(अर्जुन उवाच)
सóयासस्य, महाबाहो, तत्त्वम्, इच्छामि, वेदितुम्,
त्यागस्य, च, हृषीकेश, पृथक्, केशिनिषूदन।।1।।
अनुवाद: (महाबाहो) हे महाबाहो! (हृषीकेश) हे अन्तर्यामिन! (केशिनिषूदन) केशिनाशक (सóयासस्य) संन्यास (च) और (त्यागस्य) त्यागके (तत्त्वम्) तत्वको (पृथक्) पृथक्-पृथक् (वेदितुम्) जानना (इच्छामि) चाहता हूँ। (1)
हिन्दी: हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन! केशिनाशक संन्यास और त्यागके तत्वको पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ।
काम्यानाम्, कर्मणाम्, न्यासम्, सóयासम्, कवयः, विदुः,
सर्वकर्मफलत्यागम्, प्राहुः, त्यागम्, विचक्षणाः।।2।।
अनुवाद: (कवयः) पण्डितजन तो (काम्यानाम्) मनोकामना के लिए किए धार्मिक (कर्मणाम्) कर्मोंके (न्यासम्) त्यागको (सóयासम्) संन्यास (विदुः) समझते हैं तथा दूसरे (विचक्षणाः) विचारकुशल पुरुष (सर्वकर्मफलत्यागम्) सब कर्मोंके फलके त्यागको (त्यागम्) त्याग (प्राहुः) कहते हैं। (2)
हिन्दी: पण्डितजन तो मनोकामना के लिए किए धार्मिक कर्मोंके त्यागको संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मोंके फलके त्यागको त्याग कहते हैं।
त्याज्यम्, दोषवत्, इति, एके, कर्म, प्राहुः, मनीषिणः,
यज्ञदानतपःकर्म, न, त्याज्यम्, इति, च, अपरे।।3।।
अनुवाद: (एके) कई एक (मनीषिणः) विद्वान् (इति) ऐसा (प्राहुः) कहते हैं कि (कर्म) शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म (दोषवत्) दोषयुक्त हैं इसलिये (त्याज्यम्) त्यागनेके योग्य हैं (च) और (अपरे) दूसरे विद्वान् (इति) यह कहते हैं कि (यज्ञदानतपःकर्मः) यज्ञ, दान और तपरूपी कर्म (न,त्याज्यम्) त्यागने योग्य नहीं हैं। (3)
हिन्दी: कई एक विद्वान् ऐसा कहते हैं कि शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म दोषयुक्त हैं इसलिये त्यागनेके योग्य हैं और दूसरे विद्वान् यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूपी कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।
(भगवान उवाच)
निश्चयम्, श्रृणु, मे, तत्र, त्यागे, भरतसत्तम,
त्यागः, हि, पुरुषव्याघ्र, त्रिविधः, सम्प्रकीर्तितः।।4।।
अनुवाद: (पुरुषव्याघ्र) हे शेर पुरुष (भरतसत्तम) अर्जुन! (तत्र) संन्यास और त्याग इन दोनोंमेसे पहले (त्यागे) त्यागके विषयमें तू (मे) मेरा (निश्चयम्) निश्चय (श्रृृणु) सुन (हि) क्योंकि (त्यागः) त्याग (त्रिविधः) तीन प्रकारका (सम्प्रकीर्तितः) कहा गया है। (4)
हिन्दी: हे शेर पुरुष अर्जुन! संन्यास और त्याग इन दोनोंमेसे पहले त्यागके विषयमें तू मेरा निश्चय सुन क्योंकि त्याग तीन प्रकारका कहा गया है।
यज्ञदानतपःकर्म, न, त्याज्यम्, कार्यम्, एव, तत्,
यज्ञः, दानम्, तपः, च, एव, पावनानि, मनीषिणाम्।।5।।
अनुवाद: (यज्ञदानतपःकर्म) यज्ञ, दान और तपरूप कर्म (न, त्याज्यम्) त्याग करनेके योग्य नहीं है बल्कि (तत्) वह तो (एव) अवश्य (कार्यम्) कर्तव्य है क्योंकि (यज्ञः) यज्ञ (दानम्) दान (च) और (तपः) तप (एव) ही कर्म (मनीषिणाम्) बुद्धिमान् पुरुषोंको (पावनानि) पवित्र करनेवाले हैं। (5)
हिन्दी: यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करनेके योग्य नहीं है बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है क्योंकि यज्ञ दान और तप ही कर्म बुद्धिमान् पुरुषोंको पवित्र करनेवाले हैं।
विशेष:- यहाँ पर हठयोग द्वारा किया जाने वाले तप के विषय में नहीं कहा है यहाँ पर गीता अध्याय 17 श्लोक 14 से 17 में कहे तप के विषय में कहा है।
एतानि, अपि, तु, कर्माणि, संगम्, त्यक्त्वा, फलानि, च,
कर्तव्यानि, इति, मे, पार्थ निश्चितम्, मतम्, उत्तमम्।।6।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (एतानि) इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंको (तु) तथा (अपि) भी (कर्माणि) सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको (संगम्) आसक्ति (च) और (फलानि) फलोंका (त्यक्त्वा) त्याग करके (कर्तव्यानि) करना चाहिए (इति) यह (मे) मेरा (निश्चितम्) निश्चय किया हुआ (उत्तमम्) उत्तम (मतम्) मत है। (6)
हिन्दी: हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंको तथा भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको आसक्ति और फलोंका त्याग करके करना चाहिए यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।
नियतस्य, तु, सóयासः, कर्मणः, न, उपपद्यते,
मोहात्, तस्य, परित्यागः, तामसः, परिकीर्तितः।।7।।
अनुवाद: (तु) परंतु (नियतस्य) नियत शास्त्रानुकूल (कर्मणः) कर्मका (सóयासः) त्याग (न,उपपद्यते) उचित नहीं है (मोहात्) मोहके कारण अज्ञानता वश भाविक होकर (तस्य) उसका (परित्यागः) त्याग कर देना (तामसः) तामस (परिकीर्तितः) त्याग कहा गया है। (7)
हिन्दी: परंतु नियत शास्त्रानुकूल कर्मका त्याग उचित नहीं है मोहके कारण अज्ञानता वश भाविक होकर उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है।
दुःखम्, इति, एव, यत्, कर्म, कायक्लेशभयात्, त्यजेत्,
सः, कृत्वा, राजसम्, त्यागम्, न, एव, त्यागफलम्, लभेत्।।8।।
अनुवाद: (यत्) जो कुछ (कर्म) भक्ति साधना का व शरीर निर्वाह के लिए कर्म है (दुःखम्, एव) दुःखरूप ही है (इति) ऐसा समझकर यदि कोई (कायक्लेशभयात्) शारीरिक क्लेशके भयसे अर्थात् कार्य करने को कष्ट मानकर कर्तव्य कर्मोंका (त्यजेत्) त्याग कर दे तो (सः) वह ऐसा (राजसम्) राजस (त्यागम्) त्याग (कृृत्वा) करके (त्यागफलम्) त्यागके फलको (एव) किसी प्रकार भी (न, लभेत्) नहीं पाता। (8)
हिन्दी: जो कुछ भक्ति साधना का व शरीर निर्वाह के लिए कर्म है दुःखरूप ही है ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेशके भयसे अर्थात् कार्य करने को कष्ट मानकर कर्तव्य कर्मोंका त्याग कर दे तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्यागके फलको किसी प्रकार भी नहीं पाता।
कार्यम्, इति, एव, यत्, कर्म, नियतम्, क्रियते, अर्जुन,
संगम्, त्यक्त्वा, फलम्, च, एव, सः, त्यागः, सात्त्विकः, मतः।।9।।
अनुवाद: (अर्जुन) हे अर्जुन! (यत्) जो (नियतम्) शास्त्रानुकूल (कर्म) कर्म (कार्यम्) करना कर्तव्य है (इति,एव) इसी भावसे (संगम्) आसक्ति (च) और (फलम्) फलका (त्यक्त्वा) त्याग करके (क्रियते) किया जाता है (सः,एव) वही (सात्त्विकः) सात्विक (त्यागः) त्याग (मतः) माना गया है। (9)
हिन्दी: हे अर्जुन! जो शास्त्रानुकूल कर्म करना कर्तव्य है इसी भावसे आसक्ति और फलका त्याग करके किया जाता है वही सात्विक त्याग माना गया है।
