अध्याय 8 के श्लोक 1 में अर्जुन ने गीता ज्ञान दाता से पूछा कि जो आपने गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में तत् ब्रह्म कहा है, वह तत्ब्रह्म कौन है?
इसका उत्तर अध्याय 8 के श्लोक 3 में दिया है कि वह परम अक्षर ब्रह्म है अर्थात् पूर्णब्रह्म है।
विशेष:- अध्यात्म में तीन पुरूष (प्रभु) विशेष हैं।
1. क्षर पुरुष (ब्रह्म, ईश)
2. अक्षर पुरुष (परब्रह्म)
3. परम अक्षर पुरुष - यह पूर्ण ब्रह्म है। परम अक्षर ब्रह्म भी इसी को कहते हैं।
प्रमाण गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 16,17 में। जैसे क्षर पुरुष (नाशवान भगवान) तथा अक्षर पुरुष (अविनाशी भगवान) और वास्तव में अविनाशी (पूर्ण अविनाशी) तो उपरोक्त दोनों से उत्तम पुरूष तो अन्य ही है। जिसको पूर्ण अविनाशी परमात्मा कहा जाता है। वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) है। वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करता है। अध्याय 8 के श्लोक 4 में कहा है कि इस देहधारियों से श्रेष्ठ अर्थात् मानव शरीर में नाशवान भाव वाले प्राणियों का स्वामी अर्थात् अधिभूत और पूर्ण परमात्मा परम अक्षर ब्रह्म ही अधिदेव और अधियज्ञ है अर्थात् सर्व यज्ञों में प्रतिष्ठित है। इसी प्रकार मैं भी इन प्राणियों में हूँ। जैसे गीता अध्याय 15 श्लोक 15 में कहा है कि मैं सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ।
भावार्थ:- अध्याय 15 के उपरोक्त श्लोक का भावार्थ है कि काल ब्रह्म केवल अपने इक्कीस ब्रह्माण्डों के प्राणियों के हृदय में स्थित है तथा परम अक्षर ब्रह्म काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्माण्डों तथा अपने सर्व ब्रह्माण्डों के प्राणियों के हृदय में स्थित है क्योंकि परम अक्षर ब्रह्म ही सर्वव्यापक है यानि वासुदेव है।
प्रमाण:- गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कहा है कि वह पूर्ण ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति माया से अति परे कहा जाता है वह तत्वज्ञान द्वारा जानने योग्य है और सर्व प्राणियों के हृदय में विशेष रूप से स्थित है। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में है। कहा है कि ‘‘शरीर रूपी यन्त्रा में आरूढ़ हुए प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया से भ्रमण कराता हुआ सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। फिर श्रद्धालुओं को भ्रमित करने के लिए अध्याय 9 का श्लोक 4-5 तथा अध्याय 7 के श्लोक 12 में कहा है कि ब्रह्म (काल) कह रहा है कि मैं प्राणियों में नहीं हूँ।
गीता अध्याय 8 श्लोक 6 में कहा है कि यह नियम है कि जो अन्त समय में जिस प्रभु में भाव करता है वह साधक उसी को प्राप्त होता है। अध्याय 8 के श्लोक 5 और 7 में काल भगवान कह रहा है जो अंत समय में मेरा ध्यान करता है वह मेरे (काल) को प्राप्त होता है। अंत समय में जो जिसका सुमरण करता है उसी को प्राप्त होता है। इसलिए मेरा (काल का) सुमरण कर और युद्ध भी कर। इससे मेरे को ही प्राप्त होगा।
अध्याय 8 के श्लोक 8 से 10 में अपने से अन्य तत् ब्रह्म यानि उस परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने को कहा जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में है। कहा है कि हे अर्जुन! जो साधक पूर्ण मुक्ति चाहता है तो किसी और में चित्त न लगा कर केवल एक परम दिव्य पुरुष (पूर्ण परमात्मा-सतपुरुष) का सुमरण करता है। वह उसी को प्राप्त होता है। जो सनातन (आदि पुरुष) नियन्ता (सबको संभालने वाला) सूक्ष्म से अति सूक्ष्म सबका धारण पोषण करने वाला अचिन्त रूप (शांत पूर्ण ब्रह्म) सूर्य के समान प्रकाश रूप (स्वप्रकाशित) अज्ञान से अति परे, पूर्ण प्रभु सतपुरुष (कविम्) कविर्देव का स्मरण करता है, वह भक्ति युक्त अंत समय में भक्ति के बल (सच्चे नाम मंत्र की कमाई) से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी तरह स्थापित करके निश्चल मन से सुमरण करता हुआ उस परम दिव्य पुरुष (पूर्णब्रह्म-सतपुरुष) को ही प्राप्त होता है।(8ध्8-10) इन तीनों श्लोकों मंे पूर्ण ब्रह्म परमात्मा (सतपुरुष) के बारे में ज्ञान दिया है। संकेत भी किया है कि उसका नाम (कविम्) कविर्देव है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 11-12 का सारांश:- उपरोक्त श्लोकों 8 से 10 में जिस दिव्य रूप परम पुरूष अर्थात् पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने वाला अंतिम समय तक उसी के चिन्तन में शरीर त्याग कर जाता है। वह उसी को प्राप्त होता है। उस पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि के विषय में गीता ज्ञान दाता कह रहा है श्लोक 11-12 में।
अध्याय 8 श्लोक 11 में कहा है कि वेद के जानने वाले विद्वान अर्थात् तत्वदर्शी सन्त जिस परमात्मा को अविनाशी कहते हैं तथा जिस भक्ति विधि द्वारा उस अविनाशी परमात्मा के परम पद चाहने वाले ब्रह्मचर्य अर्थात् सयंम करते हैं। (ब्रह्मचर्य का अर्थ यहाँ संयम है जैसे अहार-विचार-विलास विकारों में सयंम रखना ब्रह्मचर्य कहा जाता है) उस भक्ति विधि (पद) को तेरे से संक्षेप में कहूँगा।
अध्याय 8 श्लोक 12 में बताया है कि पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए विधि यह है ‘‘साधक मन को सर्व इन्द्रियों से हटाकर श्वांस के ऊपर स्थापित करके हृदय तथा मस्तिक में परमेश्वर की योगधारणा अर्थात् भक्ति में स्थित होता।
विशेष:-- पूर्ण परमात्मा की भक्ति साधना सत्यनाम द्वारा करने का संकेत है। जैसे सत्यनाम में दो मन्त्रा होते हैं। एक ओं (ऊँ) दूसरा तत् (जो सांकेतिक है केवल शिष्य को ही बताया जाता है।) ऊँ (ओं) मन्त्र ब्रह्म का जाप है ब्रह्म का सहंस्र कमल चक्र मस्तिक के पीछे है तथा तत् मन्त्रा परब्रह्म का जाप है। इस जाप को सार्थक करने के लिए हृदय में विशेष रूप से (जैसे सूर्य घड़े के जल में रहता है) रह रहे पूर्ण परमात्मा का ध्यान करना होता है। इसलिए श्वांस के साथ मन्त्रा के जाप पर मन, सुरति व निरति एकाग्र करके श्वांस-उश्वांस द्वारा-सुमरण अर्थात् अजपा जाप किया जाता है। जब श्वांस शरीर से बाहर जाता है तो नाम के साथ ब्रह्म के संहस्र कमल की ओर ध्यान जाता है। जब हृदय की ओर श्वांस जाता है तो नाम के साथ पूर्ण परमात्मा व परब्रह्म का ध्यान किया जाता है यह विधि उस दिव्य परम पुरूष अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को प्राप्त करने की है।
विचार करें:-- जिस समय मन, सुरति व निरति तथा श्वांस नाम के सुमरन में लीन हो जाता है तब अपने आप शरीर के सर्व द्वार निष्क्रिय हो जाते हैं। हठयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उपरोक्त साधना को चलते-2 शारिरीक कार्य करते-2 खाते, पीते, जागते तथा सोते समय भी कर सकते हैं। सोते समय करने से अभिप्राय है कि जिस समय साधक का सुमरण का अभ्यास परिपक्व हो जाता है उस समय सोते समय रात्रि में भी स्वपन में सुमरण स्वतः चलता रहता है।
गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में भी इसी का संकेत है।
विवेचन:-- गीता के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने अपने अनुवाद में लिखा है कि सर्व इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थित करके प्राण को (श्वांस को) मस्तक में स्थापित करके परमात्मा की योग धारण में लीन होवें।
विचार करें:-- मन द्वारा ही साधना व ध्यान किया जाता है। यदि मन हृदय में स्थित है तो श्वांस मस्तक में रूक नहीं सकता। क्योंकि मन ही श्वांस को रोक सकता है। मन एक समय में दो स्थानों पर कार्य नहीं कर सकता। श्वांस मन के सहयोग बिना चल तो सकता है परन्तु रूक नहीं सकता। इसलिए अन्य अनुवाद कर्ताओं का टीका न्याय संगत नहीं है। जो मुझ दास (रामपाल दास) द्वारा किया है वह उचित है।
