात् वास्तविक्ता को आँखों देखकर भी स्वीकार नहीं करता परन्तु तत्वदर्शी सन्त तत्वज्ञान के आधार से प्रत्येक प्रभु की शक्ति से परिचित होकर इन भगवानों व शास्त्रों विरूद्ध साधना पर आसक्त नहीं होता। वे शिक्षित परन्तु तत्वज्ञान से अपरिचित स्वयं तो तीनों प्रभुओं में अपने स्वभाव वश आसक्त रहते हैं उनको चाहिए कि वे उन पूर्णतया न समझने वाले मन्द बुद्धि अर्थात् भोले-भाले अशिक्षितों को पूर्णतया शास्त्रा समझ कर भी अहंकार वश सत्य न स्वीकार करने वाले विद्वान अर्थात् शिक्षित जन विचलित न करें। इसलिए उन अशिक्षितों को श्लोक 35 में सावधान किया है कि दूसरों की शास्त्राविरूध साधना जो गुण रहित है चाहे कितनी ही तड़क-भड़क वाली व देखने व सुनने में अच्छी हो उसे स्वीकार न करें। अपनी शास्त्रा अनुकूल साधना को मरते दम तक करता रहे। दूसरों की साधना भय उत्पन्न कर देती है जिस कारण मन्द बुद्धि व्यक्ति वास्तविक साधना को त्यागकर गुण रहित धर्म (धार्मिक क्रिया) को स्वीकार कर लेते हैं जो बहुत हानिकारक होती है।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 30 में कहा है कि अर्जुन अब ज्ञान योग द्वारा मेरे पर आश्रित होकर अर्थात् सर्व धार्मिक कर्मों को मुझमें त्यागकर निःइच्छा, ममता रहित युद्ध में होने वाले संभावित दुःख को त्यागकर युद्ध कर।
विचार करें:-- गीता अध्याय 3 के श्लोक 31-32 का सार है कि जो ऊपर लिखे मेरे मत का अनुसरण करते हैं वे बुरे कर्मों से बच जाते हैं। जो ऐसा नहीं करते वे मूर्ख-अज्ञानी हैं। वे सर्व शास्त्रा विरूद्ध ज्ञानों पर आसक्त हैं जो हानिकारक है। उनका पतन निश्चय है। ऊपर लिखे मत (सलाह) से तात्पर्य यह है कि देवी-देवताओं, प्रेतों व पित्रों की पूजा न करके केवल परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। यज्ञ व ऊँ नाम का जाप भी निष्काम भाव से अपना मानव कर्तव्य जान कर तथा पूरा गुरु बनाकर शास्त्रा अनुकूल करना चाहिए। शिक्षित व्यक्तियों को शास्त्राविधि अनुसार साधना कर रहे अशिक्षितों को भ्रमित नही करना चाहिए अपितु स्वयं भी उसी शास्त्राविधि अनुसार साधना को स्वीकार करके आत्मकल्याण कराना चाहिए।
विचार करें:-- गीता अध्याय 3 के श्लोक 33-34 में कहा है कि शिक्षित व्यक्ति जो तत्वज्ञान हीन हैं वे मूढ़ स्वभाव वश आँखों देखकर भी सत्य को स्वीकार नहीं करते तथा उन चातुर (शिक्षित) व्यक्तियों के अनुयाई भी अपने स्वभाववश सत्य को स्वीकार न करके उन चालाक गुरूओं के साथ ही चिपके रहते हैं वे भी मूढ़ हैं। समझाने से भी नहीं मानते। हठ करके भी उन्हें समझाना अति कठिन है। कबीर परमेश्वर से तत्वज्ञान प्राप्त करके सन्त गरीबदास जी महाराज ने कहा है:-
गरीब चातुर प्राणी चोर हैं, मूढ़ मुगध हैं ठोठ। सन्तों के नहीं काम के इनको दे गल जोट।।
भावार्थ:- जो व्यक्ति तत्वज्ञान को सुनकर सद्ग्रन्थों में आँखों देखकर भी अभिमानवश यथार्थ भक्ति मार्ग स्वीकार नहीं करते, वे चालाक प्राणी परमात्मा के चोर हैं। जो उनके अनुयाई हैं, वे भी सत्य को आँखों देखकर भी उन चालाक गुरूओं को नहीं त्यागते। वे मूढ़ हैं। ऐसे व्यक्ति संतों के काम के नहीं हैं। परमात्मा उनको एक-दूसरे से बाँधे रखे अर्थात् वे शुभ कर्महीन हैं। उनके भाग्य में सत्य साधना नहीं है। तत्वदर्शी संतों को चाहिए कि उनके साथ अधिक ज्ञान चर्चा न करें। कबीर जी ने कहा है कि:-
