अध्याय 11 के श्लोक 1 से 4 में अर्जुन ने पूछा कि जो आपने नाना प्रकार से अपनी स्थिति बताई है, यह मैं ठीक से नहीं समझ पाया, क्योंकि मेरी बुद्धि तुच्छ है। मैं जो आपको अपना साला मानता था वह मोह भी नष्ट हो गया है, क्योंकि अर्जुन डर गया था कि यह कोई और बला है। इसीलिए अर्जुन ने कहा आपकी महिमा अनन्त है। कृप्या आप वास्तव में क्या हो? आप अपना वास्तविक अविनाशी रूप दिखाने की कृप्या करें।
अध्याय 11 के श्लोक 5 से 8 तक में भगवान (काल) कह रहा है कि वह रूप तू (अर्जुन) इन आँखों से नहीं देख सकता। इसलिए तुझे दिव्य दृष्टि देता हूँ। अब देख। यह कहकर काल ब्रह्म ने अपना वास्तविक काल रूप दिखाया तथा बताया कि देख जहाँ-2 जिसका स्थान मेरे शरीर में है।
विचार करें:- जैसे प्रत्येक टेलीविजन (टी.वी.) में कार्यक्रम देखें जा सकते हैं, ऐसे ही एक ब्रह्मण्ड का सर्व विवरण प्रत्येक मानव-देव आदि शरीरों में देखा जा सकता है।
अध्याय 11 के श्लोक 9 से 14 में वर्णन है कि संजय द्वारा विश्वरूप (काल रूप) का वर्णन:-
कई नेत्रों, कई मुखों वाला तथा शस्त्रों सहित कई हाथों वाला असीम काल (विराट) रूप अर्जुन ने देखा। हजारों सूर्य एक साथ उदय हो जाएँ ऐसे तेजोमय रूप में अर्जुन ने शरीर को देखा। यह सब देखते हुए काल देव से आश्चर्य चकित तथा हर्षित होते हुए बोला।
अध्याय 11 के श्लोक 15-30 का सारांश:-
अध्याय 11 के श्लोक 21 में अर्जुन आँखों देखा हाल कह रहा है कि वे ही देवताओं के समूह आपमें भयभीत होकर आपके मुख में प्रवेश कर रहे हैं। कुछ भयभीत हो कर हाथ जोड़े आपके गुणों का उच्चारण (कीर्तन) करते हैं, ऋषियों-सिद्धों का समुदाय कल्याण हो! ऐसा कहकर उत्तम-2 स्त्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं अर्थात् आप अपने उपासको को भी खा रहे हो। अध्याय 11 के श्लोक 15 से 30 तक में अर्जुन कह रहा है कि हे देव! आपके शरीर में सम्पूर्ण देवताओं तथा प्राणियों के समूह को तथा कमल पर ब्रह्मा को तथा सम्पूर्ण ऋषियों को देख रहा हूँ। और आपको कई भुजाओं, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त देखता हूँ। परंतु इसका कोई वार-पार नहीं देख रहा हूँ तथा आपके इस भंयकर रूप को देख रहा हूँ।
अन्य आपको हैरान होकर देख रहे हैं तथा व्याकुल हो रहे हैं। मैं (अर्जुन) भी व्याकुल हो रहा हूँ। चूंकि हे विष्णो! आपके भयंकर रूप को देखकर मैं बहुत डर गया हूँ। धीरज व शांति नहीं पा रहा हूँ तथा वे सब धृतराष्ट्र के पुत्र व राजाओं का समुदाय आपमें प्रवेश कर रहा है। कई तो बहुत वेग (स्पीड) से आपके मुख में जा रहे हैं तथा कुछ आपकी दाढ़ो (जाड़ों) द्वारा कुचले जा रहे हैं, कुछ दाँतों में लगे हुए दिखाई दे रहे हैं। और जैसे नदियाँ समुद्र में गिर रही हों ऐसे मनुष्य लोक (पृथ्वी लोक) के वीर (योद्धा) भी आपमें प्रवेश कर रहे हैं। तथा जैसे कीट-पतंग अग्नि पर गिरते हैं ऐसे सब प्राणी (देव- ऋषि-सिद्ध- आम जीव सहित) आपके मुख में प्रवेश कर रहे हैं और आप सम्पूर्ण लोकों (ब्रह्मा-लोक, विष्णु-लोक, शिव-लोक तथा सर्व चैदह लोकों समेत) को खा (ग्रास) रहे हो और बार-2 होंठ चाट रहे हो। आपके शरीर की अग्नि सम्पूर्ण जगत को जला रही है।
