परम्, भूयः, प्रवक्ष्यामि, ज्ञानानाम्, ज्ञानम्, उत्तमम्,
यत्, ज्ञात्वा, मुनयः, सर्वे, पराम्, सिद्धिम्, इतः, गताः।।1।।
अनुवाद:(ज्ञानानाम्) ज्ञानोंमें भी (उत्तमम् तत्) अति उत्तम उस (परम्) अन्य परम (ज्ञानम्) ज्ञानको मैं (भूयः) फिर (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा, (यत्) जिसको (ज्ञात्वा) जानकर (सर्वे) सब (मुनयः) मुनिजन (इतः) इस संसारसे मुक्त होकर (पराम्) परम (सिद्धिम्) सिद्धिको (गताः) प्राप्त हो गये हैं अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो गए हैं। (1)
हिन्दी: ज्ञानोंमें भी अति उत्तम उस अन्य परम ज्ञानको मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसारसे मुक्त होकर परम सिद्धिको प्राप्त हो गये हैं अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो गए हैं।
इदम्, ज्ञानम्, उपाश्रित्य, मम, साधम्र्यम्, आगताः,
सर्गे, अपि, न, उपजायन्ते, प्रलये, न, व्यथन्ति, च।।2।।
अनुवाद: (इदम्) इस (ज्ञानम्) ज्ञानको (उपाश्रित्य) आश्रय करके अर्थात् धारण करके (मम) मेरे (साधम्र्यम्) जैसे गुणों को (आगताः) प्राप्त हुए साधक (सर्गे) सृृष्टिके आदिमें (न उपजायन्ते) उत्पन्न नहीं होते (च) और (प्रलये) प्रलयकालमें (अपि) भी (न व्यथन्ति) व्याकुल नहीं होते। (2)
हिन्दी: इस ज्ञानको आश्रय करके अर्थात् धारण करके मेरे जैसे गुणों को प्राप्त हुए साधक सृृष्टिके आदिमें उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकालमें भी व्याकुल नहीं होते।
मम, योनिः, महत्, ब्रह्म, तस्मिन्, गर्भम्, दधामि, अहम्,
सम्भवः, सर्वभूतानाम्, ततः, भवति, भारत।।3।।
अनुवाद: (भारत) हे अर्जुन! (मम) मेरी (महत्) मूल प्रकृति अर्थात् दुर्गा तो सम्पूर्ण प्राणियोंकी (योनिः) योनि है अर्थात् गर्भाधानका स्थान है और (अहम् ब्रह्म) मैं ब्रह्म-काल (तस्मिन्) उस योनिमें (गर्भम्) गर्भको (दधामि) स्थापन करता हूँ (ततः) उस संयोगसे (सर्वभूतानाम्) सब प्राणियों की (सम्भवः) उत्पत्ति (भवति) होती है। (3)
हिन्दी: हे अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति अर्थात् दुर्गा तो सम्पूर्ण प्राणियोंकी योनि है अर्थात् गर्भाधानका स्थान है और मैं ब्रह्म-काल उस योनिमें गर्भको स्थापन करता हूँ उस संयोगसे सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
सर्वयोनिषु, कौन्तेय, मूर्तयः, सम्भवन्ति, याः,
तासाम्, ब्रह्म, महत्, योनिः, अहम्, बीजप्रदः, पिता।।4।।
अनुवाद: (कौन्तेय) हे अर्जुन! (सर्वयोनिषु) सब योनियोंमें (याः) जितनी (मूर्तयः) मूर्तियाँ अर्थात् शरीरधारी प्राणी (सम्भवन्ति) यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 उत्पन्न होते हैं, (महत्) मूल प्रकृृति तो (तासाम्) उन सबकी (योनिः) गर्भ धारण करनेवाली माता है और (अहम् ब्रह्म) मैं (बीजप्रदः) बीजको स्थापन करनेवाला (पिता) पिता हूँ। (4)
हिन्दी: हे अर्जुन! सब योनियोंमें जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीरधारी प्राणी यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 उत्पन्न होते हैं, मूल प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करनेवाली माता है और मैं बीजको स्थापन करनेवाला पिता हूँ।