गीता ज्ञान दाता प्रभु ने अपनी साधना के विषय में अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है जिस का सम्बन्ध गीता अध्याय 8 श्लोक 11-12 से है। जिनमें कहा है कि जो साधक उपरोक्त श्लोक 11 व 12 में बताए पूर्ण मोक्ष मार्ग के तीन मन्त्रा का जाप बताया है जिसमें मुझ ब्रह्म का केवल एक ओं (ऊँ) अक्षर है। इस प्रकार विधिवत् स्मरण करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है परमगति अर्थात् ¬ के मंत्र से होने वाले मोक्ष को प्राप्त होता है।
इन श्लोकों में कहा है कि ऊँ मन्त्र का जाप करने वाला भक्त वे भी अनन्य मन से अर्थात् एक ही इष्ट अर्थात् ब्रह्म मंे आस्था रखने वाला, अन्य देवी-देवताओं, माई-मसानी, हनुमान, गणेश, ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि में भी नहीं ध्यान रहे अर्थात् तीन गुणों से भी परे मुझ (ब्रह्म) को निरन्तर सुमरण करता है उसको मैं सुलभ हूँ अर्थात् मेरा लाभ आसानी से प्राप्त कर सकता है। ‘‘ओम्’’ (ऊँ) का जाप ब्रह्म का है और इसके स्मरण से ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्मलोक में गए प्राणी भी पुनः जन्म-मरण के चक्र में रहते हैं।
{काल को प्राप्त यानि दर्शन नहीं कर सकते। क्यांेकि गीता जी के अध्याय 11 के श्लोक 47 और 48 में स्पष्ट कहा है कि मैं किसी प्रकार की वेदों में वर्णित साधना से भी प्राप्य नहीं हूँ। हाँ, काल (ब्रह्म) का लाभ स्वर्ग-नरक-राजा और चैरासी लाख योनियों में चक्र लगाना ही है। इसलिए इस अपनी साधना से होने वाली गति यानि मुक्ति को अध्याय 7 के श्लोक 18 में अनुत्तम (अश्रेष्ठ) गतिम (मुक्ति) स्थिति स्वयं भगवान ने कहा है।}
अध्याय 8 के श्लोक 15 में काल (ज्योति निरंजन) ने अपनी साधना से होने वाले तथा पूर्ण परमात्मा की साधना से होने वाले परिणामों की जानकारी देते हुए कहा है कि मुझे प्राप्त साधक का सुख तो क्षण भंगुर हैं अर्थात् उनका जन्म-मरण बना रहेगा। परम सिद्धि को (पूर्णब्रह्म को) प्राप्त महात्मा दुःखोंके घर रूप जन्म-मरण (पुर्नजन्म) को प्राप्त नहीं होते अर्थात् वे पूर्ण मुक्त हो जाते हैं।
अध्याय 8 के श्लोक 15 का अनुवाद:-गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि (माम उपेत्य) मुझे प्राप्त होने वाले का (पुनर्जन्म) पुनर्जन्म यानि जन्म-मरण बना रहेगा जो (दुःखालयम्) दुःखों का घर है। यहाँ का जीवन (अशाश्वतम्) क्षंण-भंगुर है। जो महात्मा परम सिद्धि को प्राप्त है, वे पुनर्जन्म को (न आप्नुवन्ति) प्राप्त नहीं होते।
गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! (माम्) मुझे (उपेत्य) प्राप्त होकर (तू) तो (पुनर्जन्म) पुनर्जन्म होता है। मेरे साधक (न विद्यते) नहीं जानते कि (आब्रह्म लोक भुवनात्) ब्रह्मलोक तक सर्व लोक (पुनरावर्तिनः) पुनरावर्ती में हैं। पुनरावर्ती का भावार्थ है कि ब्रह्मलोक तक गए साधकों का पुनर्जन्म होता है। वे बार-बार स्वर्ग-नरक व अन्य शरीरों को प्राप्त होते हैं।(8/16)
गीता अध्याय 8 श्लोक 17:- इस श्लोक में अक्षर पुरूष यानि परब्रह्म के एक दिन-रात्रि की जानकारी है। उसको समझने के लिए पढ़ें:-
अध्याय 8 के श्लोक 16 में स्पष्ट है कि हे अर्जुन! ब्रह्म लोक से लेकर सबलोक बारम्बार उत्पत्ति व नाश वाले हैं। जो यह नहीं जानते वे मुझे प्राप्त होकर भी जन्म-मृत्यु को ही प्राप्त होते है। पूर्ण मुक्त नहीं होते। अन्य अनुवाद कर्ताओं ने लिखा है कि मुझे प्राप्त करने का पुर्नजन्म नहीं होता। विचार करे यदि यह अनुवाद ठीक माना जाए तो गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5-9, अध्याय 10 श्लोक 2 का अर्थ-निरर्थक हो जाता है। जिनमें गीता ज्ञान दाता कह रहा है कि अर्जुन तेरे तथा मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। फिर अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि पूर्ण मोक्ष के लिए पूर्ण परमात्मा की भक्ति कर।
विशेष:-- इसमें ब्रह्म (काल) कह रहा है कि ब्रह्म लोक तक सर्व लोक नाशवान हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा इनके लोकों के प्राणी भी नहीं रहेंगे। फिर उनके उपासक कहाँ रहेंगे? देवी-देवता भी नहीं रहेंगे। फिर पूजारी कहाँ रहेंगे? अर्थात् कोई प्राणी मुक्त नहीं। न ब्रह्मा लोक में पहुँचे हुए, न विष्णु लोक में पहुँचे हुए, न शिव व ब्रह्म लोक में पहुँचे हुए। फिर मुझे प्राप्त (अर्थात् काल ब्रह्म को प्राप्त) का भी पुर्नजन्म है। क्योंकि ब्रह्म लोक भी नष्ट होवेगा। इसलिए ब्रह्म तक के कोई भी साधक मुक्त नहीं। इति सिद्धं।
प्रलय का अर्थ है ‘विनाश‘। यह दो प्रकार की होती है - आंशिक प्रलय तथा महाप्रलय।
आंशिक प्रलय: यह दो प्रकार की होती है। एक तो चैथे युग (कलियुग) के अंत में पृथ्वी पर एक निःकलंक नामक दसवाँ अवतार आता है, जिसे कल्कि भी कहा है। वह उस समय (कलियुग) के सर्व भक्तिहीन मानव शरीर धारी प्राणियों को अपनी तलवार से मार कर समाप्त करेगा। उस समय मानव की उम्र 20 वर्ष की होगी तथा 5 वर्ष खण्ड (स्मेे) होगी अर्थात् 15 वर्ष में सब बालक-जवान-वृद्ध होकर मर जाया करेंगे। पाँच वर्षीय लड़की बच्चों को जन्म दिया करेगी। मानव कद लगभग डेढ़ या अढ़ाई फुट का होगा। उस समय इतने भूकंप आया करेंगे कि पृथ्वी पर चार फुट ऊँचें भवन भी नहीं बना पाया करेंगे। सर्व प्राणी धरती में बिल खोद कर रहा करेंगे। पृथ्वी उपजाऊँ नहीं रहेगी। तीन हाथ (लगभग साढे चार फुट) नीचे तक जमीन का उपजाऊ तत्त्व समाप्त हो जाएगा। कोई फलदार वृक्ष नहीं होगा तथा पीपल के पेड़ को पत्ते नहीं लगेंगे। सर्व मनुष्य (स्त्राी व पुरुष)मांसाहारी होंगे। आपसी व्यवहार बहुत घटिया हेागा। रीछों की अस्वारी किया करेंगे। रीछ उस समय का अच्छा वाहन होगा। पर्यावरण दूषित होने से वर्षा होनी बंद हो जाऐंगी। जैसे ओस पड़ती है ऐसे वर्षा हुआ करेगी। गंगा-जमना आदि नदियाँ भी सूख जाएगी। यह कलियुग का अंत होगा। उस समय प्रलय (पृथ्वी पर पानी ही पानी होगा) होगी। एक दम इतनी वर्षा होगी की सारी पृथ्वी पर सैकड़ों फुट पानी हो जाएगा। अति उच्चे स्थानों पर कुछ मानव शेष रहेंगे। यह पानी सैंकड़ों वर्षों में सूखेगा। फिर सारी पृथ्वी पर जंगल उग जाएगा। पृथ्वी फिर से उपजाऊ हो जाएगी। जंगल (वृक्षों) की अधिकता से पर्यावरण फिर शुद्ध हो जाएगा। कुछ व्यक्ति जो भक्ति युक्त होंगे ऊँचे स्थानों पर बचे रह जाएंगे। उनके संतान होगी। वह बहुत ऊँचे कद की होगीं। चूंकि वायुमण्डल में वातावरण की शुद्धता होने से शरीर अधिक स्वस्थ हो जायेगा। मात-पिता छोटे कद के होंगे और बच्चे उँचे कद (शरीर)के होगें। कुछ समय पश्चात् माता-पिता और बच्चों का युवा अवस्था में कद समान हो जाएगा। उस समय वातावरण पूर्ण रूप से शुद्ध होगा। इस प्रकार यह सतयुग का प्रारम्भ होगा। यह पृथ्वी पर आंशिक प्रलय ज्योति निरंजन (काल) द्वारा की जाती है।
दूसरी आंशिक प्रलय एक हजार चतुर्युग पश्चात् होती है। तब श्री ब्रह्मा जी का एक दिन समाप्त होता है। इतने ही चतुर्युग तक रात्रि होती है। एक रात्रि तक प्रलय रहती है। {वास्तव में श्री ब्रह्मा जी का एक दिन 1008 चतुर्युग होता है, एक ब्रह्मा जी के दिन में चैदह इन्द्रों का शासन काल पूरा होता है। एक इन्द्र का शासन काल बहतर चैकड़ी युग का होता है। एक चैकड़ी (चतुर्युगी) में चार युग होते हैं:- 1. सतयुग जो 1728000 वर्षों का होता है। 2.त्रोता युग जो 1296000 वर्षों का होता है। 3. द्वापर युग जो 864000 वर्षों का होता है। 4. कलयुग जो 432000 वर्षों का होता है। इसी को सीधा एक हजार चतुर्युग कहते हैं।}