न, द्वेष्टि, अकुशलम्, कर्म, कुशले, न, अनुषज्जते,
त्यागी, सत्त्वसमाविष्टः, मेधावी, छिन्नसंशयः।।10।।
अनुवाद: (अकुशलम्) अकुशल (कर्म) कर्मसे तो (न,द्वेष्टि)) द्वेष नहीं करता और (कुशले) कुशल कर्ममें (न,अनुषज्जते) आसक्त नहीं होता वह (सत्त्वसमाविष्टः) सत्वगुणसे युक्त पुरुष (छिन्नसंशयः) संश्यरहित (मेधावी) बुद्धिमान् और (त्यागी) सच्चा त्यागी है। (10)
हिन्दी: अकुशल कर्मसे तो ) द्वेष नहीं करता और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता वह सत्वगुणसे युक्त पुरुष संश्यरहित बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है।
न, हि, देहभृता, शक्यम्, त्यक्तुम्, कर्माणि, अशेषतः,
यः, तु, कर्मफलत्यागी, सः, त्यागी, इति, अभिधीयते।।11।।
अनुवाद: (हि) क्योंकि (देहभृता) शरीरधारी किसी भी मनुष्यके द्वारा (अशेषतः) सम्पूर्णतासे (कर्माणि) सब कर्मोंका (त्यक्तुम्) त्याग किया जाना (न, शक्यम्) शक्य नहीं है (यः) जो (कर्मफलत्यागी) कर्मफलका त्यागी है (सः, तु) वही (त्यागी) त्यागी है (इति) यह (अभिधीयते) कहा जाता है। (11)
हिन्दी: क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्यके द्वारा सम्पूर्णतासे सब कर्मोंका त्याग किया जाना शक्य नहीं है जो कर्मफलका त्यागी है वही त्यागी है यह कहा जाता है।
यही प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 व 19 से 21 में है।
अनिष्टम्, इष्टम्, मिश्रम्, च, त्रिविधम्, कर्मणः, फलम्,
भवति, अत्यागिनाम्, प्रेत्य, न, तु, सóयासिनाम्, क्वचित्।।12।।
अनुवाद: (अत्यागिनाम्) कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंके (कर्मणः) कर्मोंका (इष्टम्) शुभ (अनिष्टम्) अशुभ (च) और (मिश्रम्) मिला हुआ (त्रिविधम्) तीन प्रकारका (फलम्) फल (प्रेत्य) मरनेके पश्चात् (भवति) होता है (तु) किंतु (सóयासिनाम्) कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका फल (क्वचित्) किसी कालमें भी (न) नहीं होता (पूर्ण मोक्ष हो जाता है)। (12)
हिन्दी: कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका शुभ अशुभ और मिला हुआ तीन प्रकारका फल मरनेके पश्चात् होता है किंतु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका फल किसी कालमें भी नहीं होता ।
पंच, एतानि, महाबाहो, कारणानि, निबोध, मे,
साङ्ख्ये, कृतान्ते, प्रोक्तानि, सिद्धये, सर्वकर्मणाम्।।13।।
अनुवाद: (महाबाहो) हे महाबाहो! (सर्वकर्मणाम्) सम्पूर्ण कर्मोंकी (सिद्धये) सिद्धिके (एतानि) ये (पंच) पाँच (कारणानि) हेतु (कृतान्ते) कर्मोंका अन्त करनेके लिये उपाय बतलानेवाले (साङ्ख्ये) सांख्यशास्त्रमें (प्रोक्तानि) कहे गये हैं उनको तू (मे) मुझसे (निबोध) भलीभाँति जान। (13)
हिन्दी: हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके ये पाँच हेतु कर्मोंका अन्त करनेके लिये उपाय बतलानेवाले सांख्यशास्त्रमें कहे गये हैं उनको तू मुझसे भलीभाँति जान।
अधिष्ठानम्, तथा, कर्ता, करणम्, च, पृथग्विधम्,
विविधाः, च, पृथक्, चेष्टाः, दैवम्, च, एव, अत्र, पंचमम्।। 14।।
अनुवाद: (अत्र) इस विषयमें अर्थात् कर्मोंकी सिद्धिमें (अधिष्ठानम्) अधिष्ठान (च) और (कर्ता) कत्र्ता (च) तथा (पृथग्विधम्) भिन्न-भिन्न प्रकारके (करणम्) करण (च) एवं (विविधाः) नाना प्रकारकी (पृथक्) अलग-अलग (चेष्टाः) चेष्टाएँ और (तथा) वैसे (एव) ही (पंचमम्) पाँचवाँ हेतु (दैवम्) दैव अर्थात् ईश्वरीय देन है। (14)
हिन्दी: इस विषयमें अर्थात् कर्मोंकी सिद्धिमें अधिष्ठान और कत्र्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकारके करण एवं नाना प्रकारकी अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव अर्थात् ईश्वरीय देन है।
शरीरवाङ्मनोभिः, यत्, कर्म, प्रारभते, नरः,
न्याय्यम्, वा, विपरीतम्, वा, पंच, एते, तस्य, हेतवः।। 15।।
अनुवाद: (नरः) मनुष्य (शरीरवाङ्मनोभिः) मन, वाणी और शरीरसे (न्याय्यम्) शास्त्रानुकूल (वा) अथवा (विपरीतम्,वा) विपरीत (यत्,कर्म) जो कुछ भी कर्म (प्रारभते) करता है (तस्य) उसके (एते) ये (पंच) पाँचों (हेतवः) कारण हैं। (15)
हिन्दी: मनुष्य मन, वाणी और शरीरसे शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है उसके ये पाँचों कारण हैं।
तत्र, एवम्, सति, कर्तारम्, आत्मानम्, केवलम्, तु, यः,
पश्यति, अकृतबुद्धित्वात्, न, सः, पश्यति, दुर्मतिः।।16।।
अनुवाद: (तु) परंतु (एवम्) ऐसा (सति) होनेपर भी (यः) जो मनुष्य (अकृतबुद्धित्वात्) अशुद्धबुद्धि होने के कारण (तत्र) उस विषयमें यानी कर्मोंके होनेमें (केवलम्) केवल (आत्मानम्) जीवात्मा अर्थात् जीव को (कर्तारम्) कत्र्ता (पश्यति) समझता है (सः) वह (दुर्मतिः) दुर्बुद्धिवाला अज्ञानी (न,पश्यति) यथार्थ नहीं समझता। (16)
हिन्दी: परंतु ऐसा होनेपर भी जो मनुष्य अशुद्धबुद्धि होने के कारण उस विषयमें यानी कर्मोंके होनेमें केवल जीवात्मा अर्थात् जीव को कत्र्ता समझता है वह दुर्बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता।
यस्य, न, अहङ्कृृतः, भावः, बुद्धिः, यस्य, न, लिप्यते,
हत्वा, अपि, सः, इमान्, लोकान्, न, हन्ति, न, निबध्यते।।17।।
अनुवाद: (यस्य) जिसे (अहङ्कृतः) ‘मैं कत्र्ता हूँ‘ ऐसा (भावः) भाव (न) नहीं है तथा (यस्य) जिसकी (बुद्धिः) बुद्धि (न, लिप्यते) लिपायमान नहीं होती (सः) वह (इमान्) इन (लोकान्) सब लोकोंको (हत्वा) मारकर (अपि) भी (न) न तो (हन्ति) मारता है और (न) न (निबध्यते) बँधता है। (17)
हिन्दी: जिसे ‘मैं कत्र्ता हूँ‘ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि लिपायमान नहीं होती वह इन सब लोकोंको मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है।
ज्ञानम्, ज्ञेयम्, परिज्ञाता, त्रिविधा, कर्मचोदना,
करणम्, कर्म, कर्ता, इति, त्रिविधः, कर्मसंग्रहः।।18।।
अनुवाद: (परिज्ञाता) ज्ञाता (ज्ञानम्) ज्ञान और (ज्ञेयम्) ज्ञेय (त्रिविधा) यह तीन प्रकारकी (कर्मचोदना) कर्म-प्रेरणा है और (कर्ता) कत्र्ता (करणम्) करनी तथा (कर्म) क्रिया (इति) यह (त्रिविधः) तीन प्रकारका (कर्मसंग्रहः) कर्म-संग्रह है। (18)
हिन्दी: ज्ञाता ज्ञान और ज्ञेय यह तीन प्रकारकी कर्म-प्रेरणा है और कत्र्ता करनी तथा क्रिया यह तीन प्रकारका कर्म-संग्रह है।
ज्ञानम्, कर्म, च, कर्ता, च, त्रिधा, एव, गुणभेदतः,
प्रोच्यते, गुणसङ्ख्याने, यथावत्, श्रृणु, तानि, अपि।।19।।
