Chapter 9 Verse 34

Chapter 9 Verse 34

ManmnaH, bhav, madbhaktH, madhyaaji, mam, namaskuru,
Mam, ev, eshyasi, yuktva, evam, aatmaanm, matparaayanH ||34||

Translation: (ManmnaH) with steadfast mind in me (madhyaaji) my scripture-based worshipper (madbhaktH) mataanusaar i.e. a worshipper who worships according to my opinion (bhav) be (mam) me (namaskuru) bow (evam) thus (aatmaanm) from soul (matparaayanH) resorting to me, in scripture-based worship (yuktva) engaging (ev) only (mam) by me (eshyasi) will obtain benefit. (34)

Translation

With a steadfast mind in me, be my scripture-based worshipper, mataanusaar i.e. a worshipper who worships according to my opinion. Bow to me. Thus only by resorting to me from soul, engaging in scripture-based worship, you will obtain the benefit from me.

Meaning

In Gita Adhyay 4 Shlok 34, Adhyay 2 Shlok 12, Adhyay 10 Shlok 2, Adhyay 8 Shlok 5 to 10 and Adhyay 8 Shlok 18 to 20, has said that I and you have had several births. In future also, we will all keep taking birth and dying. Even sages and demi-gods do not my origin. If you will worship me, then fight as well as do my bhakti.

The readers may please think: - One who fights does not have peace. Therefore, in Gita Adhyay 15 Shlok 4, Adhyay 18 Shlok 62, 66, for attainment of supreme peace and (Shaashvat Sthaan) the eternal place, it is said to go in the refuge of some other God. One who takes birth and dies does not have peace.  If you want to become completely liberated, then go in the refuge of that God in every respect, as a result of which, you will attain supreme peace and Satyalok i.e. the supreme eternal abode. For that find a Tatvdarshi Saint; I do not know (Gita Adhyay 18 Shlok 62 and Adhyay 4 Shlok 34).

(End of Adhyay Nine)


मन्मनाः, भव, मद्भक्तः, मद्याजी, माम्, नमस्कुरु,
माम्, एव, एष्यसि, युक्त्वा, एवम्, आत्मानम्, मत्परायणः।।34।।

अनुवाद: (मन्मनाः) मेरे में स्थिर मन वाला (मद्याजी) मेरा शास्त्रानुकूल पूजक (मद्भक्तः) मतानुसार अर्थात् मेरे बताए अनुसार साधक (भव) बन (माम्) मुझे (नमस्कुरु) प्रणाम कर। (एवम्) इस प्रकार (आत्मानम्) आत्मासे (मत्परायणः) मेरी शरण होकर शास्त्रानुकूल साधनमें (युक्त्वा) संलग्न होकर (एव) ही (माम्) मुझ से(एष्यसि) लाभ प्राप्त करेगा। (34)

भावार्थ:-- गीता अध्याय 4 श्लोक 34ए अध्याय 2 श्लोक 12ए अध्याय 10 श्लोक 2 अध्याय 8 श्लोक 5 से 10 व अध्याय 8 श्लोक 18 से 20 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। आगे भी हम सब जन्मते-मरते रहेगें। मेरी उत्पत्ति को ऋषि जन व देवता भी नहीं जानते। मेरी साधना करेगा तो युद्ध भी कर तथा मेरी भक्ति भी कर।

कृप्या पाठक जन विचार करें:-- युद्ध करने वाले को शान्ति कहाँ। इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 62, 66 में परम् शान्ति के लिए तथा शाश्वत् (सदा रहने वाले) स्थान की प्राप्ति के लिए किसी अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है। जन्म-मृृत्यु वाले को शान्ति कहाँ? यदि पूर्ण मुक्त होना है तो उस परमेश्वर की शरण में सर्व भाव से जा, जिस कारण तू परम शान्ति तथा सत्यलोक अर्थात् सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। उसके लिए तत्वदर्शी संत की तलाश कर, मैं नहीं जानता(गीता अ. 18 श्लोक 62 तथा अ. 4 श्लोक 34)।

(इति अध्याय नौवाँ)