प्रश्न: पूर्व में जितने ऋषि-महर्षि हुए हैं, वे सब ब्रह्म की पूजा करते और कराते थे। ‘‘ओम्‘‘ (ऊँ) नाम को सबसे बड़ा तथा उत्तम मन्त्र जाप करने का बताते थे, क्या वे अज्ञानी थे? यदि ब्रह्म की भक्ति उत्तम नहीं है तो गीता में कोई प्रमाण बताऐं।
उत्तर: पूर्व में बताया गया है कि यथार्थ आध्यात्म ज्ञान स्वयं परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) धरती पर सशरीर प्रकट होकर ठीक-ठीक बताता है। देखें प्रमाण वेद मन्त्रों में इसी पुस्तक के पृष्ठ 101 पर। परमेश्वर द्वारा बताए ज्ञान को सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) कहा गया है। तत्वज्ञान में परमात्मा ने बताया है कि:-
गुरु बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुष छड़े मूढ़ किसाना।
गुरु बिन बेद पढ़ै जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।
जिन ऋषियों व महर्षियों को सत्गुरु नहीं मिला। उनकी यह दशा थी कि वेद पढ़ते थे परन्तु वेदों का सार नहीं समझ सके। उदाहरण के लिये श्री देवी पुराण (सचित्रा मोटा टाईप, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) के पृष्ठ 414 पर (चैथे स्कन्द में) लिखा है कि सत्ययुग के ब्राह्मण (महर्षि) वेद के पूर्ण विद्वान होते थे और श्री देवी (दुर्गा) की पूजा करते थे।
विचार करें:– श्रीमद्भगवत गीता चारों वेदों का सारांश है। आप जी गीता जी को तो जानते ही हो, पढ़ते भी होंगे। क्या गीता में कहीं नहीं लिखा है
कि ‘श्री देवी’ की पूजा करो? इसी प्रकार चारों वेदों में कहीं नहीं लिखा है कि दुर्गा (श्री देवी) की पूजा करो, तो क्या समझा वेदों को उन महर्षियों ने? क्या खाक विद्वान थे सत्ययुग के महर्षि? उन्हीं महर्षियों का मनमाना विधान है कि ऊँ (ओम्) नाम सबसे बड़ा अर्थात् उत्तम है। ब्रह्म पूजा (भक्ति) सर्वश्रेष्ठ है। प्रिय पाठको! जो ब्रह्म की पूजा ईष्ट देव मानकर करते थे, वे अज्ञानी थे। उनकी ब्रह्म साधना अनुत्तम गति देने वाली है।
गीता में प्रमाण: श्रीमद्भगवत् अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में तो बताया है कि जो तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर) की पूजा करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। यह गीता ज्ञान दाता ने कहा है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 16 से 18 तक में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने कहा है कि मेरी भक्ति चार प्रकार से करते हैं। अर्थार्थी, आर्थ, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। फिर कहा कि ज्ञानी मुझे अच्छा लगता है, ज्ञानी को मैं अच्छा लगता हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 18) इस श्लोक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ये ज्ञानी आत्मा हैं तो उदार (अच्छी) परन्तु ये सब मेरी अनुत्तम गति अर्थात् घटिया गति में आश्रित हैं। इस श्लोक (गीता अध्याय 7श्लोक 18) में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म स्वयं स्वीकार कर रहा है कि मेरी भक्ति से होने वाली गति अनुत्तम (अश्रेष्ठ = घटिया) है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में कहा है कि:-
बहुनाम्, जन्मानाम्, अन्ते, ज्ञानवान्, माम्, प्रपद्यते,
वासुदेवः, सर्वम्, इति, सः, महात्मा, सुदुर्लभः।।
अनुवाद:– गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि मेरी भक्ति बहुत-बहुत जन्मों के अन्त में कोई ज्ञानी आत्मा करता है अन्यथा अन्य देवी देवताओं व भूत, पितरों की भक्ति में जीवन नाश करते रहते हैं। गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति से होने वाले लाभ अर्थात् गति को भी गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम (घटिया) बता दिया है। इसलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में कह रहा है कि:-
यह बताने वाला महात्मा मुश्किल से मिलता है कि ‘‘वासुदेव’’ ही सब कुछ है। यही सबका सृजनहार है। यही पापनाशक, पूर्ण मोक्षदायक, यही पूजा के योग्य है। यही (वासुदेव ही) कुल का मालिक परम अक्षर ब्रह्म है। केवल इसी की भक्ति करो, अन्य की नहीं।
गीता ज्ञान दाता ने भी स्वयं कहा है कि ‘‘हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम (सत्यलोक) को प्राप्त होगा।‘‘ (यह गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में प्रमाण है) फिर गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ‘‘जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है, जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है। उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्म करते-करते पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान को समझकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आता, जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व की रचना की है, उसी की पूजा करो।