अनुवाद: (गुणसङ्ख्याने) गुणोंकी संख्या करनेवाले शास्त्रमें (ज्ञानम्) ज्ञान (च) और (कर्म) कर्म (च) तथा (कर्ता) कत्र्ता (गुणभेदतः) गुणोंके भेदसे (त्रिधा) तीन-तीन प्रकारके (एव) ही (प्रोच्यते) कहे गए हैं। (तानि) उनको (अपि) भी तू मुझसे (यथावत्) भलीभाँति (श्रृणु) सुन। (19)
हिन्दी: गुणोंकी संख्या करनेवाले शास्त्रमें ज्ञान और कर्म तथा कत्र्ता गुणोंके भेदसे तीन-तीन प्रकारके ही कहे गए हैं। उनको भी तू मुझसे भलीभाँति सुन।
सर्वभूतेषु, येन, एकम्, भावम्, अव्ययम्, ईक्षते,
अविभक्तम्, विभक्तेषु, तत्, ज्ञानम्, विद्धि, सात्त्विकम्।।20।।
अनुवाद: (येन) जिस ज्ञानसे मनुष्य (विभक्तेषु) पृथक्-पृथक् (सर्वभूतेषु) सब प्राणियोंमंि (एकम्) एक (अव्ययम्) अविनाशी परमात्मा (भावम्) भावको (अविभक्तम्) विभागरहित समभावसे स्थित (ईक्षते) देखता है (तत्) उस (ज्ञानम्) ज्ञानको तो तू (सात्त्विकम्) सात्विक (विद्धि) जान। (20)
हिन्दी: जिस ज्ञानसे मनुष्य पृथक्-पृथक् सब प्राणियोंमंि एक अविनाशी परमात्मा भावको विभागरहित समभावसे स्थित देखता है उस ज्ञानको तो तू सात्विक जान।
पृथक्त्वेन, तु, यत्, ज्ञानम्, नानाभावान्, पृथग्विधान्,
वेत्ति, सर्वेषु, भूतेषु, तत्, ज्ञानम्, विद्धि, राजसम्।।21।।
अनुवाद: (तु) किंतु (यत्) जो (ज्ञानम्) ज्ञान (सर्वेषु) सम्पूर्ण (भूतेषु) प्राणियोंमें (पृथग्विधान्) भिन्न-भिन्न प्रकारके (नानाभावान्) नाना भावोंको (पृृथक्त्वेन) अलग-अलग (वेत्ति) जानता है (तत्) उस (ज्ञानम्) ज्ञानको तू (राजसम्) राजस (विद्धि) जान। (21)
हिन्दी: किंतु जो ज्ञान सम्पूर्ण प्राणियोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारके नाना भावोंको अलग-अलग जानता है उस ज्ञानको तू राजस जान।
यत्, तु, कृत्स्न्नवत्, एकस्मिन्, कार्ये, सक्तम्, अहैतुकम्,
अतत्त्वार्थवत्, अल्पम्, च, तत्, तामसम्, उदाहृतम्।।22।।
अनुवाद: (तु) परंतु (यत्) जो ज्ञान (एकस्मिन्) एक (कार्ये) कार्यरूप शरीरमें ही (कृत्स्न्नवत्) सम्पूर्णके सदृश (सक्तम्) आसक्त है (च) तथा जो (अहैतुकम्) बिना युक्तिवाला (अतत्त्वार्थवत्) बिना सोचे व बिना कारण के (अल्पम्) तुच्छ है (तत्) वह (तामसम्) तामस (उदाहृतम्) कहा गया है। (22)
हिन्दी: परंतु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीरमें ही सम्पूर्णके सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला बिना सोचे व बिना कारण के तुच्छ है वह तामस कहा गया है।
नियतम्, संगरहितम्, अरागद्वेषतः, कृतम्,
अफलप्रेप्सुना, कर्म, यत्, तत्, सात्त्विकम्, उच्यते।।23।।
अनुवाद: (यत्) जो (कर्म) कर्म (नियतम्) शास्त्रानुकूल (संगरहितम्) कत्र्तापनके अभिमानसे रहित हो तथा (अफलप्रेप्सुना) फल न चाहनेवाले द्वारा (अरागद्वेषतः) बिना राग द्वेषके (कृृतम्) किया गया हो (तत्) वह (सात्त्विकम्) सात्विक (उच्यते) कहा जाता है। (23)
हिन्दी: जो कर्म शास्त्रानुकूल कत्र्तापनके अभिमानसे रहित हो तथा फल न चाहनेवाले द्वारा बिना राग द्वेषके किया गया हो वह सात्विक कहा जाता है।
यत्, तु, कामेप्सुना, कर्म, साहंकारेण, वा, पुनः,
क्रियते, बहुलायासम्, तत्, राजसम्, उदाहृतम्।।24।।
अनुवाद: (तु) परंतु (यत्) जो (कर्म) कर्म (बहुलायासम्) बहुत परिश्रमसे युक्त होता है (पुनः) तथा (कामेप्सुना) भोगोंको चाहनेवाले पुरुष (वा) या (साहंकारेण) अहंकारयुक्त (क्रियते) किया जाता है (तत्) वह कर्म (राजसम्) राजस (उदाहृतम्) कहा गया है। (24)
हिन्दी: परंतु जो कर्म बहुत परिश्रमसे युक्त होता है तथा भोगोंको चाहनेवाले पुरुष या अहंकारयुक्त किया जाता है वह कर्म राजस कहा गया है।
अनुबन्धम्, क्षयम्, हिंसाम् अनवेक्ष्य, च, पौरुषम्,
मोहात्, आरभ्यते, कर्म, यत्, तत्, तामसम्, उच्यते।।25।।
अनुवाद: (यत्) जो (कर्म) कर्म (अनुबन्धम्) परिणाम (क्षयम्) हानि (हिंसाम्) हिंसा (च) और (पौरुषम्) सामथ्र्यको (अनवेक्ष्य) न विचारकर (मोहात्) केवल अज्ञानसे (आरभ्यते) आरम्भ किया जाता है (तत्) वह कर्म (तामसम्) तामस (उच्यते) कहा जाता है। (25)
हिन्दी: जो कर्म परिणाम हानि हिंसा और सामथ्र्यको न विचारकर केवल अज्ञानसे आरम्भ किया जाता है वह कर्म तामस कहा जाता है।
मुक्तसंगः, अनहंवादी, धृत्युत्साहसमन्वितः,
सिद्धयसिद्धयोः, निर्विकारः, कर्ता, सात्त्विकः, उच्यते।।26।।
अनुवाद: (कर्ता) कत्र्ता (मुक्तसंगः) संगरहित (अनहंवादी) अहंकारके वचन न बोलनेवाला (धृत्युत्साहसमन्वितः) धैर्य और उत्साहसे युक्त तथा (सिद्धयसिद्धयोः) कार्यके सिद्ध होने और न होनेमें (निर्विकारः) विकारोंसे रहित (सात्त्विकः) सात्विक (उच्यते) कहा जाता है। (26)
हिन्दी: कत्र्ता संगरहित अहंकारके वचन न बोलनेवाला धैर्य और उत्साहसे युक्त तथा कार्यके सिद्ध होने और न होनेमें विकारोंसे रहित सात्विक कहा जाता है।
रागी, कर्मफलप्रेप्सुः, लुब्धः, हिंसात्मकः, अशुचिः,
हर्षशोकान्वितः, कर्ता, राजसः, परिकीर्तितः।।27।।
अनुवाद: (कर्ता) कत्र्ता (रागी) आसक्तिसे युक्त (कर्मफलपे्रप्सुः) कर्मोंके फलको चाहनेवाला और (लुब्धः) लोभी है तथा (हिंसात्मकः) दूसरों को कष्ट देनेके स्वभाववाला (अशुचिः) अशुद्धाचारी और (हर्षशोकान्वितः) हर्ष-शोकसे लिप्त है वह (राजसः) राजस (परिकीर्तितः) कहा गया है। (27)
हिन्दी: कत्र्ता आसक्तिसे युक्त कर्मोंके फलको चाहनेवाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देनेके स्वभाववाला अशुद्धाचारी और हर्ष-शोकसे लिप्त है वह राजस कहा गया है।
अयुक्तः, प्राकृतः, स्तब्धः, शठः, नैष्कृतिकः, अलसः,
विषादी, दीर्घसूत्री, च, कर्ता, तामसः, उच्यते।।28।।
अनुवाद: (कर्ता) कत्र्ता (अयुक्तः) अयुक्त (प्राकृतः) स्वभाविक (स्तब्धः) घमण्डी (शठः) धूर्त (नैष्कृतिकः) और दूसरों की जीविकाका नाश करनेवाला तथा (विषादी) शोक करनेवाला (अलसः) आलसी (च) और (दीर्घसूत्री) आज के कार्य को कल पर छोड़ना (तामसः) तामस (उच्यते) कहा जाता है। (28)
हिन्दी: कत्र्ता अयुक्त स्वभाविक घमण्डी धूर्त और दूसरों की जीविकाका नाश करनेवाला तथा शोक करनेवाला आलसी और आज के कार्य को कल पर छोड़ना तामस कहा जाता है।
बुद्धेः, भेदम्, धृतेः, च, एव, गुणतः, त्रिविधम्, श्रृणु,
प्रोच्यमानम्, अशेषेण, पृृथक्त्वेन, धनंजय।। 29।।
अनुवाद: (धनंजय) हे धनंजय! अब तू (बुद्धेः) बुद्धिका (च) और (धृतेः) धृतिका (एव) भी (गुणतः) गुणोंके अनुसार (त्रिविधम्) तीन प्रकारका (भेदम्) भेद मेरे द्वारा (अशेषेण) सम्पूर्णतासे (पृथक्त्वेन) विभागपूर्वक (प्रोच्यमानम्) कहा जानेवाला (श्रृणु) सुन। (29)
