।। श्री मद्भगवत् गीता अध्याय 16 का सारांश।।
विशेष:- अध्याय 16 के श्लोक 1 से 3 तक उन पुण्यात्माओं के लक्षण वर्णित हैं जो पिछले जन्मों में वेदों अनुसार अर्थात् शास्त्र अनुकूल ब्रह्म साधना ओ3म् नाम से किया करते थे। जिसके कारण ब्रह्मलोक में कुछ समय सुख भोगकर जब पुनः मानव जन्म मिलता है तथा पूर्ण परमात्मा की भक्ति तत्वदर्शी संत से प्राप्त करके करते थे जो पार नहीं हो सके, जब कभी मानव जन्म प्राप्त होता है तो वे निम्न लक्षणों वाले होते हैं।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 1 से 3 तक में काल ब्रह्म ने दैवी स्वभाव (उदार आत्माओं) का वर्णन किया है कि वे निर्भय, निर्वैरी, धार्मिक अनुष्ठान करने वाले मृदुभाषी, किसी की निन्दा नहीं करते, कामी (सैक्सी), क्रोधी, लोभी, लालची, अहंकारी नहीं होते। वे किसी से भी अपना सम्मान नहीं करवाते। वे लाज (शर्म) वाले होते हैं। ये दान, स्वाध्यायः यज्ञ आदि करते हैं। ये पिछले जन्मों से भक्ति करते हुए आ रहे हैं। इसीलिए उनके स्वभाव देव पुरुषों अर्थात् संतों जैसे होते हैं।
विशेष:- इस श्लोक नं. 1 में मूल पाठ में ‘‘तप’’ शब्द का तात्पर्य कठोर तप से नहीं है। शास्त्रानुकूल साधना करने में जो कष्ट होता है, उसे तप कहा है। जैसे शास्त्र विधि अनुसार साधक को पूर्व शास्त्रविरूद्ध साधना त्यागनी होती है। जिस समाज में साधक रह रहा होता है, उस समाज के व्यक्ति उसका घोर विरोध करते हैं। उस विरोध का सामना स्वधर्म पालन में करना यहाँ ‘‘तप’’ कहा है।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 4 में कहा है कि जिन व्यक्तियों में पाखण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोरता, अज्ञान है वे राक्षस वृति (स्वभाव) के हैं जो इन राक्षसी वृति को साथ लिए हुए उत्पन्न हुए हैं अर्थात् इन आत्माओं को पिछले जन्म में संतों का संग नहीं मिला। जो शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करते रहे अर्थात् आन उपासना (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव की तथा भूत-पितर, देवी व भैरवों आदि की) करते रहे। जब कभी उन्हें मानव शरीर प्राप्त होता है तो भी साधना उसी पूर्व स्वभाववश ही करते हैं। जिसके परिणाम स्वरूप वे उच्च विचारों (मत) वाले नहीं हुए।
अध्याय 16 के श्लोक 5 में कहा है कि जो व्यक्ति संत स्वभाव वाले हैं वे भक्ति करके मुक्ति प्राप्ति के लिए जन्में हैं। यदि पूर्ण संत गुरु मिल गया तो मुक्ति है यदि पूरा गुरु (सतनाम व सारनाम देने वाला) नहीं मिला तो गलत साधना से जीवन व्यर्थ हो जाएगा, और जो राक्षसी स्वभाव के व्यक्ति हैं वे भक्ति नहीं करते, यदि भक्ति करते भी हैं तो शास्त्र विधि रहित व पाखण्ड युक्त लोकवेद अनुसार, साथ में विकार (तम्बाखु सेवन, मांस, मदिरा सेवन) भी करते रहते हैं, जो विकार नहीं करते तो भी स्वभाव वश आन-उपासना पर ही आरूढ़ रहते हैं। कोई समझाने की कोशिश करता है तो नाराज हो जाते हैं। वे अशुभ कर्मों के बन्धन में बंध जाते हैं अर्थात् चैरासी लाख जूनियों के बन्धन में जकड़े जाते हैं। अर्जुन आप (दैवी) साधु स्वभाव के साथ उत्पन्न हुए हो। इसलिए चिंता मत कर।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 6 में कहा है कि इस संसार में दो प्रकार के व्यक्तियों का समुह है। एक संत स्वभाव के दूसरे राक्षस स्वभाव के। साधु स्वभाव वालों के लक्षण तो ऊपर (1,2,3 श्लोकों में) विस्तार से बताए हैं। अब राक्षसी स्वभाव वाले व्यक्तियों के लक्षण विस्तार से सुन।