जब ब्रह्मा का दिन समाप्त होता है तो पृथ्वी, पाताल व स्वर्ग (इन्द्र) लोक के सर्व प्राणी नाश को प्राप्त होते हैं। प्रलय में विनाश हुए प्राणी ब्रह्म अर्थात् काल जो ब्रह्म लोक में रहता है तथा व्यक्त रूप से किसी को दर्शन नहीं देता जिसे अव्यक्त मान लिया गया है उस अव्यक्त (ब्रह्म) के लोक में अचेत करके गुप्त डाल दिए जाते हैं। फिर एक हजार चतुर्युग (वास्तव में 1008 चतुर्युग की होती है) की ब्रह्मा की रात्रि समाप्त होने पर फिर इन तीनों लोकों (पाताल-पृथ्वी-स्वर्ग लोक) में उत्पत्ति कर्म प्रारम्भ हो जाता है। उस समय ब्रह्मा, विष्णु, शिव लोक के प्राणी और ब्रह्मलोक (महास्वर्ग) के प्राणी बचे रहते हैं। यह दूसरी प्रकार की आंशिक प्रलय हुई।
प्रथम महाप्रलय:- यह काल (ज्योति निरंजन) महाकल्प के अंत में करता है जिस समय ब्रह्मा जी की मृत्यु होती है। {ब्रह्मा की आयु = ब्रह्मा की रात्रि एक हजार चतुर्युग की होती है तथा इतना ही दिन होता है। तीस दिन-रात्रि का एक महिना, 12 महिनों का एक वर्ष, सौ वर्ष का एक ब्रह्मा का जीवन। यह एक महाकल्प कहलाता है।}
दूसरी महा प्रलय:-- सात ब्रह्मा जी की मृत्यु के बाद एक विष्णु जी की मृत्यु होती है, सात विष्णु जी की मृत्यु के उपरान्त एक शिव की मृत्यु होती है। इसे दिव्य महाकल्प कहते हैं उसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव सहित इनके लोकों के प्राणी तथा स्वर्ग लोक, पाताल लोक, मृत्यु लोक आदि में अन्य रचना तथा उनके प्राणी नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल ब्रह्मलोक बचता है जिसमें यह काल भगवान (ज्योति निरंजन) तथा दुर्गा तीन रूपों महाब्रह्मा-महासावित्री, महाविष्णु-महालक्ष्मी और महाशंकर-महादेवी (पार्वती) के रूप, में तीन लोक बना कर रहता है। इसी ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बना है, उसमें चैथी मुक्ति प्राप्त प्राणी रहते हैं। {मार्कण्डेय, रूमी ऋषि जैसी आत्मा जो चैथी मुक्ति प्राप्त हैं जिन्हें ब्रह्म लीन कहा जाता है। वे यहाँ के तीनों लोकों के साधकांे की दिव्य दृष्टि की क्षमता (रेंज) से बाहर होते हैं। स्वर्ग, मृत्यु व पाताल लोकों के ऋषि उन्हें देख नहीं पाते। इसलिए ब्रह्म लीन मान लेते हैं। परन्तु वे ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में चले जाते हैं।}
फिर दिव्य महाकल्प के आरम्भ में काल (ज्योति निरंजन) भगवान ब्रह्म लोक से नीचे की सृष्टि फिर से रचता है। काल भगवान अपनी प्रकृति (माया-आदि भवानी) महासावित्री, महालक्ष्मी व महादेवी (गौरी)के साथ रति कर्म से अपने तीन पुत्रों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) को उत्पन्न करता है। यह काल भगवान उन्हें अपनी शक्ति से अचेत अवस्था में कर देता है। फिर तीनों को भिन्न-2 स्थानों पर जैसे ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, विष्णु जी को समुद्र में शेष नाग की शैय्या पर, शिव जी को कैलाश पर्वत पर रखता है। तीनों को बारी-बारी सचेत कर देता है। उन्हें प्रकृति (दुर्गा) के माध्यम से सागर मंथन का आदेश होता है। तब यह महामाया (मूल प्रकृति/शेराँवाली) अपने तीन रूप बना कर सागर में छुपा देती है। तीन लड़कियों (जवान देवियों) को प्रकट करती है। तीनों बच्चे (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) इन्हीं तीनों देवियों से विवाह करते हैं। अपने तीनों पुत्रों को तीन विभाग - उत्पत्ति का कार्य ब्रह्मा जी को व स्थिति (पालन-पोषण) का कार्य विष्णु जी को तथा संहार (मारने) का कार्य शिव जी को देता है जिससे काल (ब्रह्म) की सृष्टि फिर से शुरु हो जाती है। जिसका वर्णन पवित्र पुराणों में भी है जैसे शिव महापुराण, ब्रह्म महापुराण, विष्णु महापुराण, महाभारत, सुख सागर, देवी भागवद् महापुराण में विस्तृत वर्णन किया गया है और गीता जी के चैदहवें अध्याय के श्लोक 3 से 5 में संक्षिप्त रूप से कहा गया है।
तीसरी महाप्रलय:- एक ब्रह्मण्ड में 70000 वार त्रिलोकिय शिव (काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु हो जाती है तब एक ब्रह्मण्ड की प्रलय होती है तथा ब्रह्मलोक में तीनों स्थानों पर रहने वाला काल (महाशिव) अपना महाशिव वाला शरीर भी त्याग देता है। इस प्रकार यह एक ब्रह्मण्ड की प्रलय अर्थात् तीसरी महाप्रलय हुई तथा उस समय एक ब्रह्मलोकिय शिव (काल) की मृत्यु हुई तथा 70000 (सतर हजार) त्रिलोकिय शिव (काल के पुत्र) की मृत्यु हुई अर्थात् एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्म लोक सहित सर्व लोकों के प्राणी विनाश में आते हैं। इस समय को परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का एक युग कहते हैं। इस प्रकार गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का भावार्थ समझना चाहिए।
‘‘इस प्रकार तीन दिव्य महा प्रलय होती हैं’’
जब सौ (100) ब्रह्मलोकिय शिव (काल-ब्रह्म) की मृत्यु हो जाती है तब चारों महाब्रह्मण्डों में बने 20 ब्रह्मण्डों के प्राणियों का विनाश हो जाता है।
तब चारों महाब्रह्मण्डों के शुभ कर्मी प्राणियों (हंसात्माओं) को इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बने नकली सत्यलोक आदि लोकों में रख देता है तथा उसी लोक में निर्मित अन्य चार गुप्त स्थानों पर अन्य प्राणियों को अचेत करके डाल देता है तथा तब उसी नकली सत्यलोक से प्राणियों को खाकर अपनी भूख मिटाता है तथा जो प्रतिदिन खाए प्राणियों को उसी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बने चार गुप्त मुकामों में अचेत करके डालता रहता है तथा वहाँ पर भी ज्योति निरंजन अपने तीन रूप (महाब्रह्मा, महाविष्णु तथा महाशिव) धारण कर लेता है तथा वहाँ पर बने शिव रूप में अपनी जन्म-मृत्यु की लीला करता रहता है, जिससे समय निश्चित रखता है तथा सौ बार मृत्यु को प्राप्त होता है, जिस कारण परब्रह्म के सौ युग का समय इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में पूरा हो जाता है। तत् पश्चात् चारों महाब्रह्मण्डों के अन्दर सृष्टि रचना का कार्य प्रारम्भ करता है। {जिस एक सृष्टि में सौ ब्रह्मलोकिय शिव (काल) की आयु अर्थात् परब्रह्म के सौ युग तक सृष्टि रहती है तथा इतनी ही समय प्रलय रहती है अर्थात् परब्रह्म के दो सौ युग (क्योंकि परब्रह्म के एक युग में एक ब्रह्मलोकिय शिव अर्थात् काल की मृत्यु होती है) में एक दिव्य महाप्रलय जो काल द्वारा की जाती है का क्रम पूरा होता है} यह काल अर्थात् ब्रह्म प्रथम अव्यक्त कहलाता है। (गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में)। दूसरा अव्यक्त परब्रह्म तथा इससे भी परे दूसरा सनातन अव्यक्त जो पूर्ण ब्रह्म है, गीता अध्याय 8 श्लोक 20 का भाव समझें।
इस उपरोक्त महाप्रलय के पाँच बार हो जाने के पश्चात् द्वितीय दिव्य महाप्रलय होती है। दूसरी दिव्य महाप्रलय परब्रह्म (अविगत पुरुष/अक्षर पुरुष) करता है। उसमें काल अर्थात् ब्रह्म (क्षर पुरूष) सहित सर्व 21 ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है। जिसमें तीनों लोक (स्वर्गलोक-मृत्युलोक-पाताल लोक), ब्रह्मा, विष्णु, शिव व काल (ज्योति निरंजन-ओंकार निरंजन) तथा इनके लोकों (ब्रह्म लोक) अर्थात् सर्व अन्य 21 ब्रह्मण्डों के प्राणी नष्ट हो जाते हैं।
