Chapter 3 Verse 9

Chapter 3 Verse 9

Yagyarthat, karmanH, anyatr, lokH, ayam, karmbandhanH,
Tadartham, karm, kauntey, muktsangH, smaachar ||9||

Translation: (Yagyarthat) for the sake of yagya i.e. religious ceremonies (karmanH) instead of the scripture-based actions (anyatr) abandoning the injunctions of the scriptures, engaged in other actions only (ayam) this (lokH) in world (karmbandhanH) gets bound to actions i.e. undergoes torture in the 84 lakh births. Therefore (kauntey) Oh Arjun! You (muktsangH) becoming free from attachment (tadartham) for the sake of that scripture-based yagya only, properly (karm) those scripture-based acts of bhakti which are worthy of being done i.e. kartavyakarm/ moral duties (smaachar) along with the worldly actions, do sadhna in accordance with the scriptures i.e. according to the rules. (9)

Translation

In this world, only he gets bound to actions i.e. undergoes torture in the 84-lakh births, who, abandoning the injunctions of the scriptures, is engaged in other actions instead of the scripture-based actions done for the sake of yagya i.e. religious ceremonies. Therefore oh Arjun! Becoming free from attachment, you should properly do scripture-based acts of bhakti worthy of being done i.e. kartavyakarm[1] for the sake of that scripture-based yagya[2] while performing the worldly actions; which means, do sadhna in accordance with the scriptures i.e. according to the rules.

Important

In the above-mentioned Gita Adhyay 3 Shlok 6 to 9, it has been forbidden to do Hath (forcefully meditate) by sitting in a lonely place on a special seat closing ears-eyes, and to do sadhna according to the way of bhakti mentioned in the scriptures is said to be meritorious.

In every true (holy) scripture, the rule of bhakti described is to do naam jaap and yagya etc while performing worldly tasks.

Evidence: - It is said in holy Gita Adhyay 8 Shlok 13 that there is only one ‘Om’ word for remembering (sumiran) me, Brahm, by uttering. One who does jaap of this unto the last breath while performing actions attains my kind of supreme salvation.

Then, in Adhyay 8 Shlok 7, it is said that remember me all the time (do my sumiran) and also fight. Thus, by following my orders i.e. by doing sadhna while performing worldly actions, you will come to me. Although, has described his supreme salvation in Gita Adhyay 7 mantra 18 as very inferior i.e utterly useless. Still, the way of bhakti is this alone.

Then, in Adhyay 8 Shlok 8 to 10, it has been mentioned that whether you may do bhakti of that God i.e. Purna Brahm, whose description is given in Gita Adhyay 17 Shlok 23, Adhyay 18 Shlok 62 and Adhyay 15 Shlok 1 to 4, its rule is also the same that a devotee who by doing sadhna of Purna Parmatma after taking updesh from a Tatvdarshi saint dies while doing naam jaap and worldly actions, he goes to that Supreme Divine Purush i.e. Purna Parmatma only. The indication of a Tatvdarshi saint is given in Gita Adhyay 4 Shlok 34.

This same evidence is also given in Holy Yajurved Adhyay 40 Mantra 10 and 15.

The meaning of Yajurved Adhyay 40 Mantra 10: - The narrator of Holy Vedas, Brahm, is saying that regarding Purna Parmatma, someone says that He takes birth as an incarnation i.e. is said to be in form, and someone mentions Him as never appearing in form as an incarnation i.e. mentions Him as formless. Only a Dheeranam i.e. a Tatvdarshi saint will deliver the Tatvgyan, the true spiritual knowledge of that Purna Parmatma that, in reality, what is the body of Purna Parmatma like? How does He appear? Listen to the complete information about the Purna Parmatma from that Dheeranam i.e. Tatvdarshi saint. I, Brahm, the giver of the knowedge of Ved, also do not know.

Nevertheless, while explaining his way of bhakti, has said in Adhyay 40 mantra 15 that do my worship, jaap of ‘Om’ naam while doing actions, do my sumiran[3] with exceptional faith and considering it as human life’s main duty. By doing so, after death i.e. after leaving this body, you will attain my kind of amratv i.e. my supreme destination. Like, the immaterial body gains some power; it becomes immortal for some time. As a result of which it goes to heaven. Then it goes in the cycle of birth and death.