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 7 में कहा है कि राक्षस स्वभाव के व्यक्ति प्रवृति व निवृति को भी नहीं जानते। उनमें न तो शुद्धि है, न आचरण ठीक है,सच्चाई भी नहीं जानते हैं।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 8 में कहा है कि वे राक्षस स्वभाव वाले कहा करते हैं कि संसार निराधार है। असत्य तथा बिना भगवान के है अपने आप (नर-मादा के संयोग से) उत्पन्न है। केवल काम (सैक्स) ही इसका कारण है।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 9 में कहा है कि राक्षस वृति के व्यक्ति मिथ्या ज्ञान का अनुसरण करके ये नष्ट आत्मा (गिरी हुई आत्मा) मंद बुद्धि हैं। वे अपकार (बुरा) करने वाले क्रूरकर्मी (भयंकर कर्म करने वाले) जगत के नाश के लिए ही उत्पन्न होते हैं।
गीता अध्याय 16 का श्लोक 10 - राक्षस वृति के व्यक्ति पाखण्ड, मान, मद्य युक्त, मुश्किल से पूर्ण होने वाली इच्छाओं का आश्रय लेकर मोह (अज्ञान) वश मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों को धारण किए हुए घूमा करते हैं।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 11 में कहा है कि उन राक्षस स्वभाव के व्यक्तियों का मरने के बाद भी यह स्वभाव समाप्त नहीं होता। असंख्य चिंताओं के आधारित, विषय भोगों में तत्पर रहने वाले इसी को सुख मान कर निश्चय करने वाले होते हैं।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 12 में कहा है कि वे राक्षस स्वभाव वाले चाहे वे संत कहलाते हैं, चाहे उनके उपासक या स्वयं ही शास्त्र विधि रहित साधना करने वाले व्यक्ति आशाओं की सैकड़ों फंासियों से बन्धे हुए काम-क्रोध के आश्रित हो कर विषय भोगों के लिए अन्याय पूर्वक धन इक्कट्ठा करने की कोशिश करते हैं तथा भक्ति भी शास्त्र विधि रहित ही करते हैं।
उदाहरणः-- एक समय यह दास (संत रामपाल दास) गुजराज प्रान्त के शहर अहमदाबाद में सत्संग कर रहा था। वहाँ एक व्यक्ति ने सत्संग सुना उस के पश्चात् मुझ दास से दीक्षा प्राप्त की उसने बताया कि यहाँ एक सुप्रसिद्ध सन्त जी का आश्रम है। उस सन्त का शिष्य मेरा रिश्तेदार बना। उस रिश्तेदार को सन्त जी ने कई प्रकार की दवाईयाँ बनाने को कहा। उसने गुरू जी के आदेश से अच्छे वैद्यों की देख-रेख में दवाईयाँ तैयार की । एक प्रकार की दवाई के पैकेट पर 9 रूपये खर्च आए। सन्त जी ने कहा आप मुझे 5 रूपये प्रति पैकेट दो। मैं इन दवाईयों को परमार्थ में मुफ्त वितरित करूंगा। उस रिश्तेदार ने गुरूदेव की आज्ञा जान कर स्वीकार कर लिया। उस सन्त जी ने उस दवाई का पैकेट 15 रूपये में भक्तों को बेचना शुरू कर दिया। उस दवाई बेचने का कार्य अपने एक निजी सेवक को दिया। जब मेरे रिश्तेदार को पता चला तो सन्त जी के समक्ष विरोध किया तथा कहा तेरे इस अन्याय का भाण्डा फोड़ करूंगा। मेरा तो लाखों का नुक्सान हो गया। आप मालामाल हो रहे हो। उस सन्त ने उसे धमका दिया तथा कहा कि कहीं जुबान खोल दी तो खैर नहीं है। उस के पीछे गुन्डें लगा दिए। हरिद्वार में उस रिश्तेदार पर जानलेवा हमला किया। श्वांस थे, बच गया।
गीता अध्याय 16 के श्लोक 13 का भाव है कि राक्षस स्वभाव वाले कहा करते हैं कि मैंने आज ज्यादा धन प्राप्त किया है। मैं ये कर दूंगा, वह प्राप्त कर लूंगा, मेरे पास इतना धन है, फिर भविष्य में इतना और हो जाएगा।
अध्याय 16 के श्लोक 14 का अर्थ है कि वे राक्षस वृति के व्यक्ति कहा करते हैं कि वे शत्रु मेरे द्वारा मार दिए गए हैं। उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूंगा। मैं भगवान हूँ - मैं सिद्ध, बलवान व सुखी हूँ।