विशेष:- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात विष्णु की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव की मृत्यु होती है। 70000 (सतर हजार) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के बाद एक ब्रह्मलोकिय शिव अर्थात् काल (ब्रह्म) की मृत्यु परब्रह्म के एक युग के बाद होती है। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का एक दिन तथा इतनी ही रात्रि होती है। अक्षर पुरूष की रात्रि का समय शुरू होने पर प्रकृति (दुर्गा) सहित काल (ज्योति निरंजन) अर्थात् ब्रह्म तथा इसके इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणी नष्ट हो जाते हैं। तब परब्रह्म (दूसरे अव्यक्त) का एक हजार युग का दिन समाप्त होता है। इतनी ही रात्रि व्यतीत होने के उपरान्त ब्रह्म को फिर पूर्ण ब्रह्म प्रकट करता है। गीता अ. 8 श्लोक 17 का भाव ऐसे समझें। परन्तु ब्रह्मण्डों व महाब्रह्मण्डों व इनमें बने लोकों की सीमा (गोलाकार दिवार समझो) समाप्त नहीं होती। फिर इतने ही समय के बाद यह काल तथा माया (प्रकृति देवी) को पूर्ण ब्रह्म (सत्यपुरूष) अपने द्वारा पूर्व निर्धारित सृष्टि कर्म के आधार पर पुनः उत्पन्न करता है तथा सर्व प्राणी जो काल के कैदी (बन्दी) हैं, को उनके कर्माधार पर शरीरों में सृष्टि कर्म नियम से रचता है तथा लगता है कि परब्रह्म रच रहा है {यहाँ पर गीता अ. 15 का श्लोक 17 याद रखना चाहिए जिसमें कहा है कि उत्तम प्रभु तो कोई और ही है जो वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करता है तथा गीता अ. 18 के श्लोक 61 में कहा है कि अन्तर्यामी परमेश्वर सर्व प्राणियों को यन्त्रा (मशीन) के सदृश कर्माधार पर घुमाता है तथा प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है।
गीता के पाठकों को फिर भ्रम होगा कि गीता अ. 15 के श्लोक 15 में काल (ब्रह्म) कहता है कि मैं सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा सर्व ज्ञान अपोहन व वेदों को प्रदान करने वाला हूँ।
हृदय कमल में काल भगवान महापार्वती (दुर्गा) सहित महाशिव रूप में रहता है तथा पूर्ण परमात्मा भी जीवात्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जैसे वायु रहती है गंध के साथ। दोनों का अभेद सम्बन्ध है परन्तु कुछ गुणों का अन्तर है। गीता अ. 2 के श्लोक 17 से 21 में भी विस्तृत विवरण है। इस प्रकार पूर्ण ब्रह्म भी प्रत्येक प्राणी के हृदय में जीवात्मा के साथ रहता है जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी उसकी ऊष्णता व प्रकाश का प्रभाव प्रत्येक प्राणी से अभेद है तथा जीवात्मा का स्थान भी हृदय ही है।
विशेष:- एक महाब्रह्माण्ड का विनाश परब्रह्म के 100 वर्षों के उपरान्त होता है। इतने ही वर्षों तक एक महाब्रह्मण्ड में प्रलय रहती है।
काल अर्थात् ब्रह्म (ज्योति निरंजन) को तो ऐसा जानों जैसे गर्मियों के मौसम में राजस्थान-हरियाणा आदि क्षेत्रों में वायु का एक स्तम्भ जैसा (मिट्टी युक्त वायु) आसमान में बहुत ऊँचे तक दिखाई देता है तथा चक्र लगाता हुआ चलता है। जो अस्थाई होता है। परन्तु गंध तो वायु के साथ अभेद रूप में है। इसी प्रकार जीवात्मा तथा परमात्मा का सूक्ष्म सम्बन्ध समझे। ऐसे ही सर्व प्रलय तथा महाप्रलय के क्रम को पूर्ण परमात्मा (सत्यपुरूष, कविर्देव) से ही होना निश्चित समझे। एक हजार युग जो परब्रह्म की रात्रि है उसके समाप्त होने पर काल (ज्योति निरंजन) सृष्टि फिर से सत्यपुरूष कविर्देव की शब्द शक्ति से बनाए समय के विद्यान अनुसार प्रारम्भ होती है। अक्षर पुरुष(परब्रह्म) पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) के आदेश से काल (ज्योति निरंजन) व माया (प्रकृति अर्थात् दुर्गा) को सर्व प्राणियों सहित काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड में भेज देता है तथा पूर्ण ब्रह्म के बनाए विद्यान अनुसार सर्व ब्रह्मण्डों में अन्य रचना प्रभु कबीर जी की कृपा से हो जाती है। माया (प्रकृति) तथा काल (ज्योति निरंजन) के सूक्ष्म शरीर पर नूरी शरीर भी पूर्ण परमात्मा ही रचता है तथा शेष उत्पत्ति ब्रह्म(काल) अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) के संयोग से करता है। शेष स्थान निरंजन पाँच तत्त्व के आधार से रचता है। फिर काल (ज्योति निरंजन अर्थात् ब्रह्म) की सृष्टि प्रारम्भ होती है। इस प्रकार यह परब्रह्म दूसरा अव्यक्त कहलाता है।}
जैसा कि पूर्वोक्त विवरण में पढ़ा कि सत्तर हजार काल (ब्रह्म) के शिव रूपी पात्रों की मृत्यु के पश्चात् एक ब्रह्म (महाशिव) की मृत्यु होती है वह समय परब्रह्म का एक युग होता है। इसी के विषय में गीता अध्याय 2 श्लोक 12 अध्याय 4 श्लोक 5 तथा 9 में अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि मेरी भी जन्म मृत्यु होती है। बहुत से जन्म हो चुके हैं। जिनको देवता लोग (ब्रह्मा,विष्णु तथा शिव सहित) व महर्षि जन भी नहीं जानते क्योंकि वे सर्व मुझ से ही उत्पन्न हुए हैं। गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में कहा है कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। परब्रह्म के एक युग में काल भगवान सदा शिव वाला शरीर त्यागता है तथा पुनः अन्य ब्रह्मण्ड में अन्य तीन रूपों में विराजमान हो जाता है। यह लीला स्वयं करता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है इतनी ही रात्रि होती है। तीस दिन-रात का एक महिना, बारह महिनों का एक वर्ष तथा सौ वर्ष की परब्रह्म (द्वितीय अव्यक्त) की आयु होती है। उस समय परब्रह्म (अक्षर पुरूष) की मृत्यु होती है। यह तीसरी दिव्य महाप्रलय कहलाती है।
तीसरी दिव्य महा प्रलय में सर्व ब्रह्मण्ड तथा अण्ड जिसमें ब्रह्म (काल) के इक्कीस ब्रह्मण्ड तथा परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड व अन्य असंख्यों ब्रह्मण्ड नाश में आवेंगे। धूंधूकार का शंख बजेगा। सर्व अण्ड व ब्रह्मण्ड नाश में आवेंगे परंतु वह तीसरी दिव्य महा प्रलय बहुत समय प्रयान्त होवेगी। वह तीसरी (दिव्य) महा प्रलय सतपुरुष का पुत्र अचिंत अपने पिता पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) की आज्ञा से सृष्टि कर्म नियम से जो पूर्णब्रह्म ने निर्धारित किया हुआ है करेगा और फिर सृष्टि रचना होगी। परंतु सतलोक में गए हंस दोबारा जन्म-मरण में नहीं आऐंगे। इस प्रकार न तो अक्षर पुरुष (परब्रह्म) अमर है, न काल निरंजन (ब्रह्म) अमर है, न ब्रह्मा (रजगुण)-विष्णु (सतगुण)-शिव (तमगुण) अमर हैं। फिर इनके पूजारी (उपासक) कैसे पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। इसलिए पूर्णब्रह्म की साधना करनी चाहिए जिसकी उपासना से जीव सतलोक (अमरलोक) में चला जाता है। फिर वह कभी नहीं मरता, पूर्ण मुक्त हो जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म (कविर्देव) तीसरा सनातन अव्यक्त है। जो गीता अ. 8 के श्लोक 20,21 में वर्णन है।
अमर करुं सतलोक पठाऊं, तातैं बन्दी छोड़ कहांउ
उसी पूर्ण परमात्मा का प्रमाण गीता जी के अध्याय 2 के श्लोक 17 में, अध्याय 3 के श्लोक 14,15 में, अध्याय 7 के श्लोक 13 और 19 व 29 में, अध्याय 8 के श्लोक 3, 4, 8, 9, 10, 20, 21, 22 में, अध्याय 13 श्लोक 12 से 17 तथा 22 से 24, 27 से 28, 30-31 व 34 तथा अध्याय 4 श्लोक 31-32, अध्याय 5 श्लोक 14, 15, 16, 19, 20, 24-26 में, अध्याय 6 श्लोक 7 तथा 19-20, 25 से 27 में तथा अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62 तथा 66 में भी विशेष रूप से प्रमाण दिया गया है कि उस पूर्ण परमात्मा की शरण में जा कर जीव फिर कभी जन्म मरण में नहीं आता है।