अध्याय 11 के श्लोक 31 में अर्जुन पूछता है कि हे उग्ररूप वाले देवश्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। कृप्या मुझे बताईये कि वास्तव में आप कौन हैं? मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ। ध्यान रहे कि श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था। इस नाते से श्री कृष्ण अर्जुन के साले थे। अर्जुन पूछ रहा है कि आप कौन हो? विचारणीय विषय यह भी है कि क्या व्यक्ति अपने साले से पूछता है कि आप कौन हो? इससे सिद्ध है कि काल ब्रह्म ने विराट रूप दिखाया था। श्री कृष्ण को कुछ समय अन्तध्र्यान कर दिया था। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि गीता का ज्ञान काल ने कहा है जो गीता अध्याय 11 श्लोक 32 में स्वयं कह रहा है कि मैं काल हूँ।
अध्याय 11 के श्लोक 32-46 का सारांश:-
अध्याय 11 के श्लोक 32 में काल भगवान कह रहा है कि मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ। इस समय लोकों को नष्ट करने के लिए आया (प्रकट हुआ) हूँ। जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं वे सब तेरे बिना भी नहीं रहंेगे अर्थात् मैं खा जाऊँगा।
अध्याय 11 के श्लोक 33, 34 में कहा है कि अतःएव तू उठ, यश प्राप्त कर, शत्रुओं को जीत कर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोग। ये सब पहले ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं। अर्जुन (सव्यसाचिन - बाँए हाथ से भी बाण चलाने का अभ्यास होने से ‘‘सव्यसाची‘‘ नाम अर्जुन का पड़ा) तू केवल निमित्त मात्र बन जा। तू वैरियों को जीतेगा। युद्ध कर।
अध्याय 11 के श्लोक 35 में संजय ने कहा कांपता हुआ अर्जुन भयभीत हो कर प्रणाम करता हुआ भगवान कृष्ण (क्योंकि अर्जुन मान रहा था यह कृष्ण है परंतु वह तो काल था) के प्रति गद्-गद् वाणी बोला अध्याय 11 श्लोक 36 में - हे अन्तर्यामी! भयभीत राक्षस दिशाओं में भाग रहे हैं। सिद्धगणों का समूह नमस्कार कर रहा है।
अध्याय 11 के श्लोक 37,38 में अर्जुन कह रहा है कि हे ब्रह्मा के भी आदिकत्र्ता महान आत्मा! आपको क्यांे न नमस्कार करें? हे जगन्निवास! आप सत्-असत् उनसे भी परे अक्षर वह आप हैं। (डरता अर्जुन काल को सर्वस्व कह रहा है) अध्याय 11 के श्लोक 39 में अर्जुन कह रहा है कि आप ही ब्रह्मा के पिता हैं (अर्थात् काल ही ब्रह्मा का पिता हैं) आपको बार-2 नमस्कार हो।
अध्याय 11 के श्लोक 40 से 44 तक में अर्जुन कह रहा है कि मेरे से भूल हो गई कि मैंने आपको सीधा नाम से हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे (साथी) अर्थात् साला इस प्रकार हठात् कहा तथा आम साथियों के सामने ऐसा कह कर अपमानित किया। मैं क्षमा चाहता हूँ। आप सबसे बड़े गुरु हैं। आपसे बड़ा कोई नहीं है। मैं आप ईश्वर को प्रणाम तथा प्रार्थना करता हूँ। आप क्षमा करो। आप हमारे सर्व अपराध सहन करने वाले हो। यह सब वचन अर्जुन विशेष भयभीत हो कर कह रहा है।
अध्याय 11 के श्लोक 45 में अर्जुन कह रहा है कि पहले न देखे हुए आपके इस विराट (काल) रूप को देख कर मैं (अर्जुन) हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है। आप उस देव रूप को मुझे दिखाईये। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न होईए।