यज्ञार्थात्, कर्मणः, अन्यत्रा, लोकः, अयम्, कर्मबन्धनः,
तदर्थम्, कर्म, कौन्तेय, मुक्तसंगः, समाचर।।9।।

अनुवाद: (यज्ञार्थात्) यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान के निमित किये जानेवाले (कर्मणः) शास्त्रा विधि अनुसार कर्मोंसे अतिरिक्त (अन्यत्रा) शास्त्रा विधि त्याग कर दूसरे कर्मोंमें लगा हुआ ही (अयम्) इस (लोकः) संसार में (कर्मबन्धनः) कर्मोंसे बँधता है अर्थात् चैरासी लाख योनियों में यातनाऐं सहन करता है।। इसलिए (कौन्तेय) हे अर्जुन! तू (मुक्तसंगः) आसक्तिसे रहित होकर (तदर्थम्) उस शास्त्रानुकूल यज्ञके निमित ही भलीभाँति (कर्म) भक्ति के शास्त्रा विधि अनुसार करने योग्य कर्म अर्थात् कर्तव्यकर्म (समाचर) संसारिक कर्म करता हुआ शास्त्रा अनुकूल अर्थात् विधिवत् साधना कर। (9)

विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 9 तक एक स्थान पर एकान्त में विशेष आसन पर बैठ कर कान-आंखें आदि बन्द करके हठ करने की मनाही की है तथा शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना करना श्रेयकर बताया है।

प्रत्येक सद्ग्रन्थों में संसारिक कार्य करते-करते नाम जाप व यज्ञादि करने का भक्ति विद्यान बताया है।

प्रमाण:- पवित्र गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म का उच्चारण करके सुमरण करने का केवल एक मात्रा ओ3म् अक्षर है जो इसका जाप अन्तिम स्वांस तक कर्म करते-करते भी करता है वह मेरे वाली परमगति को प्राप्त होता है।

फिर अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि हर समय मेरा सुमरण भी कर तथा युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे आदेश का पालन करते हुए अर्थात् संसारिक कर्म करते-करते साधना करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा। भले ही अपनी परमगति को गीता अध्याय 7 मंत्रा 18 में अति अश्रेष्ठ अर्थात् अति व्यर्थ बताया है। फिर भी भक्ति विधि यही है।

फिर अध्याय 8 श्लोक 8 से 10 तक विवरण दिया है कि चाहे उस परमात्मा अर्थात् पूर्णब्रह्म की भक्ति करो, जिसका विवरण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में दिया है। उसका भी यही विद्यान है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की साधना तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करता हुआ तथा संसारिक कार्य करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह उस परम दिव्य पुरुष अर्थात् पूर्ण परमात्मा को ही प्राप्त होता है। तत्वदर्शी संत का संकेत गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में दिया है।

यही प्रमाण पवित्रा यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्रा 10 तथा 15 में दिया है।

यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्रा 10 का भावार्थ:- पवित्रा वेदों को बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा के विषय में कोई तो कहता है कि वह अवतार रूप में उत्पन्न होता है अर्थात् आकार में कहा जाता है, कोई उसे कभी अवतार रूप में आकार में न आने वाला अर्थात् निराकार कहता है। उस पूर्ण परमात्मा का तत्वज्ञान तो कोई धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संत ही बताऐंगे कि वास्तव में पूर्ण परमात्मा का शरीर कैसा है? वह कैसे प्रकट होता है? पूर्ण परमात्मा की पूरी जानकारी उसी धीराणाम् अर्थात् तत्वदर्शी संत से सुनों। मैं वेद ज्ञान देने वाला ब्रह्म भी नहीं जानता।

फिर भी अपनी भक्ति विधि को बताते हुए अध्याय 40 मंत्रा 15 में कहा है कि मेरी साधना ओ3म् नाम का जाप कर्म करते-करते कर, विशेष आस्था के साथ सुमरण कर तथा मनुष्य जीवन का मुख्य कत्र्तव्य जान कर सुमरण कर इससे मृत्यु उपरान्त अर्थात् शरीर छूटने पर मेरे वाला अमरत्व अर्थात् मेरी परमगति को प्राप्त हो जाएगा। जैसे सूक्ष्म शरीर में कुछ शक्ति आ जाती है कुछ समय तक अमर हो जाता है। जिस कारण स्वर्ग में चला जाता है। फिर जन्म-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।


[1] Moral duties

[2] Religious ceremony

[3] Remembrance of mantra