सत्त्वम्, रजः, तमः, इति, गुणाः, प्रकृृतिसम्भवाः,
निबध्नन्ति, महाबाहो, देहे, देहिनम्, अव्ययम्।।5।।
अनुवाद: (महाबाहो) हे अर्जुन! (सत्त्वम्) सत्त्वगुण, (रजः) रजोगुण और (तमः) तमोगुण (इति) ये (प्रकृतिसम्भवाः) प्रकृतिसे उत्पन्न (गुणाः) तीनों गुण (अव्ययम्) अविनाशी (देहिनम्) जीवात्माको (देहे) शरीरमें (निबध्नन्ति) बाँधते हैं। (5)
हिन्दी: हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण ये प्रकृतिसे उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्माको शरीरमें बाँधते हैं।
तत्र, सत्त्वम्, निर्मलत्वात्, प्रकाशकम्, अनामयम्,
सुखसंगेन, बध्नाति, ज्ञानसंगेन, च, अनघ।।6।।
अनुवाद: (अनघ) हे निष्पाप! (तत्र) उन तीनों गुणोंमें (सत्त्वम्) सत्वगुण तो (निर्मलत्वात्) निर्मल होनेके कारण (प्रकाशकम्) प्रकाश करनेवाला और (अनामयम्) नकली अनामी है वह (सुखसंगेन) सुखके सम्बन्धसे (च) और (ज्ञानसंगेन) ज्ञानके सम्बन्धसे अर्थात् उसके अभिमानसे (बध्नाति) बाँधता है। (6)
हिन्दी: हे निष्पाप! उन तीनों गुणोंमें सत्वगुण तो निर्मल होनेके कारण प्रकाश करनेवाला और नकली अनामी है वह सुखके सम्बन्धसे और ज्ञानके सम्बन्धसे अर्थात् उसके अभिमानसे बाँधता है।
रजः, रागात्मकम्, विद्धि, तृष्णासंगसमुद्भवम्,
तत्, निबध्नाति, कौन्तेय, कर्मसंगेन, देहिनम्।।7।।
अनुवाद: (कौन्तेय) हे अर्जुन! (रागात्मकम्) रागरूप (रजः) रजोगुणको (तृष्णासंगसमुद्भवम्) कामना और आसक्तिसे उत्पन्न (विद्धि) जान (तत्) वह (देहिनम्) इस जीवात्माको (कर्मसंगेन) कर्मोंके और उनके फलके सम्बन्धसे (निबध्नाति) बाँधता है। (7)
हिन्दी: हे अर्जुन! रागरूप रजोगुणको कामना और आसक्तिसे उत्पन्न जान वह इस जीवात्माको कर्मोंके और उनके फलके सम्बन्धसे बाँधता है।
तमः, तु, अज्ञानजम्, विद्धि, मोहनम्, सर्वदेहिनाम्,
प्रमादालस्यनिद्राभिः, तत्, निबध्नाति, भारत।।8।।
अनुवाद: (भारत) हे अर्जुन! (सर्वदेहिनाम्) सब शरीरधारियोंको (मोहनम्) मोहित करनेवाले (तमः) तमोगुणको (तु) तो (अज्ञानजम्) अज्ञानसे उत्पन्न (विद्धि) जान। (तत्) वह इस जीवात्माको (प्रमादालस्यनिद्राभिः) प्रमाद आलस्य और निंद्राके द्वारा (निबध्नाति) बाँधता है। (8)
हिन्दी: हे अर्जुन! सब शरीरधारियोंको मोहित करनेवाले तमोगुणको तो अज्ञानसे उत्पन्न जान। वह इस जीवात्माको प्रमाद आलस्य और निंद्राके द्वारा बाँधता है।
सत्त्वम्, सुखे, संजयति, रजः, कर्मणि, भारत,
ज्ञानम्, आवृत्य, तु, तमः, प्रमादे, संजयति, उत।। 9।।
अनुवाद : (भारत) हे अर्जुन! (सत्त्वम्) सत्वगुण (सुखे) सुखमें (संजयति) लगाता है और (रजः) रजोगुण (कर्मणि) कर्ममें तथा (तमः) तमोगुण (तु) तो (ज्ञानम्) ज्ञानको (आवृृत्य) ढककर (प्रमादे) प्रमादमें (उत) भी (संजयति) लगाता है। (9)
हिन्दी: हे अर्जुन! सत्वगुण सुखमें लगाता है और रजोगुण कर्ममें तथा तमोगुण तो ज्ञानको ढककर प्रमादमें भी लगाता है।
रजः, तमः, च, अभिभूय, सत्त्वम्, भवति, भारत,
रजः, सत्त्वम्, तमः, च, एव, तमः, सत्त्वम्, रजः, तथा।।10।।