अध्याय 11 के श्लोक 46 में अर्जुन कह रहा है कि मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए, गदा चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ। हे विश्वरूप! सहस्राबाहो (हजार भुजा वाले) उसी चतुर्भुज रूप में प्रकट होईए।
इससे यह भी सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता हजार भुजाओं वाला काल ब्रह्म है। श्री कृष्ण तो श्री विष्णु जी थे जिनकी चार भुजा हैं। चार भुजा वाला दो भुजा बना सकता है, परंतु हजार नहीं बना सकता। हजार भुजा वाला भगवान चार भुजा, दो भुजा बना सकता है।
अध्याय 11 के श्लोक 47-48 का सारांश:-
अध्याय 11 के श्लोक 47 में काल भगवान ने कहा है कि हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर यह सीमा रहित विराट (आदि काल) रूप आपको दिखाया है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था। 48 में कहा है कि हे अर्जुन! मनुष्य लोक में इस प्रकार (विश्वरूप वाला) मैं न वेदों के अध्ययन से अर्थात् वेदों में वर्णित विधि से साधना करने से, न यज्ञों से, न दान से, न क्रियाओं से और न उग्र तपों से तेरे अतिरिक्त दूसरे द्वारा देखा जा सकता हूँ। अर्थात् मैं (काल कह रहा है) किसी भी प्रकार की साधना से किसी द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता।
विचार करें:- भगवान काल (ब्रह्म) स्पष्ट करता है कि मेरी प्राप्ति असम्भव है। महाभारत में प्रमाण मिलता है कि जब भगवान कृष्ण कौरव- पाण्डवों का समझौता करवाने के लिए गए थे तो दुर्योंधन उलटा बोला था। तब श्री कृष्ण जी ने विराट रूप दिखाया था। फिर यहाँ पर कह रहा है कि अर्जुन तेरे अतिरिक्त किसी ने मेरा यह विराट रूप पहले नहीं देखा। इससे सिद्ध है कि यह रूप काल ने दिखाया था। वह महाभारत में श्री कृष्ण जी ने दिखाया था। इसलिए गीता श्री कृष्ण जी ने नहीं बोली, यह काल (ब्रह्म) ने बोली थी। दोनों विराट रूपांे में बहुत अंतर था और विचार पूर्वक सोचें तो संजय भी विराट रूप को आँखों देख कर धृतराष्ट्र को बता रहा है। फिर यह कहना कि तेरे अतिरिक्त किसी के द्वारा नहीं देखा जा सकता। यही सिद्ध करता है कि काल भगवान ने गीता का ज्ञान दिया है न कि श्री कृष्ण जी ने।
अध्याय 11 के श्लोक 49 में भगवान कह रहा है कि अर्जुन तू मूर्खों की तरह इस विकराल रूप को देख कर डर मत। भय रहित होकर उसी (चतुर्भुज रूप को) रूप को फिर देख।
अध्याय 11 के श्लोक 50 में संजय कह रहा है कि फिर भगवान ने मनुष्य (कृष्ण) रूप में हो कर डरे हुए अर्जुन को आश्वासन दिया।
अध्याय 11 के श्लोक 51 में अर्जुन ने कहा है कि हे जनार्दन! आपको पहले चतुर्भुज रूप में फिर अब मनुष्य रूप में देख कर अब स्वाभाविक स्थिति में (भय रहित) हो गया हूँ।
