Etat’, me, sanshyam’, Krishna, chhettum’, arhasi, asheshatH,
TvadanyaH, sanshyasya, asya, chhetta, na, hi, uppadhyate ||39||
Translation: (Krishna) Oh Shri Krishna! (me) my (etat’) this (sanshyam’) doubt (asheshatH) completely (chhettum’) dispelling, only you (arhasi) are worthy (hi) because (tvadanyaH) anyone other than you (asya) this (sanshyasya) doubt (chhetta) who can dispel (na, uppadhyate) it is not possible to find. (39)
Oh Shri Krishna! Only you are worthy of completely dispelling this doubt of mine because it is not possible to find anyone else other than you who can dispel this doubt.
The meaning of Shlok 40 to 44 is that after experiencing the results of all the previous virtuous and evil deeds in heaven-hell, according to the previous nature of bhakti one develops yearning for bhakti, and then because of the previous nature only becomes deviated from the path i.e. because of not finding a Complete Saint never gets liberated.
एतत्, मे, संशयम्, कृष्ण, छेत्तुम्, अर्हसि, अशेषतः,
त्वदन्यः, संशयस्य, अस्य, छेत्ता, न, हि, उपपद्यते।।39।।
अनुवाद: (कृृष्ण) हे श्रीकृृष्ण! (मे) मेरे (एतत्) इस (संशयम्) संशयको (अशेषतः) सम्पूर्णरूपसे (छेत्तुम्) छेदन करनेके लिये आपही (अर्हसि) योग्य हैं (हि) क्योंकि (त्वदन्यः) आपके सिवा दूसरा (अस्य) इस (संशयस्य) संशयका (छेत्ता) छेदन करनेवाला (न,उपपद्यते) मिलना सम्भव नहीं है। (39)
भावार्थ:- श्लोक 40 से 44 का भावार्थ है कि पहले वाले सर्व शुभ व अशुभ कर्मों का भोग स्वर्ग-नरक में भोग कर पिछले भक्ति स्वभाव के अनुसार तो भक्ति की तड़फ बन जाती है तथा पिछले स्वभाव से ही फिर पथ भ्रष्ट हो जाता है अर्थात् पूर्ण संत न मिलने के कारण कभी मुक्त नहीं होता।