कबीर, मूर्ख के समझावतें, ज्ञान गांठी का जाय। कोयला ना उजला, चाहे सौ मन साबुन लाय।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि मूर्ख को समझाने से अपने तत्वज्ञान को न गवाऐं यानि चतुर लोग आपके तत्वज्ञान को सुनकर स्वयं वक्ता बनकर जनता को ठगेंगे। मूर्ख मानेगा नहीं। जैसे कोयला अंदर तक काला होता है। कोयले को चाहे सौ मन (400 कि.ग्रा.) साबुन लगाकर साफ करना चाहे तो भी सफेद नहीं होगा। इसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति तत्वज्ञान नहीं समझेगा।
इसी अध्याय 3 श्लोक 33-34 में यह भी कहा है कि राग द्वेष नहीं करना चाहिए। स्वयं भगवान कृष्ण जी पाण्डवों के राग में महाभारत के युद्ध के दौरान अश्वत्थामा (द्रौणाचार्य के पुत्र) के बारे में युधिष्ठिर से भी झूठ बुलवाई तथा बबरिक (जिसे श्याम जी भी कहते हैं) का सिर कटवाया कहीं बबरिक पाण्डवों को पराजित न कर दे। क्योंकि बबरिक एक बलशाली योद्धा तथा धनुषधारी था जिसने एक ही तीर से पीपल के पेड़ के सभी पत्ते छेद दिए थे और प्रतिज्ञा कर रखी थी कि जो सेना हारती दिखाई देगी, उसी के पक्ष में युद्ध करूंगा। कृष्ण जी में प्रवेश काल ने पाण्डवों को विजयी करना था।
एक समय भस्मागिरी ने भगवान शिव को वचन बद्ध करके भस्म कंडा मांग कर शिव को मारना चाहा था। पार्वती को पत्नी बनाने का दुष्विचार करके शिव के पीछे भागा तो भगवान श्री विष्णु जी ने शिव जी के राग में पार्वती का रूप बनाया तथा भस्मागिरी को गंडहथ नाच नचा कर भस्म किया। ‘‘गरीब, शिव शंकर के राग में, बहे कृष्ण मुरारी।‘‘ राग द्वेष से भगवान भी नहीं बचे क्योंकि पाण्डवों से राग तो कौरवों से द्वेष तथा शिवजी से राग तो भस्मागिरी से द्वेष स्वयं सिद्ध है। आम प्राणी (अर्जुन) कैसे राग द्वेष से बच सकता है? द्वेष बिना युद्ध हो ही नहीं सकता। इससे सिद्ध है कि गीता जी में अध्यात्म ज्ञान तो काल भगवान (ब्रह्म) ने सही दिया परंतु जीव में विकार (काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, राग-द्वेष तथा शब्द-स्पर्श, रूप, रस, गंध) भर दिए जिनसे परवश होकर भगवान काल के अवतार भी विवश हो गए जिसके कारण काल जाल से नहीं निकल कते। इसको (काल को) डर बना रहता है कि कहीं जीव तेरे जाल से निकल न जाएं। इसलिए तत्वज्ञान सुनकर पूर्ण सन्त की शरण ग्रहण करके पूर्ण परमात्मा की भक्ति करो, तब राग-द्वेष समाप्त होंगे।
गीता अध्याय 3 श्लोक 35 का भावार्थ:- गीता अध्याय 3 के श्लोक 35 में कहा है कि दूसरों की गलत साधना (गुण रहित) जो शास्त्रानुकूल नहीं है। चाहे वह कितनी ही अच्छी नजर आए या वे अज्ञानी चाहे आपको कितना ही डराये उनकी साधना भयवश होकर स्वीकार नहीं करनी चाहिए। अपनी शास्त्रानुकूल गुरु जी द्वारा दिया गया उपदेश पर दृढ़ विश्वास के साथ लगे रहना चाहिए। विचलित नहीं होना चाहिए। अपनी सत्य पूजा अंतिम श्वांस तक करनी चाहिए तथा अपनी सत्य साधना में मरना भी बेहतर है।
विचार करें:-- गीता अध्याय 3 के श्लोक 33, 34 का भावार्थ है कि सर्व प्राणी प्रकृति (माया) के वश ही हैं। स्वभाववश कर्म करते हैं। ऐसे ही ज्ञानी भी अपनी आदत वश कर्म करते हैं फिर हठ क्या करेगा?