अध्याय 11 के श्लोक 52, 53 में काल ब्रह्म ने कहा है कि यह मेरा जो रूप (चतुर्भुज रूप) देखा इसके दर्शन भी बहुत ही दुर्लभ हैं। देवता भी इस रूप के दर्शन को सदा ही तरसते हैं। यह चतुर्भुज रूप भी न वेदों में वर्णित विधि से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से देखा जा सकता है अर्थात् इस चतुर्भुज रूप का दर्शन अति असम्भव है। क्योंकि काल भगवान ब्रह्म लोक में महाविष्णु रूप में चतुर्भुज रूप में रहता है। वहाँ पर पहुँच कर ही काल को चतुर्भुज रूप में देखा जा सकता है। ब्रह्म लोक में जिस स्थान पर काल (ब्रह्म) तीन गुप्त स्थानों पर महाब्रह्मा-महाविष्णु तथा महाशिव रूप में रहता है वहाँ पर वेदों में वर्णित विधि से नहीं जाया जा सकता। केवल ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में ही जाया जा सकता है। (अध्याय 9 के श्लोक 20, 21 में प्रमाण है) इसलिए कहा है कि मेरे इस चतुर्भुज रूप को भी देखना बहुत दुर्लभ है परंतु यह रूप केवल अनन्य भक्ति अर्थात् केवल एक इष्ट (काल) की साधना से अन्य देवी-देवताओं की तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव (तीनों गुण - रज, सत, तम) की साधना छोड़ केवल ज्योति निरंजन के साधक महा स्वर्ग (ब्रह्मलोक) में काल को चतुर्भुज रूप में ही देख सकते हैं। विराट रूप तो किसी भी साधना से नहीं देखा जा सकता जो काल भगवान का वास्तविक रूप है।
अध्याय 11 के श्लोक 54 में कहा है कि यह मेरा चतुर्भुज रूप भी (जो न वेदों से, न दान से, न तप से, न क्रियाओं से देखा जा सकता है) केवल अनन्य भक्ति से प्राप्त हो सकता है जो मुझे (मेरे महत्व को) तत्व से जानता है। भाव यह है कि अर्जुन तत्व से जान चुका था कि काल भगवान एक प्रबल शक्ति है। इसके अतिरिक्त कहीं ठिकाना नहीं है। सर्व जीवों को यही नचा रहा है। फिर भय युक्त होकर एक विशेष प्रेम वश उसी चतुर्भुज रूप तथा महात्मा (देवरूप चतुर्भुज) रूप को विशेष आस्था से (अनन्य मन से केवल एक भगवान काल में आसक्त होकर) देख रहा था। तब काल भगवान कहता है कि यह मेरा चतुर्भुज (महाविष्णु) रूप भी अनन्य भक्ति से देखा जा सकता है।
गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि जो साधक मेरी भक्ति अनन्य मन से मेरे बताए मतानुसार करता है वह मुझे इस काल रूप में तथा चतुर्भुज रूप में उस समय देख सकता है जिस समय मैं इन्हें खाता हूँ। ये मेरे में प्रवेश करते हैं। अन्यथा किसी भी क्रिया व जाप-तप-यज्ञ आदि से जो मेरे द्वारा वेदों में बताई है मेरे दर्शन नहीं कर सकता। जैसे गीता अध्याय 11 श्लोक 21 में अर्जुन आँखों देखा हाल बता रहा है कि हे भगवन्! जो ऋषिजन तथा देवता लोग व सिद्धों के समुदाय आप की स्तुति वेद मन्त्रों द्वारा कर रहे हैं आप उन सर्व को खा रहे है। वे आप के इस काल रूप को देख कर भयभीत हो रहे हैं। इसी का प्रमाण यहाँ गीता अध्याय 11 श्लोक 54 में है की मेरा साधक मेरे जाल में रह जाता है। अपनी साधना का वर्णन गीता ज्ञान दाता ने वेदों में ही वर्णन किया है। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 तथा वेदों का ज्ञान सारांश रूप में श्री मद्भगवत् गीता है। जिस के अध्याय 8 श्लोक 13 में तथा अध्याय 3 श्लोक 10 से 13 में कहा है कि मेरा एक ओं अक्षर है तथा यज्ञ है जो अनन्य मन से मुझे इष्ट मानकर साधना करता है वह मुझे ही प्राप्त होता है। इसी को अनन्य भक्ति कहा है। इससे मोक्ष नहीं है। न ही काल प्रभु के दर्शन प्राप्ति। केवल मृत्यु पश्चात् जब वह काल प्रभु प्रतिदिन एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को खाता है। उस समय वह कभी विराट रूप में दर्शन देता है। कभी चतुर्भुज रूप में महाविष्णु रूप में। उसी का विवरण इस अध्याय 11 श्लोक 54 में है। ब्रह्म का अनन्य साधक ब्रह्मलोक में इसी काल के महाविष्णु रूप में चतुर्भुज रूप में दर्शन करता है। जिसे देवता भी नहीं देख सकते।
एक टीकाकार ने अनुवाद किया है कि मेरा वही विराट रूप वेदों से, तपों से, दान से, क्रिया से देखा व प्राप्त नहीं किया जा सकता परंतु अनन्य मन से देखा जा सकता है। जो ठीक नहीं है। चूंकि वेदों में वर्णित साधना के अतिरिक्त साधना तो शास्त्रविरूद्ध है जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में मना किया है तथा विराट रूप का वर्णन तो अध्याय 11 के श्लोक 47,48 में समाप्त हो चुका है। काल भगवान कह रहा है यह मेरा विराट रूप न तो तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने देखा तथा न ही तेरे अतिरिक्त किसी के द्वारा भविष्य में देखा जा सकता है। जब अर्जुन ने काल रूप से अति भयभीत हो कर कहा है कि (गीता जी के अध्याय 11 के श्लोक 46,47 में) आप अपना चतुर्भुज रूप गदा-चक्र हाथ में लिए हुए हे विश्वरूप! हे हजार भुजा (सहस्राबाहु) वाले उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट होईए। फिर गीता जी के अध्याय 11 के श्लोक 49 में कहा है कि मेरे इस भंयकर रूप से डर मत।
फिर से मेरे उसी (विष्णु) शांत रूप को देख। यदि विकराल रूप को फिर से देखने को कहने का क्या तात्पर्य? वह तो अर्जुन देख ही रहा था। फिर गीता जी के अध्याय 11 के श्लोक 50 में कहा है कि यह कह कर वासुदेव भगवान ने वैसे ही अपने महात्मा (देव रूप चतुर्भुज रूप जैसा अर्जुन देखना चाहता था) रूप को दिखाया तथा फिर मनुष्य (कृष्ण) रूप में आकर भगवान ने कहा कि जो यह चतुर्भुज रूप मैंने तुझे दिखाया इसको भी देवता लोग दर्शन को तरसते हैं। फिर इसमें यह नहीं कहा कि यह किसी ने तेरे अतिरिक्त पहले नहीं देखा। क्योंकि त्रिलोकिय विष्णु भक्त ही जो अनन्य मन से केवल एक विष्णु का जाप करने वाले सामिप्य मुक्ति प्राप्त विष्णु लोक में विष्णु के चतुर्भुज रूप को देख सकते हैं। वरना विष्णु रूप तो आम भक्त देवता ने देख रखा है। जो विष्णु रूप अर्जुन को दिखाया तथा कहा कि जो मुझे तत्व से जानते हैं अर्थात् मेरे महास्वर्ग को महाविष्णु की महिमा को जानते हैं वे ही अनन्य मन से भक्ति करके मुझे प्राप्त कर सकते हैं। यज्ञ से, वेदों से, तपों से तथा दान से तो वह भी नहीं प्राप्त कर सकते। केवल स्वर्ग-नरक आदि में जाते हैं। {प्रमाण के लिए अध्याय 9 का श्लोक 20,21} जिस समय चतुर्भुज रूप में काल भगवान आए वह नूर श्री विष्णु जी (त्रिलोकिय जिसके श्री कृष्ण अवतार आए थे) से बहुत ज्यादा था। क्योंकि काल एक हजार कला का है, श्री विष्णु जी (कृष्ण) केवल 16 कला के हैं। एक तो 16 वाट की टयूब हो और एक हो एक हजार वाट की। दोनों टयूब ही नजर आती हैं। परंतु रोशनी में जमीन-आसमान का अंतर है। इससे सिद्ध है कि काल (ब्रह्म) साधना सिद्धि भी एक ऊँ मन्त्र को गुरु जी से लेकर अनन्य भक्ति (देवी-देवताओं, माई-मसानी, सेढ-शितला, भेरों भूत, हनुमान को भूलकर केवल एक इष्ट में पतिव्रता की तरह रह कर अव्याभिचारिणी भक्ति) से ही हो सकती है। तब वह अनन्य भक्ति युक्त साधक भगवान काल की कृप्या से ही उसके चतुर्भुज रूप के दर्शन ब्रह्मलोक में कर सकता है, जहाँ इसने सतोगुण प्रधान क्षेत्र बना कर एक और विष्णु लोक बना रखा है। कबीर परमात्मा के ज्ञान को सन्त गरीबदास जी ने बताया है कि वेदों के पढ़ने वाले जो ऊँ नाम को मुख्य रूप में जाप नहीं करते इसके अतिरिक्त वेदों का पाठ, वेदों में वर्णित यज्ञ-तप-दान आदि करते है या अन्य क्रियाएं करते हैं वे काल भगवान के चतुर्भज (महाविष्णु) रूप को भी नहीं देख सकते अर्थात् उन्हें ब्रह्मलोक भी प्राप्त नही होता। वे साधक स्वर्ग में या विष्णु लोक में बने स्वर्ग में चले जाते हैं। ब्रह्म की अनन्य भक्ति एक ओं अक्षर से होती है। इस के साथ कोई अन्य अक्षर नहीं जोड़ा जाता। जैसे हरि ओम् आदि। केवल यज्ञ आदि करने से भी ब्रह्मलोक प्राप्त नहीं होता। ऊँ मन्त्र के जाप रूपी बीज को यज्ञ रूपी खाद व जल द्वारा उगाया व पकाया जाता है। जिस से ब्रह्म की प्राप्ति अर्थात् ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। जहाँ पर ब्रह्म महाविष्णु रूप में चतुर्भुज रूप में रहता है। वह साधना तत्वदर्शी सन्त द्वारा प्राप्त करने से सफल होती है। ऊँ नाम का जाप एक ब्रह्म को ही इष्ट रूप में जानकर करने से अनन्य भक्ति कहलाती है। इसी से ब्रह्मलोक प्राप्ति होती है। परन्तु मृत्यु के पश्चात् ब्रह्म साधक तप्तशिला पर अवश्य जाता है। तत्पश्चात् कर्म अनुसार ब्रह्मलोक प्राप्त करता है। फिर महाकल्प के पश्चात् पुनः पृथ्वी पर अन्य योनियों में जन्म लेता है। पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं होता। सन्त गरीबदास जी ने कहा है:--
ऋग,यजुः,साम, अथर्व भाषै जामें नाम मूल नहीं राखै।
रामायण में प्रमाण है कि तुलसी दास जी कहते हैं कि -
कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिर सुमिर नर उतरो पारा।।
कबीर साहेब कहते हैं कि -
कबीर, कलियुग में जीवन थोड़ा है, करले बेग सम्भार। योग साधना नहीं बन सकै, केवल नाम आधार।।
इससे सिद्ध है कि अन्य साधना से नहीं केवल नाम से मुक्ति है।
कई भक्त जन व संत जन कहते हैं कि अनन्य मन से भक्ति का भाव है कि राग-द्वेष, काम-क्रोध को त्याग कर भक्ति करें। इन विकारों को मारने के लिए तो भक्ति करते हैं। यदि ये ही समाप्त हो जाएं तो आत्मा का वास्तविक निर्विकार अस्तित्व हो जाएगा जो परमात्मा के तुल्य है। इन विकारों को ठीक करने का उपाय है एक ईश्वर के एक नाम का आसरा अन्य देवी-देवताओं का नहीं। गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि -
आत्म और परमात्मा, एकै नूर जहूर। बिच में झांई कर्म की, तातें कहिए दूर।।