अनुवाद: (भारत) हे अर्जुन! (रजः) रजोगुण (च) और (तमः) तमोगुणको (अभिभूय) दबाकर (सत्त्वम्) सत्वगुण, (सत्त्वम्) सत्वगुण (च) और (तमः) तमोगुणको दबाकर (रजः) रजोगुण (तथा) वैसे (एव) ही (सत्त्वम्) सत्वगुण और (रजः) रजोगुणको दबाकर (तमः) तमोगुण (भवति) होता है अर्थात् बढ़ता है। (10)
हिन्दी: हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुणको दबाकर सत्वगुण, सत्वगुण और तमोगुणको दबाकर रजोगुण वैसे ही सत्वगुण और रजोगुणको दबाकर तमोगुण होता है अर्थात् बढ़ता है।
सर्वद्वारेषु, देहे, अस्मिन्, प्रकाशः, उपजायते,
ज्ञानम्, यदा, तदा, विद्यात्, विवृद्धम्, सत्त्वम्, इति, उत।।11।।
अनुवाद: (यदा) जिस समय (अस्मिन्) इस (देहे) देहमें तथा (सर्वद्वारेषु) अन्तःकरण और इन्द्रियोंमें (प्रकाशः) चेतनता और (ज्ञानम्) विवेकशक्ति (उपजायते) उत्पन्न होती है (तदा) उस समय (इति) ऐसा (विद्यात्) जानना चाहिए (उत) कि (सत्त्वम्) सत्वगुण (विवृद्धम्) बढ़ा है। (11)
हिन्दी: जिस समय इस देहमें तथा अन्तःकरण और इन्द्रियोंमें चेतनता और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा है।
लोभः, प्रवृत्तिः, आरम्भः, कर्मणाम्, अशमः, स्पृृहा,
रजसि, एतानि, जायन्ते, विवृृद्धे, भरतर्षभ।।12।।
अनुवाद: (भरतर्षभ) हे अर्जुन! (रजसि) रजोगुणके (विवृृद्धे) बढ़ने पर (लोभः) लोभ (प्रवृृत्तिः) प्रवृति स्वार्थबुद्धिसे (कर्मणाम्) कर्मोंका सकाम-भावसे (आरम्भः) आरम्भ (अशमः) अशान्ति और (स्पृृहा) विषय-भोगोंकी लालसा (एतानि) ये सब (जायन्ते) उत्पन्न होते हैं। (12)
हिन्दी: हे अर्जुन! रजोगुणके बढ़ने पर लोभ प्रवृति स्वार्थबुद्धिसे कर्मोंका सकाम-भावसे आरम्भ अशान्ति और विषय-भोगोंकी लालसा ये सब उत्पन्न होते हैं।
अप्रकाशः, अप्रवृृत्तिः, च, प्रमादः, मोहः, एव, च,
तमसि, एतानि, जायन्ते, विवृृद्धे, कुरुनन्दन।।13।।
अनुवाद: (कुरुनन्दन) हे अर्जुन! (तमसि) तमोगुणके (विवृद्धे) बढ़नेपर अन्तःकरण और इन्द्रियोंमें (अप्रकाशः) अप्रकाश (अप्रवृत्तिः) कर्तव्य-कर्मोंमें अप्रवृति (च) और (प्रमादः) प्रमाद अर्थात् व्यर्थ चेष्टा (च) और (मोहः) निन्द्रादि अन्तःकरणकी मोहिनी वृतियाँ (एतानि) ये सब (एव) ही (जायन्ते) उत्पन्न होते हैं। (13)
हिन्दी: हे अर्जुन! तमोगुणके बढ़नेपर अन्तःकरण और इन्द्रियोंमें अप्रकाश कर्तव्य-कर्मोंमें अप्रवृति और प्रमाद अर्थात् व्यर्थ चेष्टा और निन्द्रादि अन्तःकरणकी मोहिनी वृतियाँ ये सब ही उत्पन्न होते हैं।
यदा, सत्त्वे, प्रवृद्धे, तु, प्रलयम्, याति, देहभृत्,
तदा, उत्तमविदाम्, लोकान्, अमलान्, प्रतिपद्यते।।14।।
अनुवाद: (यदा) जब (देहभृृत्) यह मनुष्य (सत्त्वे) सत्वगुणकी (प्रवृृद्धे) वृृद्धिमें (प्रलयम्) मृृत्युको (याति) प्राप्त होता है (तदा) तब (तु) तो (उतमविदाम्) उत्तम कर्म करनेवालोंके (अमलान्) निर्मल दिव्य स्वर्गादि (लोकान्) लोकोंको (प्रतिपद्यते) प्राप्त होता है। (14)
हिन्दी: जब यह मनुष्य सत्वगुणकी वृद्धिमें मृत्युको प्राप्त होता है तब तो उत्तम कर्म करनेवालोंके निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त होता है।
रजसि, प्रलयम्, गत्वा, कर्मसंगिषु, जायते,
तथा, प्रलीनः, तमसि, मूढयोनिषु जायते।।15।।