हिन्दी: हे धनंजय! अब तू बुद्धिका और धृतिका भी गुणोंके अनुसार तीन प्रकारका भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णतासे विभागपूर्वक कहा जानेवाला सुन।
प्रवृत्तिम्, च, निवृत्तिम्, च, कार्याकार्ये, भयाभये,
बन्धम्, मोक्षम्, च, या, वेति, बुद्धिः, सा, पार्थ, सात्त्विकी।।30।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (या) जो बुद्धि (प्रवृत्तिम्) प्रवृतिमार्ग (च) और (निवृत्तिम्) निवृतिमार्गको (कार्याकार्ये) कर्तव्य और अकर्तव्यको (भयाभये) भय और अभयको (च) तथा (बन्धम्) बन्धन (च) और (मोक्षम्) मोक्षको (वेत्ति) यथार्थ जानती है (सा) वह (बुद्धिः) बुद्धि (सात्त्विकी) सात्विकी है। (30)
हिन्दी: हे पार्थ! जो बुद्धि प्रवृतिमार्ग और निवृतिमार्गको कर्तव्य और अकर्तव्यको भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको यथार्थ जानती है वह बुद्धि सात्विकी है।
यया, धर्मम्, अधर्मम्, च, कार्यम्, च, अकार्यम्, एव, च,
अयथावत्, प्रजानाति, बुद्धिः, सा, पार्थ, राजसी।।31।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! मनुष्य (यया) जिस बुद्धिके द्वारा (धर्मम्) धर्म (च) और (अधर्मम्) अधर्मको (च) तथा (कार्यम्) कर्तव्य (च) और (अकार्यम्) अकर्तव्यको (एव) भी (अयथावत्) यथार्थ नहीं (प्रजानाति) जानता (सा) वह (बुद्धिः) बुद्धि (राजसी) राजसी है। (31)
हिन्दी: हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धिके द्वारा धर्म और अधर्मको तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको भी यथार्थ नहीं जानता वह बुद्धि राजसी है।
अधर्मम्, धर्मम्, इति, या, मन्यते, तमसा, आवृता,
सर्वार्थान्, विपरीतान्, च, बुद्धिः, सा, पार्थ, तामसी।।32।।
अनुवाद: (पार्थ) हे अर्जुन! (या) जो (तमसा) तमोगण्ुासे (आवृृता) घिरी हुई बुद्धि (अधर्मम्) अर्धमको भी (धर्मम्) ‘यह धर्म है‘ (इति) ऐसा मान लेती है (च) तथा इसी प्रकार अन्य (सर्वार्थान्) सम्पूर्ण पदार्थोको भी (विपरीतान्) विपरीत (मन्यते) मान लेती है (सा) वह (बुद्धिः) बुद्धि (तामसी) तामसी है। (32)
हिन्दी: हे अर्जुन! जो तमोगण्ुासे घिरी हुई बुद्धि अर्धमको भी ‘यह धर्म है‘ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सम्पूर्ण पदार्थोको भी विपरीत मान लेती है वह बुद्धि तामसी है।
धृृत्या, यया, धारयते, मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः,
योगेन, अव्यभिचारिण्या, धृतिः, सा, पार्थ, सात्त्विकी।।33।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (यया) जिस (अव्यभिचारिण्या) अव्यभिचारिणी एक इष्ट पर आधारित (धृत्या) धारणशक्तिसे मनुष्य (योगेन) भक्तियोगके द्वारा (मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः) मन, स्वांस और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको (धारयते) धारण करता है (सा) वह (धृतिः) धृति (सात्त्विकी) सात्विकी है। (33)
हिन्दी: हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी एक इष्ट पर आधारित धारणशक्तिसे मनुष्य भक्तियोगके द्वारा मन, स्वांस और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको धारण करता है वह धृति सात्विकी है।
यया, तु, धर्मकामार्थान्, धृत्या, धारयते, अर्जुन,
प्रसंगेन, फलाकाङ्क्षी, धृृतिः, सा, पार्थ, राजसी।।34।।
अनुवाद: (तु) परंतु (पार्थ) हे पृथापुत्र (अर्जुन) अर्जुन! (फलाकाङ्क्षी) फलकी इच्छावाला मनुष्य (यया) जिस (धृत्या) धारणशक्तिके द्वारा (प्रसंगेन) अत्यन्त आसक्तिसे (धर्मकामार्थान्) धर्म, अर्थ और कामोंको (धारयते) धारण करता है (सा) वह (धृतिः) धारणभक्ति (राजसी) राजसी है। (34)
हिन्दी: परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फलकी इच्छावाला मनुष्य जिस धारणशक्तिके द्वारा अत्यन्त आसक्तिसे धर्म, अर्थ और कामोंको धारण करता है वह धारणभक्ति राजसी है।
यया, स्वप्नम्, भयम्, शोकम्, विषादम्, मदम् एव, च,
न, विमु×चति, दुर्मेधाः, ध ृृतिः, सा, पार्थ, तामसी।।35।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (दुर्मेधाः) नीच स्वभाव वाला (यया) जिस (स्पप्नम्) निंद्रा (भयम्) भय (शोकम्) चिन्ता (च) और (विषादम्) दुःखको तथा (मदम्) नशे को (एव)भी (न,विमु×चति)नहीं छोड़ता (सा)वह (धृतिः)भक्तिधारणा (तामसी) तामसी है। (35)
हिन्दी: हे पार्थ! नीच स्वभाव वाला जिस निंद्रा भय चिन्ता और दुःखको तथा नशे को भी नहीं छोड़ता वह भक्तिधारणा तामसी है।
सुखम्, तु, इदानीम्, त्रिविधम्, श्रृणु, मे, भरतर्षभ,
अभ्यासात्, रमते, यत्र, दुःखान्तम्, च, निगच्छति।।36।।
यत्, तत्, अग्रे, विषम्, इव, परिणामे, अमृतोपमम्,
तत्, सुखम्, सात्त्विकम्, प्रोक्तम्, आत्मबुद्धिप्रसादजम्।।37।।
अनुवाद: (भरतर्षभ) हे भरतश्रेष्ठ! (इदानीम्) अब (त्रिविधम्) तीन प्रकारके (सुखम्) सुखको (तु) भी तू (मे) मुझसे (श्रृृणु) सुन। (यत्र) जिस (अभ्यासात्) भजन अभ्यासमें (रमते) लीन रहता है (च) और जिससे (दुःखान्तम्) दुःखोंके अन्तको (निगच्छति) प्राप्त हो जाता है (यत्) जो ऐसा सुख है (तत्) वह (अग्रे) आरम्भकालमें यद्यपि (विषम्) विषके (इव) तुल्य प्रतीत होता है परंतु (परिणामे) परिणाममें (अमृृतोपमम्) अमृृतके तुल्य है इसलिये (तत्) वह (आत्मबुद्धिप्रसादजम्) परमात्मविषयक बुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाला (सुखम्) सुख (सात्त्विकम्) सात्विक (प्रोक्तम्) कहा गया है। (36-37)
हिन्दी: हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकारके सुखको भी तू मुझसे सुन। जिस भजन अभ्यासमें लीन रहता है और जिससे दुःखोंके अन्तको प्राप्त हो जाता है जो ऐसा सुख है वह आरम्भकालमें यद्यपि विषके तुल्य प्रतीत होता है परंतु परिणाममें अमृतके तुल्य है इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाला सुख सात्विक कहा गया है।
विषयेन्द्रियसंयोगात्, यत्, तत्, अगे्र, अमृतोपमम्,
परिणामे, विषम्, इव, तत्, सुखम्, राजसम्, स्मृतम्।।38।।
अनुवाद: (यत्) जो (सुखम्) सुख (विषयेन्द्रियसंयोगात्) विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है (तत्) वह (अगे्र) पहले भोगकालमें (अमृृतोपमम्) अमृतके तुल्य प्रतीत होनेपर भी (परिणामे) परिणाममें (विषम्) विषके (इव) तुल्य है इसलिये (तत्) वह सुख (राजसम्) राजस (स्मृतम्) कहा गया है। (38)
हिन्दी: जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है वह पहले भोगकालमें अमृतके तुल्य प्रतीत होनेपर भी परिणाममें विषके तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।
यत्, अग्रे, च, अनुबन्धे, च, सुखम् मोहनम्, आत्मनः,