{विशेष:- काल का जाल समझने के लिए यह विवरण ध्यान रखें कि त्रिलोक में एक शिव जी है। जो इस काल का पुत्र है जो 7 त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु तथा 49 त्रिलोकिय ब्रह्मा जी की मृत्यु के उपरान्त मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसे ही काल भगवान एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्मलोक में महाशिव रूप में भी रहता है। परमेश्वर द्वारा बनाए समय के विद्यान अनुसार सृष्टि क्रम का समय बनाए रखने के लिए यह ब्रह्मलोक वाला महाशिव (काल) भी मृत्यु को प्राप्त होता है। जब त्रिलोकिय 70000 (सतर हजार) ब्रह्म काल के पुत्र शिव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं तब एक ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्म/क्षर पुरुष) पूर्ण परमात्मा द्वारा बनाए समय के विधान अनुसार परवश हुआ मरता तथा जन्मता है। यह ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्म/काल) की मृत्यु का समय परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का एक युग होता है। इसीलिए गीता जी के अ. 2 के श्लोक 12, गीता अ. 4 श्लोक 5, गीता अ. 10 श्लोक 2 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। मैं जानता हूँ तू नहीं जानता। मेरे जन्म अलौकिक (अद्भुत) होते हैं।}
अद्भुत उदाहरण:- आदरणीय गरीबदास साहेब जी सन् 1717 (संवत् 1774) में श्री बलराम जी के घर पर माता रानी जी के गर्भ से जन्म लेकर 61 वर्ष तक शरीर में गांव छुड़ानी जिला झज्जर में रहे तथा सन् 1778 (विक्रमी संवत् 1835) में शरीर त्याग गए। आज भी उनकी स्मृति में एक यादगार बनी है जहाँ पर शरीर को जमीन में सादर दबाया गया था। छः महीने के उपरान्त वैसा ही शरीर धारण करके आदरणीय गरीबदास साहेब जी 35 वर्ष तक अपने पूर्व शरीर के शिष्य श्री भक्त भूमड़ सैनी जी के पास शहर सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में रह कर शरीर त्याग गए। वहाँ भी आज उनकी स्मृति में यादगार बनी है। स्थान है:- चिलकाना रोड़ से कलसिया रोड़ निकलता है, कलसिया रोड़ पर आधा किलोमीटर चल कर बाएँ तरफ यह अद्वितीय पवित्र यादगार विद्यमान है तथा उस पर एक शिलालेख भी लिखा है, जो प्रत्यक्ष साक्षी है। उसी के साथ में बाबा लालदास जी का बाड़ा भी बना है।
अध्याय 8 का श्लोक 17
सहस्त्रायुगपर्यन्तम्, अहः,यत्,ब्रह्मणः, विदुः,रात्रिम्,
युगसहस्त्रान्ताम्, ते, अहोरात्रविदः, जनाः।।17।।
अनुवाद: (ब्रह्मणः) परब्रह्म का (यत्) जो (अहः) एक दिन है उसको (सहस्त्रायुगपर्यन्तम्) एक हजार युग की अवधि वाला और (रात्रिम्) रात्रि को भी (युगसहस्त्रान्ताम्) एक हजार युग तक की अवधि वाली (विदुः) तत्व से जानते हैं (ते) वे (जनाः) तत्वदर्शी संत (अहोरात्रविदः) दिन-रात्रि के तत्व को जानने वाले हैं।(17)
केवल हिन्दी अनुवाद: परब्रह्म का जो एक दिन है उसको एक हजार युग की अवधिवाला और रात्रिको भी एक हजार युग तक की अवधि वाली तत्वसे जानते हैं। वे तत्वदर्शी संत दिन-रात्रि के तत्वको जानने वाले हैं।(17)
नोट:- गीता अध्याय 8 श्लोक 17 के अनुवाद में गीता जी के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युग का लिखा है जो उचित नहीं है। क्योंकि मूल पाठ में सहंस्र युग लिखा है न की चतुर्युग। तथा ब्रह्मणः लिखा है न कि ब्रह्मा। इस श्लोक 17 में परब्रह्म (अक्षर पुरूष) के विषय में कहा है न कि ब्रह्मा के विषय में अज्ञानियों ने तत्वज्ञान के अभाव से अर्थों का अनर्थ किया है।
विशेषः- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा (काल के रजगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात त्रिलोकिय विष्णु (काल के सतगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव (ब्रह्म-काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु होती है। ऐसे 70000 (सतर हजार अर्थात् 0.7 लाख) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के उपरान्त एक ब्रह्मलोकिय महा शिव (सदाशिव अर्थात् काल) की मृत्यु होती है। एक ब्रह्मलोकिय महाशिव की आयु जितना एक युग परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का हुआ। ऐसे एक हजार युग अर्थात् एक हजार ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्मलोक में स्वयं काल ही महाशिव रूप में रहता है) की मृत्यु के बाद काल के इक्कीस ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है। इसलिए यहाँ पर परब्रह्म के एक दिन जो एक हजार युग का होता है तथा इतनी ही रात्रि होती है। लिखा है।
(1) रजगुण ब्रह्मा की आयुः- ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युग का है तथा इतनी ही रात्रि है। एक चतुर्युग में 43ए20ए000 मनुष्यों वाले वर्ष होते हैं) एक महिना तीस दिन रात का है, एक वर्ष बारह महिनों का है तथा सौ वर्ष की ब्रह्मा जी की आयु है। जो सात करोड़ बीस लाख चतुर्युग की है।
(2) सतगुण विष्णु की आयुः- श्री ब्रह्मा जी की आयु से सात गुणा अधिक श्री विष्णु जी की आयु है अर्थात् पचास करोड़ चालीस लाख चतुर्युग की श्री विष्णु जी की आयु है।
(3) तमगुण शिव की आयुः- श्री विष्णु जी की आयु से श्री शिव जी की आयु सात गुणा अधिक है अर्थात् तीन अरब बावन करोड़ अस्सी लाख चतुर्युग की श्री शिव की आयु है।
(4) काल ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष की आयुः- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा (काल के रजगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात त्रिलोकिय विष्णु (काल के सतगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव (ब्रह्म/काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु होती है। ऐसे 70000 (सतर हजार अर्थात् 0.7 लाख) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के उपरान्त एक ब्रह्मलोकिय महा शिव (सदाशिव अर्थात् काल) की मृत्यु होती है। एक ब्रह्मलोकिय महाशिव की आयु जितना एक युग परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का हुआ। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म का एक दिन होता है। परब्रह्म के एक दिन के समापन के पश्चात् काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है तथा काल व प्रकृति देवी(दुर्गा) की मृत्यु होती है। परब्रह्म की रात्रि (जो एक हजार युग की होती है) के समाप्त होने पर दिन के प्रारम्भ में काल व दुर्गा का पुनर्जन्म होता है फिर ये एक ब्रह्मण्ड में पहले की भांति सृष्टि प्रारम्भ करते हैं। इस प्रकार परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का एक दिन एक हजार युग का होता है तथा इतनी ही रात्रि है।
अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की आयु:- परब्रह्म का एक युग ब्रह्मलोकीय शिव अर्थात् महाशिव (काल ब्रह्म) की आयु के समान होता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का तथा इतनी ही रात्रि होती है। इस प्रकार परब्रह्म का एक दिन-रात दो हजार युग का हुआ। एक महिना 30 दिन का एक वर्ष 12 महिनों का तथा परब्रह्म की आयु सौ वर्ष की है। इस से सिद्ध है कि परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष भी नाश्वान है। इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17 तथा अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य पूर्ण परमात्मा के विषय में कहा है जो वास्तव में अविनाशी है।
अध्याय 8 के श्लोक 18-19 में वर्णन है कि सब प्राणी दिन के आरम्भ में अव्यक्त अर्थात् अदृश परब्रह्म से उत्पन्न होते हैं तथा रात्रि के समय उसी परब्रह्म अव्यक्त (अदृश) में ही लीन हो जाते हैं।
अध्याय 8 के श्लोक 20 में स्पष्ट है कि उस अव्यक्त (अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म) से परे दूसरा जो सनातन (आदि/सदा का अविनाशी) अव्यक्त अर्थात् अदृश पूर्णब्रह्म है वह सब भूतों (प्राणियों) के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।