अनुवाद: (रजसि) रजोगुणके बढ़नेपर (प्रलयम्) मृत्युको (गत्वा) प्राप्त होकर (कर्मसंगिषु) कर्मोंकी आसक्तिवाले मनुष्योंमें (जायते) उत्पन्न होता है (तथा) तथा (तमसि) तमोगुणके बढ़नेपर (प्रलीनः) मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि (मूढयोनिषु) मूढयोनियोंमें (जायते) उत्पन्न होता है। (15)
हिन्दी: रजोगुणके बढ़नेपर मृत्युको प्राप्त होकर कर्मोंकी आसक्तिवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होता है तथा तमोगुणके बढ़नेपर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढयोनियोंमें उत्पन्न होता है।
कर्मणः, सुकृतस्य, आहुः, सात्त्विकम्, निर्मलम्, फलम्,
रजसः, तु, फलम्, दुःखम्, अज्ञानम्, तमसः, फलम्।।16।।
अनुवाद: (सुकृतस्य) श्रेष्ठ (कर्मणः) कर्मका तो (सात्त्विकम्) सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि (निर्मलम्) निर्मल (फलम्) फल (आहुः) कहा है (तु) किन्तु (रजसः) राजस कर्मका (फलम्) फल (दुःखम्) दुःख एवम् (तमसः) तामस कर्मका (फलम्) फल (अज्ञानम्) अज्ञान कहा है। (16)
हिन्दी: श्रेष्ठ कर्मका तो सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है किन्तु राजस कर्मका फल दुःख एवम् तामस कर्मका फल अज्ञान कहा है।
सत्त्वात्, संजायते, ज्ञानम्, रजसः, लोभः, एव, च
प्रमादमोहौ, तमसः, भवतः, अज्ञानम्, एव, च।।17।।
अनुवाद: (सत्त्वात्) सत्वगुणसे (ज्ञानम्) ज्ञान (संजायते) उत्पन्न होता है (च) और (रजसः) रजोगुणसे (एव) निःसंदेह ही (लोभः) लोभ (च) तथा (तमसः) तमोगुणसे (प्रमादमोहौ) प्रमाद और मोह (भवतः) उत्पन्न होते हैं और (अज्ञानम्) अज्ञान (एव) ही होता है। (17)
हिन्दी: सत्वगुणसे ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुणसे निःसंदेह ही लोभ तथा तमोगुणसे प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान ही होता है।
ऊध्र्वम्, गच्छन्ति, सत्त्वस्थाः, मध्ये, तिष्ठन्ति, राजसाः,
जघन्यगुणवृृत्तिस्थाः, अधः, गच्छन्ति, तामसाः।।18।।
अनुवाद: (सत्त्वस्थाः) सत्वगुणमें स्थित पुरुष अर्थात् विष्णु उपासक (ऊध्र्वम्) ऊपर वाले स्वर्गादि लोकोंको (गच्छन्ति) जाते हैं रजोगुणमें स्थित (राजसाः) राजस पुरुष अर्थात् ब्रह्मा उपासक (मध्ये) मध्य वाले पृथ्वी लोक में अर्थात् मनुष्यलोकमें ही (तिष्ठन्ति) रहते हैं और (जघन्यगुणवृत्तिस्थाः) तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित (तामसाः) तामस पुरुष अर्थात् शिव उपासक (अधः) नीचे वाले पताल अर्थात् नरकों तथा अधोगति अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियों को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं। उदाहरण - रावण, भष्मासुर आदि। (18)
हिन्दी: सत्वगुणमें स्थित पुरुष अर्थात् विष्णु उपासक ऊपर वाले स्वर्गादि लोकोंको जाते हैं रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष अर्थात् ब्रह्मा उपासक मध्य वाले पृथ्वी लोक में अर्थात् मनुष्यलोकमें ही रहते हैं और तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित तामस पुरुष अर्थात् शिव उपासक नीचे वाले पताल अर्थात् नरकों तथा अधोगति अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। उदाहरण - रावण, भष्मासुर आदि।
न, अन्यम्, गुणेभ्यः, कर्तारम्, यदा, द्रष्टा, अनुपश्यति,
गुणेभ्यः, च, परम्, वेत्ति, मद्भावम्, सः, अधिगच्छति।।19।।