निद्रालस्यप्रमादोत्थम्, तत्, तामसम्, उदाहृतम्।।39।।
अनुवाद: (यत्) जो (सुखम्) सुख (च) तथा (अग्रे) पहले भोगकालमें (च) तथा (अनुबन्धे) परिणाममें (आत्मनः) आत्माको (मोहनम्) मोहित करनेवाला है (तत्) वह (निद्रालस्यप्रमादोत्थम्) निंद्रा आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख (तामसम्) तामस (उदाहृतम्) कहा गया है। (39)
हिन्दी: जो सुख तथा पहले भोगकालमें तथा परिणाममें आत्माको मोहित करनेवाला है वह निंद्रा आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है।
न, तत्, अस्ति, पृथिव्याम्, वा, दिवि, देवेषु, वा, पुनः,
सत्त्वम्, प्रकृतिजैः, मुक्तम्, यत्, एभिः, स्यात्, त्रिभिः, गुणैः।।40।।
अनुवाद: (पृृथिव्याम्) पृृथ्वीमें (वा) या (दिवि) आकाशमें (वा) अथवा (देवेषु) देवताओंमें (पुनः) फिर कहीं भी (तत्) वह ऐसा कोई भी (सत्त्वम्) सत्व (न) नहीं (अस्ति) है (यत्) जो (प्रकृृतिजैः) प्रकृृतिसे उत्पन्न (एभिः) इन (त्रिभिः) तीनों (गुणैः) गुणोंसे (मुक्तम्) रहित (स्यात्) हो। (40)
हिन्दी: पृथ्वीमें या आकाशमें अथवा देवताओंमें फिर कहीं भी वह ऐसा कोई भी सत्व नहीं है जो प्रकृृतिसे उत्पन्न इन तीनों गुणोंसे रहित हो।
ब्राह्मणक्षत्रियविशाम्, शूद्राणाम्, च, परन्तप,
कर्माणि, प्रविभक्तानि, स्वभावप्रभवैः, गुणैः।।41।।
अनुवाद: (परन्तप) हे परन्तप! (ब्राह्मणक्षत्रियविशाम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके (च) तथा (शूद्राणाम्) शूद्रोंके (कर्माणि) कर्म (स्वभावप्रभवैः) स्वभावसे उत्पन्न (गुणैः) गुणोंके द्वारा (प्रविभक्तानि) विभक्त किये गये हैं। (41)
हिन्दी: हे परन्तप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके तथा शूद्रोंके कर्म स्वभावसे उत्पन्न गुणोंके द्वारा विभक्त किये गये हैं।
शमः, दमः, तपः, शौचम्, क्षान्तिः, आर्जवम्, एव, च,
ज्ञानम्, विज्ञानम्, आस्तिक्यम्, ब्रह्मकर्म, स्वभावजम्।।42।।
अनुवाद: (शमः) छूआ छूत रहित तथा सुख दुःख को प्रभु कृप्या जानना (दमः) इन्द्रियोंका दमन करना (तपः) धार्मिंक नियमों के पालनके लिये कष्ट सहना (शौचम्) बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना अर्थात् छलकपट रहित रहना (क्षान्तिः) दूसरोंके अपराधोंको क्षमा करना (आर्जवम्) मन, इन्द्रिय और शरीरको सरल रखना (आस्तिक्यम्) शास्त्र विधि अनुसार भक्ति से परमेश्वर तथा उसके सत्लोक में श्रद्धा रखना (ज्ञानम्) प्रभु भक्ति बहुत आवश्यक है। नहीं तो मानव जीवन व्यर्थ है, यह साधारण ज्ञान तथा पूर्ण परमात्मा कौन है, कैसा है? उसकी प्राप्ति की विधि क्या है इस प्रकार का ज्ञान (च) और (विज्ञानम्) परमात्माके तत्वज्ञान को जानना तथा अन्य तीनों वर्णों को शास्त्र विधि अनुसार साधना समझाना (एव) ही (ब्रह्मकर्म) ब्रह्म के विषय में कत्र्तव्य कर्म को जानने वाले ब्रह्मण के कर्म हैं। जो (स्वभावजम्) स्वभाव जनित होते हैं क्योंकि भगवान प्राप्ति के विषय में भक्त के स्वाभाविक कर्म हैं। (42)
हिन्दी: छूआ छूत रहित तथा सुख दुःख को प्रभु कृप्या जानना इन्द्रियोंका दमन करना धार्मिंक नियमों के पालनके लिये कष्ट सहना बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना अर्थात् छलकपट रहित रहना दूसरोंके अपराधोंको क्षमा करना मन, इन्द्रिय और शरीरको सरल रखना शास्त्र विधि अनुसार भक्ति से परमेश्वर तथा उसके सत्लोक में श्रद्धा रखना प्रभु भक्ति बहुत आवश्यक है। नहीं तो मानव जीवन व्यर्थ है, यह साधारण ज्ञान तथा पूर्ण परमात्मा कौन है, कैसा है? उसकी प्राप्ति की विधि क्या है इस प्रकार का ज्ञान और परमात्माके तत्वज्ञान को जानना तथा अन्य तीनों वर्णों को शास्त्र विधि अनुसार साधना समझाना ही ब्रह्म के विषय में कत्र्तव्य कर्म को जानने वाले ब्रह्मण के कर्म हैं। जो स्वभाव जनित होते हैं क्योंकि भगवान प्राप्ति के विषय में भक्त के स्वाभाविक कर्म हैं।
शौर्यम्, तेजः, धृतिः, दाक्ष्यम्, युद्धे, च, अपि, अपलायनम्,
दानम्, ईश्वरभावः, च, क्षात्राम्, कर्म, स्वभावजम्।।43।।
अनुवाद: (शौर्यम्) शूर-वीरता (तेजः) तेज (धृृतिः) धैर्य (दाक्ष्यम्) चतुरता (च) और (युद्धे) युद्धमें (अपि) भी (अपलायनम्) न भागना (दानम्) दान देना (च) और (ईश्वरभावः) पूर्ण परमात्मामंे रूचि स्वामिभाव ये सब के सब ही (क्षात्राम्) क्षत्रियके (स्वभावजम्) स्वाभाविक (कर्म) कर्म हैं। (43)
हिन्दी: शूर-वीरता तेज धैर्य चतुरता और युद्धमें भी न भागना दान देना और पूर्ण परमात्मामंे रूचि स्वामिभाव ये सब के सब ही क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं।
कृृषिगौरक्ष्यवाणिज्यम्, वैश्यकर्म, स्वभावजम्,
परिचर्यात्मकम्, कर्म, शूद्रस्य, अपि, स्वभावजम्।।44।।
अनुवाद: (कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यम्) खेती, गऊ रक्षा और उदर के लिए परमात्मा प्राप्ति का सौदा करना ये (वैश्यकर्म, स्वभावजम्) वैश्यके स्वाभाविक कर्म हैं तथा (परिचर्यात्मकम्) सब वर्णोंकी सेवा तथा पूर्ण प्रभु की भक्ति करना (शूद्रस्य) शूद्रका (अपि) भी (स्वभावजम्) स्वाभाविक (कर्म) कर्म है। (44)
हिन्दी: खेती, गऊ रक्षा और उदर के लिए परमात्मा प्राप्ति का सौदा करना ये वैश्यके स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णोंकी सेवा तथा पूर्ण प्रभु की भक्ति करना शूद्रका भी स्वाभाविक कर्म है।
स्वे, स्वे, कर्मणि, अभिरतः, संसिद्धिम्, लभते, नरः,
स्वकर्मनिरतः, सिद्धिम्, यथा, विन्दति, तत्, श्रृृणु।।45।।
अनुवाद: (स्वे,स्वे) अपने-अपने स्वाभाविक (कर्मणि) व्यवहारिक कर्मों तथा सत् भक्ति रूपी कर्मों में (अभिरतः) तत्परतासे लगा हुआ (नरः) मनुष्य (संसिद्धिम्) परम सिद्धिको (लभते) प्राप्त हो जाता है (स्वकर्मनिरतः) अपने स्वाभाविक कर्ममें लगा हुआ मनुष्य (यथा) जिस प्रकारसे (सिद्धिम्) परम सिद्धिको (विन्दति) प्राप्त होता है (तत्) उस विधिको तू (श्रृणु) सुन। (45)
हिन्दी: अपने-अपने स्वाभाविक व्यवहारिक कर्मों तथा सत् भक्ति रूपी कर्मों में तत्परतासे लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है अपने स्वाभाविक कर्ममें लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकारसे परम सिद्धिको प्राप्त होता है उस विधिको तू सुन।
यतः, प्रवृत्तिः, भूतानाम्, येन्, सर्वम्, इदम्, ततम्,
स्वकर्मणा, तम्, अभ्यच्र्य, सिद्धिं, विन्दति, मानवः।।46।।