सार: -- अज्ञानी अपनी गलत पूजा को नहीं त्यागते चाहे कितना आग्रह करें, चाहे सद्ग्रन्थों के प्रमाण भी दिखा दिए जाऐं वे नहीं मानते। इसी प्रकार ज्ञानी-विद्वान पुरुष मान वश पैसा प्राप्ति व अधिक शिष्य बनाने की इच्छा के कारण गलत त्यागकर सच्चाई का अनुसरण नहीं करते। दोनों (ज्ञानी व अज्ञानी) स्वभाव वश चल रहे हैं। इसलिए भक्ति मार्ग गलत दिशा पकड़ चुका है। इन दोनों को समझाना व्यर्थ है।
गरीब, चातूर प्राणी चोर हैं, मूढ मुग्ध हैं ठोठ। संतों के नहीं काम के, इनकूं दे गल जोट।।
भावार्थ:- संत गरीबदास जी ने बताया है कि तत्वज्ञानहीन गुरूजन शास्त्रों को ठीक से न समझकर उनके विपरित अध्यात्म ज्ञान बताते हैं तथा शास्त्रों के विरूद्ध भक्ति विधि बताते हैं। उनके अनुयाई अपने अज्ञानी गुरूजनों द्वारा बताए ज्ञान तथा साधना पर लगे हैं। तत्वदर्शी संत उन अज्ञानी गुरूओं से निवेदन करता है कि आप शास्त्रा विरूद्ध अपनी इच्छा से मनमाना आचरण कर रहे हो। शास्त्रों से प्रमाण दिखाता है। प्रमाणों को आँखों देखकर भी अज्ञानी गुरूजन सत्य को स्वीकार नहीं करते। अपना अपमान होने के भय से अपने अनुयाईयों को भी भ्रमित करते हैं कि यह संत झूठ बोल रहा है। इसकी बातों में न आना। हम जो ज्ञान तथा समाधान बता रहे हैं, यह सब शास्त्रा प्रमाणित है। तत्वदर्शी संत उनके अनुयाईयों को शास्त्रों के प्रमाण दिखाकर उनकी भक्ति विधि को गलत सिद्ध करता है तो भी वे मूढ़ अंध श्रद्धालु कहते हैं कि हमारे गुरू जी जो साधना बताते हैं, वह सत्य है। ऐसे व्यक्तियों के विषय में संत गरीबदास जी ने बताया है कि वे फर्जी संत तो चातुर हैं यानि हेराफेरी मास्टर हैं। वे अपनी दुकान चलाने के लिए आँखों देखकर भी सत्य स्वीकार नहीं करते और अपनी प्रत्यक्ष झूठी साधना को सत्य मानते हैं। वे परमात्मा नहीं चाहते। वे मान-बड़ाई तथा धन के लोभी चतुर व्यक्ति हैं तथा अनुयाई उनके ऊपर मोहित हैं। सत्य देखकर भी नहीं मानते। वे ठेठ मूढ़ हैं यानि पूर्ण रूप से मूर्ख हैं। ऐसे व्यक्ति तत्वदर्शी संतों के काम के नहीं हैं। उन दोनों गुरू-शिष्यों को समझाना व्यर्थ में समय व्यर्थ करना है। उनका गला जोट दो यानि उनको एक-दूसरे से चिपके रहने दो। गल जोट करने का भावार्थ है जैसे व्यापारी लोग काटड़ों (भैंस के नर बच्चों) को गाँव से मोल लेकर कसाईयों को बेचने के लिए जाते थे। उस समय व्यापारी लोग पशुओं को पैदल लाते-ले जाते थे क्योंकि वाहन नहीं बने थे तो पशुओं (काटड़ों व जो भैंस बांझ होती थी, उनको) को रस्से के साथ एक-दूसरे को गले से बाँध देते थे। कारण था कि इस प्रकार बाँधने से वे इधर-उधर भागकर मालिक को परेशान नहीं कर पाते थे। ऐसे गुरू तथा शिष्य काल कसाई के पास जाते हैं। ये ऐसे-ऐसे इकट्ठे रहेंगे तो तत्वदर्शी संतों को बाधा नहीं करेंगे यानि इनके साथ अधिक छेड़छाड़ करना ठीक नहीं।