अनुवाद: (यदा) जिस समय (द्रष्टा) विवेक शील साधक (गुणेभ्यः) तीनों गुणों - ब्रह्मा, विष्णु, शिव से (अन्यम्) अन्य को (कर्तारम्) करतार अर्थात् भगवान (न) नहीं (अनुपश्यति) देखता (सः) वह (च) और (गुणेभ्यः) तीनों गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तम्गुण शिव जी से (परम्) दूसरे पूर्ण परमात्मा को (वेत्ति) तत्वसे जानता है (मद्भावम्) वह मेरे मता अनुकूल विचारों को (अधिगच्छति) प्राप्त होता है। (19)
हिन्दी: जिस समय विवेक शील साधक तीनों गुणों - ब्रह्मा, विष्णु, शिव से अन्य को करतार अर्थात् भगवान नहीं देखता वह और तीनों गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तम्गुण शिव जी से दूसरे पूर्ण परमात्मा को तत्वसे जानता है वह मेरे मता अनुकूल विचारों को प्राप्त होता है।
भावार्थ - श्लोक 19 का भावार्थ है कि जो साधक भक्ति तो तीनों प्रभुओं की ही करता है, अन्य को नहीं मानता तथा यह भी समझ लेता है कि वास्तव में भक्ति तो परमेश्वर की ही करनी चाहिए तो वह कभी न कभी सत्य भक्ति स्वीकार कर लेता है।
गुणान्, एतान्, अतीत्य, त्रीन, देही, देहसमुद्भवान्,
जन्ममृत्युजरादुःखै, विमुक्तः, अमृृतम्, अश्नुते।।20।।
अनुवाद: वह (देही) जीवात्मा (देहसमुद्भवान्) शरीरकी उत्पत्तिके कारणरूप (एतान्) इन (त्रीन) तीनों (गुणान्) गुणों अर्थात् तीनों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी का(अतीत्य) उल्लंघन करके तथा पूर्ण परमात्मा की शास्त्र विधि अनुसार पूजा करके (जन्ममृत्युजरा दुःखैः) जन्म, मृृत्यु, वृृद्धावस्था और सब प्रकारके दुःखोंसे (विमुक्तः) मुक्त हुआ (अमृृतम्) परमानन्दको अर्थात् पूर्ण मुक्त होकर अमरत्व को (अश्नुते) प्राप्त होता है। (20)
हिन्दी: वह जीवात्मा शरीरकी उत्पत्तिके कारणरूप इन तीनों गुणों अर्थात् तीनों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी का उल्लंघन करके तथा पूर्ण परमात्मा की शास्त्र विधि अनुसार पूजा करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकारके दुःखोंसे मुक्त हुआ परमानन्दको अर्थात् पूर्ण मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त होता है।
(अर्जुन उवाच)
कैः, लिंगैः, त्रीन, गुणान्, एतान्, अतीतः, भवति, प्रभो,
किमाचारः, कथम्, च, एतान्, त्रीन, गुणान्, अतिवर्तते।।21।।
अनुवाद: (एतान्) इन (त्रीन) तीनों (गुणान्) गुणोंसे (अतीतः) अतीत भक्त (कैः) किन-किन (लिंगैः) लक्षणोंसे युक्त होता है (च) और (किमाचारः) किस प्रकारके आचरणोंवाला (भवति) होता है तथा (प्रभो) हे प्रभो! मनुष्य (कथम्) कैसे (एतान्) इन (त्रीन) तीनों (गुणान्) गुणोंसे (अतिवर्तते) अतीत होता है अर्थात् ऊपर उठ जाता है। (21)
हिन्दी: इन तीनों गुणोंसे अतीत भक्त किन-किन लक्षणोंसे युक्त होता है और किस प्रकारके आचरणोंवाला होता है तथा हे प्रभो! मनुष्य कैसे इन तीनों गुणोंसे अतीत होता है अर्थात् ऊपर उठ जाता है।
(भगवान उवाच)
प्रकाशम्, च, प्रवृत्तिम्, च, मोहम्, एव, च, पाण्डव,
न, द्वेष्टि, सम्प्रवृत्तानि, न, निवृत्तानि, काङ्क्षति।।22।।