अनुवाद: (यतः) जिस परमेश्वरसे (भूतानाम्) सम्पूर्ण प्राणियोंकी (प्रवृृतिः) उत्पत्ति हुई है और (येन) जिससे (इदम्) यह (तम्) माया रूप (सर्वम्) समस्त जगत् (ततम्) व्याप्त है उस परमेश्वरकी (स्वकर्मणा) अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा अर्थात् हठ योग न करके सांसारिक कार्य करता हुआ (अभ्यच्र्य) पूजा करके (मानवः) मनुष्य (सिद्धिम्) सिद्धिको (विन्दति) प्राप्त हो जाता है। (46)
हिन्दी: जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह माया रूप समस्त जगत् व्याप्त है उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा अर्थात् हठ योग न करके सांसारिक कार्य करता हुआ पूजा करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वभावनियतम्, कर्म, कुर्वन्, न, आप्नोति, किल्बिषम्।।47।।
अनुवाद: (विगुणः) गुण रहित (स्वनुष्ठितात्) स्वयं मनमाना अर्थात् शास्त्र विधि रहित अच्छी प्रकार आचरण किए हुए (परधर्मात्) दूसरेके धर्म अर्थात् धार्मिक पूजा से (स्वधर्मः) अपना धर्म अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार धार्मिक पूजा (श्रेयान्) श्रेष्ठ है (स्वभावनियतम्) अपने वर्ण के स्वभाविक अर्थात् जो भी जिस क्षत्री, वैश्य, ब्राह्मण व शुद्र वर्ण में उत्पन्न है (कर्म) कर्म तथा भक्ति कर्म (कुर्वन्) करता हुआ (किल्बिषम्) पापको (न आप्नोति) प्राप्त नहीं होता। (47)
हिन्दी: गुण रहित स्वयं मनमाना अर्थात् शास्त्र विधि रहित अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरेके धर्म अर्थात् धार्मिक पूजा से अपना धर्म अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार धार्मिक पूजा श्रेष्ठ है अपने वर्ण के स्वभाविक अर्थात् जो भी जिस क्षत्री, वैश्य, ब्राह्मण व शुद्र वर्ण में उत्पन्न है कर्म तथा भक्ति कर्म करता हुआ पापको प्राप्त नहीं होता।
सहजम्, कर्म, कौन्तेय, सदोषम्, अपि, न, त्यजेत्,
सर्वारम्भाः, हि, दोषेण, धूमेन, अग्निः, इव, आवृताः।।48।।
अनुवाद: (कौन्तेय) हे कुन्तीपुत्र! (सदोषम्) दोष युक्त होने पर (अपि) भी (सहजम्) सहज योग अर्थात् वर्णानुसार कार्य करते हुए शास्त्र विधि अनुसार भक्ति (कर्म) कर्मको (न) नहीं (त्यजेत्) त्यागना चाहिए (हि) क्योंकि (धूमेन) धूएँसे (अग्निः) अग्निकी (इव) भाँति (सर्वारम्भाः) सभी कर्म (दोषेण) दोषसे (आवृृताः) युक्त हैं। (48)
हिन्दी: हे कुन्तीपुत्र! दोष युक्त होने पर भी सहज योग अर्थात् वर्णानुसार कार्य करते हुए शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्मको नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धूएँसे अग्निकी भाँति सभी कर्म दोषसे युक्त हैं।
भावार्थ:-- जिस भी व्यक्ति का जिस वर्ण (ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीव शुद्र कुल) में जन्म है उस के कर्म में पाप भी समाया है। जैसे ब्राह्मण हवन करता है उसमें प्राणियों कि हिंसा होती है। वैश्य खेती व व्यापार करता है, क्षत्री शत्रु से युद्ध करता है। शुद्र सफाई आदि सेवा करता है। प्रत्येक कर्म में हिंसा होती है। फिर भी त्यागने योग्य कर्म नहीं है। क्योंकि इन कर्मों में हिंसा करना उद्देश्य नहीं होता। यदि देखा जाए तो सर्व उपरोक्त कर्म दोष युक्त हैं। तो भी प्रभु आज्ञा होने से कत्र्तव्य कर्म हैं। यही प्रमाण अध्याय 4 श्लोक 21 में है कि शरीर समबन्धि कर्म करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता। गीता अध्याय 18 श्लोक 56 में भी है।
असक्तबुद्धिः, सर्वत्र, जितात्मा, विगतस्पृहः,
नैष्कम्र्यसिद्धिम्, परमाम्, सóयासेन, अधिगच्छति।।49।।
अनुवाद: (सर्वत्र) सर्वत्र (असक्तबुद्धिः) आसक्तिरहित बुद्धिवाला (विगतस्पृृहः) स्पृहारहित और (जितात्मा) बुरे कर्मों से विजय प्राप्त भक्त आत्मा (सóयासेन) तत्व ज्ञान के अतिरिक्त सर्व ज्ञनों से सन्यास प्राप्त करने वाले द्वारा (परमाम्) उस परम अर्थात् सर्व श्रेष्ठ (नैष्कम्र्यसिद्धिम्) पूर्ण पाप विनाश होने पर जो पूर्ण मुक्ति होती है, उस सिद्धि अर्थात् परमगति को (अधिगच्छति) प्राप्त होता है। (49)
हिन्दी: सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला स्पृहारहित और बुरे कर्मों से विजय प्राप्त भक्त आत्मा तत्व ज्ञान के अतिरिक्त सर्व ज्ञनों से सन्यास प्राप्त करने वाले द्वारा उस परम अर्थात् सर्व श्रेष्ठ पूर्ण पाप विनाश होने पर जो पूर्ण मुक्ति होती है, उस सिद्धि अर्थात् परमगति को प्राप्त होता है।
सिद्धिम्, प्राप्तः, यथा, ब्रह्म, तथा, आप्नोति, निबोध, मे,
समासेन, एव, कौन्तेय, निष्ठा, ज्ञानस्य, या, परा।।50।।
अनुवाद: (या) जो कि (ज्ञानस्य) ज्ञानकी (परा) श्रेष्ठ (निष्ठा) उपलब्धि है (सिद्धिम्) उस नैष्कम्र्यसिद्धिको (यथा) जिसे (प्राप्तः) प्राप्त होकर (ब्रह्म) परमात्मा को (आप्नोति) प्राप्त होता ह (तथा) उस प्रकारको (कौन्तेय) हे कुन्तीपुत्र! तू (समासेन) संक्षेपमें (एव) ही (मे) मुझसे (निबोध) समझ। (50)
हिन्दी: जो कि ज्ञानकी श्रेष्ठ उपलब्धि है उस नैष्कम्र्यसिद्धिको जिसे प्राप्त होकर परमात्मा को प्राप्त होता ह उस प्रकारको हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेपमें ही मुझसे समझ।
बुद्धया, विशुद्धया, युक्तः, धृृत्या, आत्मानम्, नियम्य, च,
शब्दादीन्, विषयान्, त्यक्त्वा, रागद्वेषौ, व्युदस्य, च।।51।।
अनुवाद: (विशुद्धया) विशुद्ध (बुद्धया) बुद्धिसे (युक्तः) युक्त (च) तथा (धृत्या) सात्विक धारण शक्ति के द्वारा (आत्मानम् नियम्य) अपने आप को संयमी करके (च) और (शब्दादीन्) शब्दादी (विषयान्) विकारों को (त्यक्त्वा) त्यागकर (रागद्वेषौ) राग द्वेष को (व्युदस्य) सर्वदा नष्ट करके (51)
हिन्दी: विशुद्ध बुद्धिसे युक्त तथा सात्विक धारण शक्ति के द्वारा अपने आप को संयमी करके और शब्दादी विकारों को त्यागकर राग द्वेष को सर्वदा नष्ट करके
विविक्तसेवी, लघ्वाशी, यतवाक्कायमानसः,
ध्यानयोगपरः, नित्यम्, वैराग्यम्, समुपाश्रितः।।52।।
(लघ्वाशी) अन्न जल का संयमी (विविक्त सेवी) व्यर्थ वार्ता से बच कर एकान्त प्रेमी (यत वाक् काय मानसः) मन-कर्म वचन पर संयम करने वाला (नित्यम्) निरन्तर (ध्यान योग परः) सहज ध्यान योग के प्रायाण (वैराग्यम्) वैराग्य का (समुपाश्रितः) आश्रय लेने वाला (52)
हिन्दी: अन्न जल का संयमी व्यर्थ वार्ता से बच कर एकान्त प्रेमी मन-कर्म वचन पर संयम करने वाला निरन्तर सहज ध्यान योग के प्रायाण वैराग्य का आश्रय लेने वाला
अहंकारम्, बलम्, दर्पम्, कामम्, क्रोधम्, परिग्रहम्,
विमुच्य निर्ममः, शान्तः, ब्रह्मभूयाय, कल्पते।।53।।