(1) ब्रह्म इसे क्षर पुरूष भी कहते हैं। यह प्रथम अव्यक्त है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता प्रभु अपने विषय में कह रहा है कि यह मूर्ख प्राणी समुदाय मुझ अव्यक्त को व्यक्त अर्थात् श्री कृष्ण रूप में प्रकट हुआ मान रहा है। मैं अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ। इसलिए किसी समक्ष प्रत्यक्ष नहीं होता।
(2) परब्रह्म इसे अक्षर पुरूष भी कहते हैं। यह दूसरा अव्यक्त है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 18-19 में परब्रह्म का वर्णन है कि सर्व प्राणी दिन के आरम्भ में अव्यक्त से प्रकट होते हैं तथा रात्रि के आरम्भ में उसी अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।
(3) पूर्ण ब्रह्म इसे परम अक्षर पुरूष भी कहते हैं। यह तीसरा अव्यक्त है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि श्लोक 18-19 में कहे अव्यक्त से भी परे दूसरा सनातन अव्यक्त भाव है। वह परम दिव्य पुरूष सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह तीसरा अव्यक्त हुआ।
यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में लिखा है ‘‘क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष ये दो प्रभु इस लोक में जाने जाते हैं। परन्तु वास्तव में अविनाशी सर्वश्रेष्ठ परमात्मा तो इन दोनों से अन्य (दूसरा) है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है अविनाशी परमेश्वर कहा जाता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में कहा है कि इस संसार रूपी वृक्ष की मूल तो परम दिव्य पुरूष हैं नीचे को तीनों गुण रूपी (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव रूपी) शाखाऐं हैं। तत्व ज्ञानी सन्त द्वारा ही सर्व स्थिति बताई जाती है उस तत्वज्ञान द्वार समझ कर उस पूर्ण परमात्मा की खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् पुनः संसार में नहीं आते। उसी की पूजा करो। मैं भी उसी की शरण हूँ। इस अध्याय 15 श्लोक 1 में संसार की मूल पूर्ण परमात्मा कहा है। जड़ों से ही वृक्ष को आहार प्राप्त होता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा तीसरा अव्यक्त सर्व लोकों का पालन कर्ता है। उपरोक्त विवरण से तीन प्रभु सिद्ध हुए।
विशेष:- पवित्र गीता अध्याय 8 श्लोक 21 का भावार्थ है कि काल (ज्योति निरंजन) सतलोक से निष्कासित है। इसलिए कह रहा है कि मेरा भी परम धाम वही सत्यलोक स्थान है अर्थात् मैं (ब्रह्म-काल) भी उसी अमर धाम से आया हुआ हूँ। जैसे कोई व्यक्ति गाँव वाली सर्व सम्पति बेच कर किसी शहर में रह रहा हो। कभी उसी गाँव का व्यक्ति मिले तो चलती बात पर वह शहर वाला व्यक्ति कहता है कि मैं भी उसी गाँव का रहने वाला हूँ अर्थात् मेरा भी वही गाँव है। वास्तव में उस व्यक्ति का उस गाँव की सम्पति में भी अधिकार नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म अर्थात् गीता बोलने वाला काल भगवान कह रहा है कि मेरा भी परम धाम वही सत्यलोक है।
अध्याय 8 के श्लोक 21 में वर्णन है कि अविनाशी अदृश इस प्रकार कहा है कि उसको परम गति (पूर्ण मुक्ति) कहते हैं जिसको प्राप्त होकर फिर जन्म-मरण में नहीं आते अर्थात् वह पूर्णब्रह्म (सतपुरुष परमात्मा) अदृश है। उस परमगति को प्राप्त अर्थात् जन्म-मरण से रहित पूर्ण मुक्त होते हैं वह सतलोक मेरे लोक से श्रेष्ठ है तथा मेरा (काल ब्रह्म का) परम धाम है। चूंकि काल (ब्रह्म-ज्योति-निरंजन) भी वहीं (सतलोक) से आया है। इसलिए कहता है कि मेरा भी यह परम धाम है अर्थात् वास्तविक ठिकाना भी वही सतलोक है।
अध्याय 8 के श्लोक 22 में परम अक्षर ब्रह्म का वर्णन है। कहा है कि हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्व प्राणी आते हैं जिस परमात्मा से यह समस्त जगत् परिपूर्ण है। वह परम पुरुष (पूर्ण परमात्मा-सतपुरुष) तो अनन्य {किसी और देवी-देवताओं या हनुमान माई मसानी आदि की भक्ति न कर के एक उसी उपास्य इष्ट पूर्णब्रह्म में अटूट श्रद्धा रखते हुए नाम जाप साधना करने वाले को अनन्य भक्त कहते हैं} भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है। कहने का अभिप्राय है कि पूर्ण परमात्मा की उपासना का लाभ एक परमेश्वर में आस्था करके शास्त्रानुकूल साधना से प्राप्त होता है।
अध्याय 8 के श्लोक 23 में कहा है कि जिस मूहूत्र्त (समय) में शरीर त्यागने वाले योगी (भक्त) पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते तथा जिसमें मरने वाले पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं उसको कहता हूँ।
अध्याय 8 के श्लोक 24 से 26 में वर्णन है कि अग्नि तत्व के गुण प्रकाश से दिन बनता है जिसे शुक्ल पक्ष (प्रकाश के कारण) दिन कहा है। यह छः महीने का है। इसी प्रकार दूसरा कृष्ण पक्ष है वह भी छः महीने का है। जो शुक्ल पक्ष में मरता है वह भक्त (योगी) पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। वह कुछ समय तक काल लोक (ब्रह्म लोक) में चला जाता है। फिर काफी समय के उपरांत जब प्रलय होती है। तब प्राणी रूप में आ जाते हैं। दूसरे जो भक्त कृष्ण पक्ष (छः महीने का) में मरते हैं (शरीर छोड़ते हैं) वे स्वर्ग में कुछ समय अपनी पुण्य कमाई को समाप्त करके जल्दी वापिस आ जाते हैं। परंतु हैं दोनों ही मार्ग अश्रेष्ठ।
अध्याय 8 के श्लोक 27,28 में कहा है कि जो पूर्ण ज्ञानी है वे इन दोनों ही मार्गों (जो वेदों में वर्णित विधि अनुसार साधना) को मुझ सनातन काल में त्याग कर उस आदि नाम (सतनाम) का आश्रय लेकर {जो पुरातन (कभी का) मार्ग है} प्रथम बार ही परम स्थान (सतलोक) में चले जाते हैं अर्थात् जो साधक तत्वदर्शी संत से तीन मंत्र का उपदेश (जिसमें एक मंत्र ओ3म तथा तत्-सत् सांकेतिक) प्राप्त करके काल के सर्व भक्ति के धार्मिक कर्मों अर्थात् ओ3म नाम के जाप तथा पाँचों यज्ञों की कमाई को काल को ही त्याग कर सत्यलोक चला जाता है।
विशेष:- गीता अध्याय 8 श्लोक 27.28 का भावार्थ है कि जो दो प्रभुओं (ब्रह्म तथा पूर्ण ब्रह्म) के विषय में पूर्वोक्त श्लोक 1 से 26 में ज्ञान कहा है। उन दोनों प्रभुओं से होने वाले मोक्ष लाभ से परिचित होकर बुद्धिमान व्यक्ति मोहित नहीं होता अर्थात् काल उपासना करके धोखा नहीं खाता। इसलिए कहा है कि उस पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने का मन बना।
तत्वज्ञान को समझ कर उपरोक्त ज्ञान के रहस्य को जानकर साधक पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का ही प्रयत्न करता है तथा वेदों में वर्णित साधना से होने वाले लाभ पर ही आश्रित नहीं रहता वह चारों वेदों (ऋग्वेद, सामवेद, यर्जुवेद तथा अथर्ववेद) से आगे का लाभ (जो स्वसम वेद में वर्णित है) प्राप्त करता है। उस के लिए वेदों वाली साधना से {दान, तप (तप गीता अध्याय 17 श्लोक 14 से 16 में तीन प्रकार का कहा है)तथा यज्ञ द्वारा} जो पुण्य होता है उस से होने वाला संसारिक लाभ प्राप्त न करके पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए इसे ब्रह्म में त्याग कर पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। क्योंकि वेदों में वर्णित विधि से पुण्य के आधार से स्वर्ग प्राप्ति होती है। पुण्य क्षीण होने के पश्चात् पुनः पाप के आधार के कष्ट भोगने पड़ते हैं।
गीता अध्याय 9 श्लोक 20-21 में वेदों में वर्णित साधना से भी जन्म-मृत्यु तथा स्वर्ग-नरक का चक्र समाप्त नहीं होता। गीता अध्याय 11 श्लोक 48 व 53 में कहा है कि वेदों में वर्णित साधना से मेरी प्राप्ति नहीं है। अध्याय 11 श्लोक 54 में काल ब्रह्म ने अपने में प्रवेश होने के लिए ही कहा है मोक्ष-मुक्ति के लिए नहीं जैसे गीता ज्ञान दाता प्रतिदिन एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को काल रूप में खाता है।