अनुवाद: (पाण्डव) हे अर्जुन! जो साधक (प्रकाशम्) सत्वगुणके कार्यरूप प्रकाशको (च) और (प्रवृृत्तिम्) रजोगुणके कार्यरूप प्रवृृतिको (च) तथा (मोहम्) तमोगुणके कार्यरूप मोहको (एव) ही (न) न (सम्प्रवृत्तानि) प्रवृत होनेपर उनसे (द्वेष्टि) द्वेष करता है (च) और (न) न (निवृत्तानि) निवृत होनेपर उनकी (काङ्क्षति) आकांक्षा करता है। (22)
हिन्दी: हे अर्जुन! जो साधक सत्वगुणके कार्यरूप प्रकाशको और रजोगुणके कार्यरूप प्रवृृतिको तथा तमोगुणके कार्यरूप मोहको ही न प्रवृत होनेपर उनसे द्वेष करता है और न निवृत होनेपर उनकी आकांक्षा करता है।
उदासीनवत्, आसीनः, गुणैः, यः, न, विचाल्यते,
गुणाः, वर्तन्ते, इति, एव, यः, अवतिष्ठति, न, इंगते।।23।।
अनुवाद: (यः) जो (उदासीनवत्) सर्व पदार्थों के भोग से उदास हुआ होता है उस उदासीन अर्थात् साक्षीके सदृश (आसीनः) स्थित हुआ (गुणैः) गुणोंके द्वारा (न,विचाल्यते) विचलित नहीं किया जा सकता और (गुणाः,एव) गुण ही गुणोंमें (वर्तन्ते) बरतते हैं (इति) ऐसा समझता हुआ (यः) जो सच्चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे (अवतिष्ठति) स्थित रहता है एवं (न,इंगते) उस स्थितिसे कभी विचलित नहीं होता। (23)
हिन्दी: जो सर्व पदार्थों के भोग से उदास हुआ होता है उस उदासीन अर्थात् साक्षीके सदृश स्थित हुआ गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणोंमें बरतते हैं ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे स्थित रहता है एवं उस स्थितिसे कभी विचलित नहीं होता।
भावार्थ - श्लोक 23 का भावार्थ है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा के तत्वज्ञान से पूर्ण परिचितगहरी नजर गीता में हो जाता है वह फिर तीनों गुणों अर्थात् तीनों प्रभुओं श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी से मिलने वाले क्षणिक सुख से प्रभावित नहीं होता। इनकी स्थिति व शक्ति से परिचित है। जैसे गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में प्रमाण है कि पूर्ण रूप से परिपूर्ण जल से भरे हुए बहुत बड़े जलाशय अर्थात् झील के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में जितनी श्रद्धा रह जाती है, छोटे जलाशय बुरे नहीं लगते परन्तु उनकी क्षमता से परिचित हो जाने से बड़े जलाशय में पूर्ण आस्था बन जाती है। इसी प्रकार पूर्ण ब्रह्म के ज्ञान के पश्चात् अन्य प्रभुओं से घृणा नहीं बनती, परन्तु पूर्ण आस्था उस पूर्ण परमात्मा में स्वत् बन जाती है।
समदुःखसुखः, स्वस्थः, समलोष्टाश्मकांचनः,
तुल्यप्रियाप्रियः, धीरः, तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।24।।
अनुवाद: (स्वस्थः) अपने तत्व ज्ञान पर आधारित (समदुःखसुखः) दुःख सुखको समान समझनेवाला (समलोष्टाश्मकांचनः) मिट्टी पत्थर और स्वर्णमें समान भाववाला (धीरः) तत्व ज्ञानी (तुल्यप्रियाप्रियः) प्रिय तथा अप्रियको एक सा माननेवाला और (तुल्यनिन्दात्म संस्तुतिः) अपनी निन्दास्तुतिमें भी समान भाववाला है। (24)
हिन्दी: अपने तत्व ज्ञान पर आधारित दुःख सुखको समान समझनेवाला मिट्टी पत्थर और स्वर्णमें समान भाववाला तत्व ज्ञानी प्रिय तथा अप्रियको एक सा माननेवाला और अपनी निन्दास्तुतिमें भी समान भाववाला है।
मानापमानयोः, तुल्यः, तुल्यः, मित्ररिपक्षयोः,
सर्वारम्भपरित्यागी, गुणातीतः, सः, उच्यते।।25।।