अनुवाद:-- (अहंकारम्) अहंकार (बलम्) शक्ति (दर्पम्) घमण्ड (कामम्) काम अर्थात् विलास (क्रोधम्) क्रोध (परिग्रहम्) परिग्रह अर्थात् आवश्यकता से अधिक संग्रह का (विमुच्य) त्याग करके (निर्ममः) ममता रहित (शान्तः) शान्त साधक (ब्रह्मभूयाय) पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने का (कल्पते) पात्र होता है। (53)
हिन्दी: अहंकार शक्ति घमण्ड काम अर्थात् विलास क्रोध परिग्रह अर्थात् आवश्यकता से अधिक संग्रह का त्याग करके ममता रहित शान्त साधक पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने का पात्र होता है।
ब्रह्मभूतः, प्रसन्नात्मा, न, शोचति, न, काङ्क्षति,
समः, सर्वेषु, भूतेषु, मद्भक्तिम्, लभते, पराम्।।54।।
अनुावद: (ब्रह्मभूतः) परमात्मा प्राप्ति योग्य हुआ प्राणी (प्रसन्नात्मा) प्रसन्न मनवाला योगी (न) न (शोचति) शोक करता है (न) न (काक्षंति) आकांक्षा ही करता है ऐसा (सर्वेषु) समस्त (भूतेषु) प्राणियोंमें (समः) एक जैसा भाव वाला (पराम्,मद्भक्तिम्) मेरे वाली शास्त्रानुकूल श्रेष्ठ भक्ति को (लभते) प्राप्त हो जाता है। (54)
हिन्दी: परमात्मा प्राप्ति योग्य हुआ प्राणी प्रसन्न मनवाला योगी न शोक करता है न आकांक्षा ही करता है ऐसा समस्त प्राणियोंमें एक जैसा भाव वाला मेरे वाली शास्त्रानुकूल श्रेष्ठ भक्ति को प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ:-- इस श्लोक 54 का भावार्थ है कि जो प्रथम ब्रह्म गायत्री मन्त्र साधक को प्रदान किया जाता है जिस से सर्व कमल चक्र खुल जाते हैं अर्थात् कुण्डलनि शक्ति जागृृत हो जाती है वह उपासक परमात्मा प्राप्ति का पात्र बन जाता है। उस सुपात्र को ब्रह्म काल की परम भक्ति का मन्त्र ओं (ॐ) दिया जाता है। ओम्$तत् मिलकर दो अक्षर का सत्यनाम बनता है। इससे पूर्ण मोक्ष मार्ग प्रारम्भ होता है। इसलिए इस गीता अध्याय 18 श्लोक 54 में वर्णन है।
भक्त्या, माम्, अभिजानाति, यावान्, यः, च, अस्मि, तत्त्वतः,
ततः, माम्, तत्त्वतः, ज्ञात्वा, विशते, तदनन्तरम्।।55।।
अनुवाद: (भक्त्या) वह भक्त (माम्) मुझ को (यः) जो (च) और (यावान्) जितना (अस्मि) हूँ, (तत्त्वतः, अभिजानाति) ठीक वैसा का वैसा तत्वसे जान लेता है तथा (ततः) उस भक्तिसे (माम्) मुझको (तत्त्वतः) तत्वसे (ज्ञात्वा) जानकर (तदनन्तरम्) तत्काल ही (विशते) पूर्ण परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाता है। (55)
हिन्दी: वह भक्त मुझ को जो और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा तत्वसे जान लेता है तथा उस भक्तिसे मुझको तत्वसे जानकर तत्काल ही पूर्ण परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाता है।
सर्वकर्माणि, अपि, सदा, कुर्वाणः, मद्व्यपाश्रयः,
मत्प्रसादात्, अवाप्नोति, शाश्वतम्, पदम्, अव्ययम्।।56।।
अनुवाद: (मद्व्यपाश्रयः) मेरे द्वारा बताए शास्त्रानुकूल मार्ग के आश्रित अर्थात् मतावलम्बी (सर्वकर्माणि) सम्पूर्ण कर्मोंको (सदा) सदा (कुर्वाणः) करता हुआ (अपि) भी (मत्प्रसादात्) मेरे उस मत अर्थात् शास्त्रानुकूल साधना के पूर्ण ज्ञान की कृृप्यासे (शाश्वतम्) सनातन (अव्ययम्) अविनाशी (पदम्) पदको (अवाप्नोति) प्राप्त हो जाता है। (56)
हिन्दी: मेरे द्वारा बताए शास्त्रानुकूल मार्ग के आश्रित अर्थात् मतावलम्बी सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरे उस मत अर्थात् शास्त्रानुकूल साधना के पूर्ण ज्ञान की कृृप्यासे सनातन अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है।
नोट: मत का भाव है कि जैसे कहते हैं कि संतमत सतसंग अर्थात् संतों द्वारा दिए गए विचारों के आधार पर परमात्मा का विवरण (सतसंग)। मत का अर्थात् प्रकरण अनुसार मेरा भी होता है।
चेतसा, सर्वकर्माणि, मयि, सóयस्य, मत्परः,
बुद्धियोगम्, उपाश्रित्य, मच्चित्तः, सततम्, भव।।57।।
अनुवाद: (सर्वकर्माणि) सब कर्मोंको (चेतसा) मनसे (सóयस्य) त्याग कर तथा (बुद्धियोगम्) ज्ञान योगको (उपाश्रित्य) आश्रय करके (मयि) मेरे (मत्परः) मत पर आधारित होकर और (सततम्) निरन्तर (मच्चित्तः) मेरे में चितवाला (भव) हो। (57)
हिन्दी: सब कर्मोंको मनसे त्याग कर तथा ज्ञान योगको आश्रय करके मेरे मत पर आधारित होकर और निरन्तर मेरे में चितवाला हो।
मच्चित्तः, सर्वदुर्गाणि, मत्प्रसादात्, तरिष्यसि,
अथ, चेत्, त्वम्, अहंकारात्, न, श्रोष्यसि, विनङ्क्ष्यसि।।58।।
अनुवाद: (मच्चितः) मेरे में चितवाला होकर (त्वम्) तू (मत्प्रसादात्) मेरे द्वारा बताई शास्त्रानुकूल विचार धारा की कृप्यासे (सर्वदुर्गाणि) समस्त संकटोंको अनायास ही (तरिष्यसि) पार कर जाएगा (अथ) और (चेत्) यदि (अहंकारात्) अहंकारके कारण मेरे वचनोंको (न) न (श्रोष्यसि) सुनेगा तो (विनङ्क्ष्यसि) नष्ट हो जायगा अर्थात् योग भ्रष्ट हो गया तो नष्ट हो जाएगा। यही प्रमाण अध्याय 6 श्लोक 40.46 तक है। (58)
हिन्दी: मेरे में चितवाला होकर तू मेरे द्वारा बताई शास्त्रानुकूल विचार धारा की कृप्यासे समस्त संकटोंको अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकारके कारण मेरे वचनोंको न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् योग भ्रष्ट हो गया तो नष्ट हो जाएगा। यही प्रमाण अध्याय 6 श्लोक 40.46 तक है।
यत्, अहंकारम्, आश्रित्य, न, योत्स्ये, इति, मन्यसे,
मिथ्या, एषः, व्यवसायः, ते, प्रकृतिः, त्वाम्, नियोक्ष्यति।।59।।
अनुवाद: (यत्) जो तू (अहंकारम्) अहंकारका (आश्रित्य) आश्रय लेकर (इति) यह (मन्यसे) मान रहा है कि (न,योत्स्ये) मैं युद्ध नहीं करूँगा, (ते) तेरा (एषः) यह (व्यवसायः) निश्चय (मिथ्या) मिथ्या है क्योंकि तेरा (प्रकृतिः) क्षत्री स्वभाव (त्वाम्) तुझे (नियोक्ष्यति) जबरदस्ती युद्धमें लगा देगा। (59)
हिन्दी: जो तू अहंकारका आश्रय लेकर यह मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है क्योंकि तेरा क्षत्री स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्धमें लगा देगा।
स्वभावजेन, कौन्तेय, निबद्धः, स्वेन्, कर्मणा,
कर्तुम्, न, इच्छसि, यत्, मोहात्, करिष्यसि, अवशः, अपि, तत्।।60।।
अनुवाद: (कौन्तेय) हे कुन्तीपुत्र! (यत्) जिस कर्मको तू (मोहात्) मोहके कारण (कर्तुम्) करना (न) नहीं (इच्छसि) चाहता (तत्) उसको (अपि) भी (स्वेन्) अपनेपूर्वकृत (स्वभावजेन) स्वाभाविक क्षत्री (कर्मणा) कर्मसे (निबद्धः) बँधा हुआ (अवशः) परवश होकर (करिष्यसि) करेगा। (60)
हिन्दी: हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्मको तू मोहके कारण करना नहीं चाहता उसको भी अपनेपूर्वकृत स्वाभाविक क्षत्री कर्मसे बँधा हुआ परवश होकर करेगा।