जैसा विवरण अध्याय 11 श्लोक 21 में अर्जुन आँखों देखा बता रहा है कि जो ऋषियों व देवताओं का समूह आप का वेद मन्त्रा द्वारा गुणगान कर रहा है आप उन्हें भी खा रहे हो। वे सर्व आप में प्रवेश कर रहे हैं। कोई आपकी दाढ़ों में लटक रहे हैं इसी के विषय में श्लोक 54 में कहा है। श्लोक 55 का भी यह भावार्थ है कि मेरे साधक मेरे को प्राप्त होते है। मेरे ही जाल में रह जाते हैं। उसके लिए गीता अध्याय 8 श्लोक 28 में कहा है कि पूर्ण सन्त (तत्वदर्शी सन्त) के बताए भक्ति मार्ग से साधक वेदों में वर्णित साधना का फल स्वर्ग आदि में जाकर नष्ट नहीं करता अपितु पूर्ण परमात्मा को पाने के लिए प्रयुक्त करता है। उस वेदों वाली कमाई (ओं नाम का जाप पाँचों यज्ञों का फल) को ब्रह्म में त्यागकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करता है जिस कारण से पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में कहा है कि हे अर्जुन मेरे स्तर की सर्व धाार्मिक पूजाऐं मेरे में त्याग कर तू उस एक (अद्वितीय) सर्वशक्तिमान परमश्ेवर की शरण में (व्रज) जा। फिर मैं तूझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा। क्योंकि जिन पापों को भोगना था उस के प्रतिफल में सर्व पूण्य व नाम जाप की कमाई छोड़ देने से काल का ऋण समाप्त हो जाता है। इसलिए काल जाल से मुक्ति मिलती है।
विशेष:- गीता के इस अध्याय 8 में काल रूपी ब्रह्म यानि गीता ज्ञान देने वाले का तथा इससे अन्य सर्व के मालिक वासुदेव परम अक्षर ब्रह्म का भिन्न-भिन्न वर्णन है। अध्याय 8 के श्लोक 3 तथा 8-10 में तो परम अक्षर ब्रह्म की महिमा तथा स्थिति बताई है। श्लोक 5 तथा 7 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी स्थिति बताई है। कहा है कि यदि मेरी भक्ति करेगा तो युद्ध भी करना होगा, मुझे ही प्राप्त होगा। जन्म-मरण तेरा और मेरा सदा बना रहेगा। यदि उस परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करेगा तो उसको प्राप्त होगा। फिर जन्म-मरण कभी नहीं होगा। परम शांति प्राप्त होगी तथा सनातन परम धाम यानि सत्यलोक प्राप्त होगा जिसका वर्णन गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है। गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति का मंत्र अध्याय 8 के श्लोक 13 में बताया है कि (माम् ब्रह्म) मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम् (ॐ) अक्षर है तथा उस परम अक्षर ब्रह्म (ब्रह्मणः) का भक्ति का मंत्र गीता अध्याय 17 के श्लोक 23 में ॐ-तत्-सत् बताया है।
गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरूषों (प्रभुओं) की जानकारी है। क्षर पुरूष और अक्षर तथा परम अक्षर पुरूष यानि परम अक्षर ब्रह्म जो ऊपर वाले दोनों से उत्तम पुरूष है, वही परमात्मा कहा जाता है। वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में अक्षर पुरूष का एक दिन एक हजार युग का बताया है। उसका विस्तार से वर्णन इसी अध्याय 8 के सारांश में कर दिया है।
अर्जुन उवाच
गीता अध्याय 8 श्लोक 1 का अनुवाद: हे पुरुषोत्तम! (अर्जुन ने गीता ज्ञान देने वाले से प्रश्न किया कि) आप जी ने अध्याय 7 के श्लोक 29 में जिस तत् ब्रह्म का वर्णन किया है। वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं?(1)
अध्याय 8 श्लोक 2 का अनुवाद: हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्त चित वाले पुरुषों द्वारा अन्त समय में किस प्रकार जानने में आते हैं। (2)
गीता ज्ञान दाता उवाच
अध्याय 8 श्लोक 3 का अनुवाद: गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने उत्तर दिया वह परम अक्षर ‘‘ब्रह्म‘’ है। इस परम अक्षर ब्रह्म का स्वभाव यानि गुण तथा महिमा अध्यात्म कहा जाता है। भावार्थ है कि परमात्मा कैसा है? उसकी भक्ति से क्या लाभ है? उसकी कैसे प्राप्ति होती है? यह परमात्मा का स्वभाव यानि अध्यात्म ज्ञान है। इसे ‘अध्यात्म‘ नाम से कहा जाता है तथा जीव भाव को उत्पन्न करने वाला कर्म विसर्ग यानि सृष्टि कर्म कहा जाता है।(8/3)
अध्याय 8 श्लोक 4 का अनुवाद: इस देह धारियों में श्रेष्ठ अर्थात् मानव शरीर में नाश्वान स्वभाव वाले अधिभूत जीव का स्वामी और अधिदैव दैवी शक्ति का स्वामी यज्ञ का स्वामी अर्थात् यज्ञ में प्रतिष्ठित अधियज्ञ पूर्ण परमात्मा है इसी प्रकार इस मानव शरीर में मैं हूँ। (4)
विशेष:- गीता अध्याय 3 श्लोक 15 में स्पष्ट किया है कि ब्रह्म का उत्पत्तिकर्ता तथा यज्ञों में प्रतिष्ठित यानि अधियज्ञ सर्वगतम् परम अक्षर ब्रह्म है। उसी के विषय में इस श्लोक नं. 4 में है।
अध्याय 8 श्लोक 5 का अनुवाद: जो अन्तकाल में भी मुझको ही सुमरण करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह ब्रह्म तक की साधना के भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है।(5)
अध्याय 8 श्लोक 6 का अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह नियम है कि मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को सुमरण करता हुआ अर्थात् जिस भी देव की उपासना करता हुआ शरीर का त्याग करता है उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी के भक्ति भाव में भावित रहता है। इसलिए उसी को प्राप्त होता है।(6)
कबीर, जहाँ आशा तहाँ बासा होई। मन कर्म वचन सुमरियो सोई।।
अध्याय 8 श्लोक 7 का अनुवाद: इसलिये हे अर्जुन! तू सब समय में निरन्तर मेरा सुमरण कर और युद्ध भी कर इस प्रकार मुझ में अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू निःसन्देह मुझको ही प्राप्त होगा अर्थात् जब कभी तेरा मनुष्य का जन्म होगा मेरी साधना पर लगेगा तथा मेरे पास ही रहेगा।(7)
अध्याय 8 श्लोक 8 का अनुवाद: हे पार्थ! परमेश्वर के नाम जाप के अभ्यास रूप योग से युक्त अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा की पूजा में लीन दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त परम दिव्य परमात्मा को अर्थात परम अक्षर ब्रह्म को ही प्राप्त होता है।(8)
अध्याय 8 श्लोक 9 का अनुवाद: कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप से प्रसिद्ध होता है वह अनादि, सबके नियन्ता सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त्य-स्वरूप सूर्य के सदृश नित्य प्रकाशमान है। जो उस अज्ञानरूप अंधकार से अति परे सच्चिदानन्द घन परमेश्वर यानि परम अक्षर ब्रह्म का सुमरण करता है।(9)
अध्याय 8 श्लोक 10 का अनुवाद: वह भक्तियुक्त साधक अन्तकाल में नाम के जाप की भक्ति की शक्ति के प्रभाव से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यरूप परम भगवान को ही प्राप्त होता है।(10)
अध्याय 8 श्लोक 11 का अनुवादः उपरोक्त श्लोक 8 से 10 में वर्णित जिस सच्चिदानन्द घन परमेश्वर को वेद के जानने वाले अर्थात् तत्वदर्शी सन्त वास्तव में अविनाशी कहते हैं। जिसमें यत्नशील रागरहित साधक जन प्रवेश करते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं जिसे चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं अर्थात् ब्रह्मचारी रहकर यानि प्रत्येक कार्य में संयम रखने वाले उस परमात्मा को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। उस पद अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त कराने वाली भक्ति पद्धति को (उस पूजा विधि को) तेरे लिए संक्षेप में अर्थात् सांकेतिक रूप से कहूँगा।