अनुवाद: (मानापमानयोः) जो मान और अपमानमें (तुल्यः) सम है (मित्ररिपक्षयोः) मित्र और वैरीके पक्षमें भी (तुल्यः) सम है एवं (सर्वारम्भपरित्यागी)राग वश किसी का लाभ करने वाले तथा द्वेष वश किसी को हानि करने वाले सम्पूर्ण आरम्भों का त्यागी है (सः) वह भक्त (गुणातीतः) तीनों भगवानों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तम् गुण शिव जी की निराकार शक्ति से प्रभावित नहीं होता वह) गुणातीत (उच्यते) कहा जाता है। (25)
हिन्दी: जो मान और अपमानमें सम है मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है एवं राग वश किसी का लाभ करने वाले तथा द्वेष वश किसी को हानि करने वाले सम्पूर्ण आरम्भों का त्यागी है वह भक्त तीनों भगवानों गुणातीत कहा जाता है।
माम्, च, यः, अव्यभिचारेण, भक्तियोगेन, सेवते,
सः, गुणान्, समतीत्य, एतान्, ब्रह्मभूयाय, कल्पते।।26।।
अनुवाद: (च) और (यः) जो भक्त (अव्यभिचारेण) अव्यभिचारी (भक्तियोगेन) भक्तियोगके द्वारा (माम्) मुझको निरन्तर (सेवते) भजता है (सः) वह भी (एतान्) इन (गुणान्) तीनों गुणोंको (समतीत्य) भलीभाँति लाँघकर (ब्रह्मभूयाय) सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होनेके लिये (कल्पते) योग्य बन जाता है अर्थात् उसी एक पूर्ण परमात्मा की ही कल्पना करता है। (26)
हिन्दी: और जो भक्त अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मुझको निरन्तर भजता है वह भी इन तीनों गुणोंको भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होनेके लिये योग्य बन जाता है अर्थात् उसी एक पूर्ण परमात्मा की ही कल्पना करता है।
भावार्थ:- गीता अध्याय 14 श्लोक 26 का भावार्थ है कि जो व्यक्ति पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के तत्वज्ञान से परिचित होने के पश्चात् मेरी पूजा करने वाला अथार्त् ब्रह्म का साधक यदि श्री ब्रह्मा जी (रजगुण) श्री विष्णु जी (सतगुण) तथा श्री शिव जी (तम्गुण) की भी साधना साथ-2 करता है तो वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तीनों भगवानों (गुणों) का उल्लंघन कर देता है अर्थात् इस से अपनी आस्था तुरन्त हटाकर सत्य साधना में अव्यभिचारिणी भक्ति अर्थात् एक पूर्ण परमात्मा में ही पूर्ण आस्था करके उसको प्राप्त करने योग्य बन जाता है। वह गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में वर्णित ओम्-तत्-सत् मन्त्र का जाप करता है।
ब्रह्मणः, हि, प्रतिष्ठा, अहम्, अमृतस्य, अव्ययस्य, च,
शाश्वतस्य, च, धर्मस्य, सुखस्य, ऐकान्तिकस्य, च।।27।।
अनुवाद: (हि) क्योंकि उस (अव्ययस्य) अविनाशी (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा का (च) और (अमृतस्य) अमृतका (च) तथा (शाश्वतस्य) नित्य (धर्मस्य) पूजाका (च) और (ऐकान्तिकस्य) अखण्ड एकरस के (सुखस्य) आनन्दकी (प्रतिष्ठा) अवस्था अर्थात् भूमिका (अहम्) मैं हूँ अर्थात् उस परमात्मा की प्राप्ति भी मेरे माध्यम से ही होती है। (27)
हिन्दी: क्योंकि उस अविनाशी पूर्ण परमात्मा का और अमृतका तथा नित्य पूजाका और अखण्ड एकरस के आनन्दकी अवस्था अर्थात् भूमिका मैं हूँ अर्थात् उस परमात्मा की प्राप्ति भी मेरे माध्यम से ही होती है।