अध्याय 11 के श्लोक 55 में काल भगवान ने कहा है कि हे अर्जुन! जो मेरे द्वारा बताए मार्ग (मतानुसार) मत्परमः यानि मेरे से श्रेष्ठ की भक्ति साधना (कर्म) करने वाला मतावलम्बी भक्त (साधक) आसक्ति रहित है, वह मेरा आसक्ति रहित भक्त तथा सर्व प्राणियों से वैर भाव रहित है मुझको प्राप्त होता है। क्योंकि मतानुसार अर्थात् वेदों में वर्णित साधना के अनुसार (क्योंकि ब्रह्म साधना का मत (विचार) वेदों में वर्णन है या अब गीता जी में) जो साधक साधना करता है वह उत्तम साधक कहलाता है। वह भी काल को ही प्राप्त होता है अर्थात् काल (ज्योति निरंजन) के जाल में ही रहता है। अन्य साधना जो शास्त्रानुकूल नहीं है उसको करने वाले पापी तथा राक्षस स्वभाव के कहे हैं। गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, गीता जी के अध्याय 16 के श्लोक 23, 24 ।
विचार करें:- भगवान ने कहा है कि जो वैर भाव रहित भक्त है वही मुझे प्राप्त कर सकता है तथा स्वयं कह रहे हैं कि युद्ध कर अर्जुन। वैर बिना युद्ध अति असम्भव। विशेष बात है कि गीता जी के अध्याय 1 के श्लोक 30 से 39 व 46, अध्याय 2 के श्लोक 4,5 में अर्जुन वैर रहित है तथा कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा। इससे अच्छा तो भीख मांग कर गुजारा कर लूँगा। फिर प्रहलाद से प्यार तथा हिरणाकशिपु से वैर भगवान का स्वसिद्ध है।
कृप्या पाठक विचार करें कि गीता ज्ञान दाता का मत कितना सही है क्योंकि निर्विकारी होना न भगवान ब्रह्मा के वश, न भगवान विष्णु के क्योंकि भगवान विष्णु ने जैसा पौराणिक मानते हैं कि भगवान शिव की रक्षार्थ भस्मासुर को गंडहथ नाच नचा कर भस्म कर दिया। भस्मासुर से वैर तथा श्री शिव जी से राग प्रत्यक्ष है। इसी प्रकार प्रहलाद भक्त से राग तथा हिरण्यकशिपु से द्वेष प्रत्यक्ष है। भगवान भी निर्विकार नहीं हो सके। विकार रहित तथा पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति तो कबीर साहेब द्वारा बताई विधि से ही हो सकती है। इसी का वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक 28 में है कि पूर्ण ज्ञान होने पर तत्वदर्शी सन्त द्वारा बताए भक्ति मार्ग का अनुसरण करने वाला साधक वेदों में वर्णित भक्ति को ब्रह्म में त्याग कर इस से भी आगे के पद अर्थात् सत्य लोक स्थान को प्राप्त करने वाले ज्ञान के आधार से साधना करता है।
विशेष:- गीता के इस अध्याय 11 श्लोक 55 में ‘‘मत्परमः’’ शब्द है। इसका अर्थ है मेरे से दूसरा श्रेष्ठ परमात्मा। काल ने कहा है कि जो मेरे द्वारा बताए मत के अनुसार मेरे से अन्य व श्रेष्ठ (मत्परमः) परमात्मा की भक्ति मेरा भक्त करता है, वह मुझे प्राप्त होता है। कारण यह है कि वेदों में ज्ञान परम अक्षर ब्रह्म का भी है जो काल ब्रह्म से श्रेष्ठ है, परंतु भक्ति के मंत्र काल ब्रह्म के हैं। जिस कारण से साधक काल के जाल में ही रह जाता है। गीता अध्याय 12 के श्लोक 1 में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि जो आपको सर्वेसर्वा मानकर आपको भजते हैं तथा दूसरे अविनाशी परमात्मा को भजते हैं। उनमें से किसका ज्ञान और भक्ति उत्तम है? इससे भी यही सिद्ध होता है कि गीता अध्याय 11 के इस श्लोक 55 में मत्परमः = मत् परमः का अर्थ मेरे से अन्य श्रेष्ठ परमात्मा है। गीता में स्थान-स्थान पर कहा है कि यह रहस्यमय ज्ञान है। इसको तत्वदर्शी संत ही जानता है।