अध्याय 8 श्लोक 12 का अनुवाद:- जो भक्ति पद अर्थात् पद्यति बताने जा रहा हूँ उस में साधक सर्व इन्द्रियों के द्वारों को नियमित करके मन को हृदय देश में तथा श्वांसों को मस्तिक में स्थिर करके परमात्मा के स्मरण के ध्यान में मन को लगा करके योग स्थित करके यानि एक स्थान स्मरण पर टिकाकर साधना में स्थित होता है।
अध्याय 8 श्लोक 13 का अनुवाद: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि उपरोक्त श्लोक 11-12 में जिस पूर्ण मोक्ष मार्ग के नाम जाप में तीन अक्षर का जाप कहा है उस में मुझ ब्रह्म का तो यह ओं् (ऊँ) एक अक्षर है उच्चारण करते हुए स्मरन करने अर्थात् साधना करने का जो शरीर त्यागकर जाता हुआ स्मरण करता है अर्थात् अंतिम समय में स्मरण करता हुआ मर जाता है वह यानि ओं (ॐ) के जाप से होने वाली परम गति को प्राप्त होता है। {अपनी गति को तो गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम कहा है।(13)}
अध्याय 8 श्लोक 14 का अनुवाद: हे अर्जुन! जो अनन्यचित होकर सदा ही निरन्तर मुझको सुमरण करता है उस नित्य निरन्तर युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ।(14)
अध्याय 8 श्लोक 15 का अनुवाद: मुझको प्राप्त साधक तो क्षणभंगुर दुःख के घर बार-बार जन्म-मरण में हैं परम अर्थात् पूर्ण परमात्मा की साधना से होने वाली सिद्धि को प्राप्त महात्माजन जन्म-मरण को नहीं प्राप्त होते। यही प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 व 9 तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 4 अध्याय 18 श्लोक 62 में है जिनमें कहा है कि मेरे तथा तेरे अनेकों जन्म व मृत्यु हो चुके हैं परन्तु उस परमेश्वर को प्राप्त करके ही साधक सदा के लिए जन्म मरण से मुक्त हो जाता है वह फिर लौट कर इस क्षण भंगुर लोक में नहीं आता।(15)
अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद: हे अर्जुन! ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक बारम्बार उत्पत्ति नाश वाले हैं परन्तु हे कुन्ती पुत्र जो यह नहीं जानते वे मुझे प्राप्त होकर भी फिर जन्मते हैं।(16)
अध्याय 8 श्लोक 17 का अनुवाद: अक्षर पुरूष यानि परब्रह्म का जो एक दिन है, उसको एक हजार युग की अवधिवाला और रात्रि को भी एक हजार युगतक की अवधिवाली तत्व से जानते हैं। वे तत्वदर्शी संत दिन-रात्रि के तत्व को जानने वाले हैं।(17) नोट:- इसका पूरा वर्णन सारांश में पढ़ें।
अध्याय 8 श्लोक 18 का अनुवाद: सम्पूर्ण प्रत्यक्ष आकार में आया संसार अक्षर पुरूष यानि परब्रह्म के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से अर्थात् अदृश अक्षर पुरूष से उत्पन्न होते हैं और रात्रि आने पर उस अदृश अर्थात् परोक्ष अक्षर पुरूष में ही लीन हो जाते हैं।(18)
अध्याय 8 श्लोक 19 का अनुवाद: हे पार्थ! यह प्राणी समुदाय उत्पन्न हो होकर संस्कार वश होकर रात्रि के प्रवेशकाल में लीन होता है और दिन के प्रवेशकाल में फिर उत्पन्न होता है।(19)
विशेष:- श्लोक नं. 20 से 22 में परम अक्षर ब्रह्म की महिमा बताई है जो वास्तव में अविनाशी है। सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।
अध्याय 8 श्लोक 20 का अनुवाद: परंतु उस अव्यक्त अर्थात् गुप्त परब्रह्म से भी अति परे दूसरा जो आदि अव्यक्त अर्थात् परोक्ष भाव है वह परम दिव्य पुरुष यानि परम अक्षर ब्रह्म सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।(20)
अध्याय 8 श्लोक 21 का अनुवाद: अदृश अर्थात् परोक्ष अविनाशी इस नाम से कहा गया है अज्ञान के अंधकार में छुपे गुप्त स्थान को परमगति कहते हैं जिसे प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते (तत् धाम परमम् मम) क्योंकि काल ब्रह्म भी सतलोक में रहता था। इसलिए अपना परम धाम कहता है। वह लोक मेरे लोक से श्रेष्ठ है।(21)
अध्याय 8 श्लोक 22 का अनुवाद: हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्व प्राणी हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह समस्त जगत् परिपूर्ण है जिस के विषय में उपरोक्त श्लोक 20,21 में तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 17 में व अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, तथा 66 में कहा है। वह श्रेष्ठ परमात्मा तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है। (22)
अध्याय 8 श्लोक 23 का अनुवाद: हे अर्जुन! जिस काल में शरीर त्यागकर गये हुए योगीजन वापस न लौटने वाली गति को और जिस काल में गये हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं उस गुप्त काल को अर्थात् दोनों मार्गों को कहूँगा।(23)
अध्याय 8 श्लोक 24 का अनुवाद: प्रकाशमय अग्नि दिन का कर्ता है शुक्लपक्ष कहा है और उतरायण (जब सूर्य उत्तर की ओर रहता है) के छः महीनों का है उस मार्ग में मरकर गये हुए परमात्मा को तत्व से जानने वाले योगीजन परमात्मा को प्राप्त होते हैं। (24)
अध्याय 8 श्लोक 25 का अनुवाद: अन्धकार रात्रि-का कर्ता है तथा कृष्णपक्ष है और दक्षिणायन के छः महीनों का है उस मार्ग में मरकर गया हुआ योगी चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है। (25)
अध्याय 8 श्लोक 26 का अनुवाद: क्योंकि जगत्के ये दो प्रकार के शुक्ल और कृष्ण मोक्ष मार्ग सनातन माने गये हैं इनमें एक के द्वारा गया हुआ जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे मार्ग द्वारा गया हुआ फिर वापस आता है अर्थात् जन्म-मरण को प्राप्त होता है। (26)
अध्याय 8 श्लोक 27 का अनुवाद: हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों की भिन्नता को तत्व से जानकर कोई भी योगी मोहित नहीं होता इस कारण हे अर्जुन! तू सब कालमें समबुद्धिरूप योग से युक्त हो अर्थात् निरन्तर पूर्ण परमात्मा प्राप्ति के लिये साधन करने वाला हो। (27)
अध्याय 8 श्लोक 28 का अनुवाद: साधक इस पूर्वोक्त रहस्य को तत्व से जानकर वेदों के पढ़नें में तथा यज्ञ तप और दानादि के करने में जो पुण्यफल कहा है उस सबको निःसन्देह मुझ में त्याग कर वेदों से आगे वाला ज्ञान जानकर शास्त्रा विधि अनुसार साधना करता है तथा अन्त समय में पूर्ण परमात्मा के उत्तम लोक (सतलोक) को प्राप्त होता है। (28)
विशेष:- पाठकजन भ्रम में न पड़ें कि कहीं हमारी मृत्यु उतरायण वाले शुक्ल पक्ष में न हो और हम परमात्मा को प्राप्त न हो सकें। सतगुरू का हंस सत्य साधना करता है। जिस कारण से उसकी मृत्यु अपने आप (automatic) ही उतरायण वाले शुक्ल पक्ष में होती है। भक्ति का यही तो विशेष प्रभाव है।
उदाहरण:- जैसे भैंस या गाय गर्भ धारण करती है तो बच्चे के जन्म के समय योनि अपने आप नरम होकर फैल जाती है और बच्चा अपने आप बाहर आ जाता है। परंतु गोबर का गुदा द्वार है, गोबर उसी से बाहर आता है। उसमें कोई विशेष प्रक्रिया नहीं होती। परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने वालों के लिए उतरायण शुक्ल पक्ष अपने आप प्राप्त होता है। जो भक्ति नहीं करते, वे गोबर तुल्य हैं। उनको अपने आप दक्षिणायन कृष्ण पक्ष प्राप्त होता है।
इसी तीन पुरूषों (प्रभुओं) का ज्ञान गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में भी है। उन्हीं का वर्णन गीता अध्याय 7 श्लोक 24.25, अध्याय 9 श्लोक 4 में है तथा गीता अध्याय 8 श्लोक 18-22 में है।
1) प्रथम अव्यक्त काल ब्रह्म यानि गीता ज्ञान देने वाला है जिसका प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में है।
2) दूसरा अव्यक्त:- गीता अध्याय 8 श्लोक 18-19 में दूसरे अव्यक्त यानि अक्षर पुरूष का वर्णन है।
3) तीसरा अव्यक्त:- तीसरा अव्यक्त यानि परम अक्षर ब्रह्म का गीता अध्याय 8 श्लोक 20-22 में वर्णन है।