गीता अध्याय 16 का श्लोक 15, 16:- वे राक्षस स्वभाव के कहा करते हैं कि मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? यज्ञ करूंगा, दान दूंगा, मस्ती करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित अनेक प्रकार से चित वाले मोह जाल में फंसे विषयों में विशेष आसक्त (राक्षस लोग) घोर गंदे नरक में गिरते हैं।
गीता अध्याय 16 श्लोक 17 से 20 तक का भावार्थ है कि जो शास्त्र विधि रहित मनमानी पूजा {तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिवजी तथा अन्य निम्न देवों की पूजा करना, पितर पूजना (श्राद्ध निकालना) भूत पूजना (पिण्ड भरवाना, तेरहवीं-सतरहवीं करना), फूल (अस्थियाँ) उठा कर क्रिया कर्म करवाने ले जाना आदि शास्त्र विधि रहित पूजा है, प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 22 से 25 तक में है} करने वाले पापियों, घमण्डियों, एक दूसरे की निंदा करने वालों को जो मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने वालों क्रुरकर्मी नीच व्यक्तियों को मैं (ब्रह्म) बार-बार असुर योनियों में डालता हूँ। वे मूर्ख मुझे न प्राप्त होकर अर्थात् मेरे महास्वर्ग में (जो ब्रह्मलोक में बना है) न जाकर क्षणिक सुख स्वर्गादि में भोग कर अति नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरक में गिरते हैं। फिर इसी से सम्बन्धित गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में है कि जो व्यक्ति शास्त्र विधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण (पूजा) करते हैं वह न तो सुख प्राप्त करता है, न कोई कार्य सिद्ध होता है तथा न ही परमगति को प्राप्त होता है। इसलिए अर्जुन जो भक्ति करने तथा न करने योग्य पूजा विधि है, उनके लिए तो शास्त्र ही प्रमाण हैं। अन्य किसी व्यक्ति विशेष या संत,ऋषि विशेष के द्वारा दिए भक्ति मार्ग को स्वीकार नहीं करना चाहिए, जो शास्त्र विरुद्ध हो।
अध्याय 16 के श्लोक 21, 22 का भाव है कि काम,क्रोध, लोभ जीव को नरक के द्वार में डालने वाले हैं। जो इनसे रहित है केवल वही परमगति (पूर्णमुक्ति) को प्राप्त कर सकते हैं अन्यथा नहीं।
कबीर साहेब भी प्रमाण देते हैं -
कबीर, कामी क्रोधी लालची, इन से भक्ति न होय।
भक्ति करै कोई सूरमा, जाति वर्ण कुल खोय।।
अध्याय 16 के श्लोक 23, 24 में कहा है कि जो व्यक्ति शास्त्र विधि को छोड़कर अपनी मन मर्जी से {रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिवजी तथा अन्य देवी-देवों की पूजा, मूर्ती पूजा, पितर पूजा, भूत पूजा, श्राद्ध निकालना, पिण्ड भरवाना, धाम पूजा, गोवर्धन की परिक्रमा करना, तीर्थों के चक्कर लगाना, तप करना, पीपल-जाँटी-तुलसी की पूजा, बिना गुरु के नाम जाप, यज्ञ, दान करना, गुड़गांवा वाली देवी, बेरी वाली, कलकते वाली, सींक पाथरी वाली माता की पूजा, समाध की पूजा, गुगा पीर, जोहड़ वाला बाबा, तिथि पूजा (किसी भी प्रकार का व्रत करना), बाबा श्यामजी की पूजा, हनुमान आदि की पूजा शास्त्र विरूद्ध कहलाती हैं।} पूजा करते हैं, वे न तो सुखी हो सकते, उनको न सिद्धि यानि आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है और न ही उनको मुक्ति प्राप्त होती। इसलिए अर्जुन शास्त्र विधि से करने योग्य कर्म कर जो तेरे लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं कि गलत साधना लाभ के स्थान पर हानिकारक होती है।
नोट:- कृपा देखें सीधा तथा उल्टा रोपा गया भक्ति रूपी पौधे का चित्र जिससे शीघ्र संशय समाप्त हो जाएगा। कबीर जी ने कहा है कि:-
कबीर एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
माली सींचे मूल कूँ, फलै फूलै अघाय।।