विवेचन:- मेरे यानि रामपाल दास के अतिरिक्त अन्य सब अनुवादकों ने गीता अध्याय 3 श्लोक 35 का अर्थ गलत किया है जो इस प्रकार किया है:-
अच्छी प्रकार में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है। दूसरे का धर्म भय देने वाला है।
विचार करें कि यदि यह अनुवाद सही है तो गीता के अठारह अध्यायों के ज्ञान की क्या आवश्यकता थी? फिर तो जो जैसी साधना कर रहा है, करता रहे। गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 तथा 20-23 में कहा है कि तीनों गुणों यानि श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव से मिलने वाले लाभ के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है यानि जो इन देवताओं की पूजा पर दृढ़ हैं। अन्य किसी की बात नहीं सुनते। वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मेरी भक्ति भी नहीं करते। जिन देवताओं की भक्ति अज्ञानी जन करते हैं। उनकों मैंने ही कुछ शक्ति दे रखी है, परंतु उन अज्ञानियों को उस साधना का फल क्षणिक यानि शीघ्र समाप्त होने वाला है।
फिर गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में यह ज्ञान देने की क्या आवश्यकता थी कि शास्त्राविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करते हैं, उनको न तो सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है, उन उनकी गति यानि मुक्ति होती है अर्थात् व्यर्थ साधना है। गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में कहा है कि इससे तेरे लिए अर्जुन कर्तव्य अर्थात् जो आध्यात्मिक कर्म करने चाहिऐं तथा अकर्तव्य अर्थात् जो कर्म नहीं करने चाहिऐं, की व्यवस्था में शास्त्रा ही प्रमाण हैं। पाठकों से निवेदन है कि गीता अध्याय 3 श्लोक 35 का वास्तविक अर्थ पहले किया है, वह ठीक है।
अध्याय 3 श्लोक 36-43 तक का भावार्थ है कि श्लोक 36 में अर्जुन ने प्रश्न किया कि ‘‘हे भगवान! यह मनुष्य न चाहता हुआ भी परवश हुआ पाप आचरण में कैसे लग जाता है?’’ गीता ज्ञान दाता ने श्लोक नं. 37 से 43 में उत्तर दिया है कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) के प्रभाव से प्रेरित होकर मानव अज्ञान को प्राप्त हो जाता है। फिर काम (sex), क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार वश होकर पाप आचरण करता है। मन इन सब पापों को करवाने वाला इन्द्रियों का मुखिया है। इस मन रूपी शत्राु को तत्वज्ञान से मार डाल।
विशेष:- अध्याय 3 का श्लोक 36 में अर्जुन पूछता है कि न चाहते हुए भी मनुष्य पाप कर्म कर देता है। जैसे कोई बलपूर्वक (जबरदस्ती) करवा रहा हो, कृप्या इसका कारण बताईए?
विशेष विवरण:-अध्याय 3 का श्लोक 37 से 43 तक का उत्तर है कि काम (सैक्स) जीव की बुद्धि पर छा जाता है, जिस कारण से ज्ञान समाप्त हो जाता है। इसलिए बुद्धि द्वारा मन को वश कर काम (सैक्स) को मार।