ईश्वरः, सर्वभूतानाम्, हृद्देशे, अर्जुन, तिष्ठति,
भ्रामयन्, सर्वभूतानि, यन्त्ररूढानि, मायया।।61।।
अनुवाद: (अर्जुन) हे अर्जुन! (यन्त्ररूढानि) शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए (सर्वभूतानि) सम्पूर्ण प्राणियोंको (ईश्वरः) अन्तर्यामी ईश्वर (मायया) अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार (भ्रामयन्) भ्रमण करवाता हुआ (सर्वभूतानाम्) सब प्राणियोंके (हृद्देशे) हृदयमें (तिष्ठति) स्थित है। (61)
हिन्दी: हे अर्जुन! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी ईश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमण करवाता हुआ सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित है।
तम्, एव, शरणम्, गच्छ, सर्वभावेन, भारत,
तत्प्रसादात्, पराम्, शान्तिम्, स्थानम्, प्राप्स्यसि, शाश्वतम्।।62।।
अनुवाद: (भारत) हे भारत! तू (सर्वभावेन) सब प्रकारसे (तम्) उस परमेश्वरकी (एव) ही (शरणम्) शरणमें (गच्छ) जा। (तत्प्रसादात्) उस परमात्माकी कृपा से ही तू (पराम्) परम (शान्तिम्) शान्तिको तथा (शाश्वतम्) सदा रहने वाला सत (स्थानम्) स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सत्लोक को (प्राप्स्यसि) प्राप्त होगा। (62)
हिन्दी: हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपा से ही तू परम शान्तिको तथा सदा रहने वाला सत स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सत्लोक को प्राप्त होगा।
इति, ते, ज्ञानम्, आख्यातम्, गुह्यात्, गुह्यतरम्, मया,
विमृश्य, एतत्, अशेषेण, यथा, इच्छसि, तथा, कुरु।।63।।
अनुवाद: (इति) इस प्रकार (गुह्यात्) गोपनीयसे (गुह्यतरम्) अति गोपनीय (ज्ञानम्) ज्ञान (मया) मैंने (ते) तुझसे (आख्यातम्) कह दिया (एतत्) इस रहस्ययुक्त ज्ञानको (अशेषेण) पूर्णतया (विमृश्य) भलीभाँति विचारकर (यथा) जैसे (इच्छसि) चाहता है (तथा) वैसे ही (कुरु) कर। (63)
हिन्दी: इस प्रकार गोपनीयसे अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया इस रहस्ययुक्त ज्ञानको पूर्णतया भलीभाँति विचारकर जैसे चाहता है वैसे ही कर।
सर्वगुह्यतमम्, भूयः, श्रृणु, मे, परमम्, वचः,
इष्टः, असि, मे, दृढम्, इति, ततः, वक्ष्यामि, ते, हितम्।।64।।
अनुवाद: (सर्वगुह्यतमम्) सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय (मे) मेरे (परमम्) परम रहस्ययुक्त (हितम्) हितकारक (वचः) वचन (ते) तुझे (भूयः) फिर (वक्ष्यामि) कहूँगा (ततः) इसे (श्रृणु) सुन (इति) यह पूर्ण ब्रह्म (मे) मेरा (दृढम्) पक्का निश्चित (इष्टः) इष्टदेव अर्थात् पूज्यदेव (असि) है। (64)
हिन्दी: सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त हितकारक वचन तुझे फिर कहूँगा इसे सुन यह पूर्ण ब्रह्म मेरा पक्का निश्चित इष्टदेव अर्थात् पूज्यदेव है।
मन्मनाः, भव, मद्भक्तः, मद्याजी, माम्, नमस्कुरु,
माम्, एव, एष्यसि, सत्यम्, ते, प्रतिजाने, प्रियः, असि, मे।।65।।
अनुवाद: (मन्मनाः) एक मनवाला (मद्भक्तः) मेरा मतानुसार भक्त (भव) हो (मद्याजी) मतानुसार मेरा पूजन करनेवाला (माम्) मुझको (नमस्कुरु) प्रणाम कर। (माम्) मुझे (एव) ही (एष्यसि) प्राप्त होगा (ते) तुझसे (सत्यम्) सत्य (प्रतिजाने) प्रतिज्ञा करता हूँ (मे) मेरा (प्रियः) अत्यन्त प्रिय (असि) है। (65)
हिन्दी: एक मनवाला मेरा मतानुसार भक्त हो मतानुसार मेरा पूजन करनेवाला मुझको प्रणाम कर। मुझे ही प्राप्त होगा तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ मेरा अत्यन्त प्रिय है।
सर्वधर्मान्, परित्यज्य, माम्, एकम्, शरणम्, व्रज,
अहम्, त्वा, सर्वपापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा, शुचः।।66।।
अनुवाद: गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 66 में भी उसी के विषय में कहा है कि (माम्) मेरी (सर्वधर्मान्) सम्पूर्ण पूजाओंको (माम्) मुझ में (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल (एकम्) एक उस अद्वितीय अर्थात् पूर्ण परमात्मा की (शरणम्) शरणमें (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापोंसे (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा दूँगा तू (मा,शुचः) शोक मत कर। (66)
हिन्दी: गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 66 में भी उसी के विषय में कहा है कि मेरी सम्पूर्ण पूजाओंको मुझ में त्यागकर तू केवल एक उस अद्वितीय अर्थात् पूर्ण परमात्मा की शरणमें जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे छुड़वा दूँगा तू शोक मत कर।
विशेष:- अन्य गीता अनुवाद कर्ताओं ने ‘‘व्रज्’’ शब्द का अर्थ आना किया है जो अनुचित है ‘‘व्रज्’’ शब्द का अर्थ जाना, चला जाना आदि होता है।
भावार्थ:- श्लोक 63 का भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि हे अर्जुन! यह गीता वाला अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। फिर श्लोक 64 में गीता ज्ञानदाता एक और सम्पूर्ण गोपनीयों से भी गोपनीय वचन कहता है कि वह परमेश्वर जिस के विषय में श्लोक 62 में कहा है वह परमेश्वर मेरा (गीता ज्ञान दाता) का ईष्ट देव अर्थात् पूज्य देव है यही प्रमाण अध्याय 15 श्लोक 4 में भी कहा है कि मैं भी उस परमेश्वर की शरण हूँ। इससे सिद्ध है कि गीता ज्ञान दाता प्रभु से कोई अन्य सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर है वही पूजा के योग्य है। यही प्रमाण अध्याय 15 श्लोक 17 में भी है गीता ज्ञान दाता प्रभु कहता है कि अध्याय 15 श्लोक 16 में वर्णित क्षर पुरूष (ब्रह्म) तथा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) से भी श्रेष्ठ परमेश्वर तो उपरोक्त दोनों से अन्य ही है वही वास्तव में परमात्मा कहलाता है। वह वास्तव में अविनाशी है। उसी की शरण में जाने के लिए कहा है।
इदम्, ते, न, अतपस्काय, न, अभक्ताय, कदाचन,
न, च, अशुश्रुषवे, वाच्यम्, न, च, माम्, यः, अभ्यसूयति।।67।।
अनुवाद: (ते) तुझे (इदम्) यह गीतारूप रहस्यमय उपदेश (कदाचन) किसी भी कालमें (न) न तो (अतपस्काय) तपरहित मनुष्यसे (वाच्यम्) कहना चाहिए (न) न (अभक्ताय) भक्तिरहितसे (च) और (न) न (अशुश्रूषवे) बिना सुननेकी इच्छावालेसे ही कहना चाहिए (च) तथा (यः) जो (माम्) मुझमें (अभ्यसूयति) दोषदृृष्टि रखता है (न) नहीं कहना चाहिए। (67)
हिन्दी: तुझे यह गीतारूप रहस्यमय उपदेश किसी भी कालमें न तो तपरहित मनुष्यसे कहना चाहिए न भक्तिरहितसे और न बिना सुननेकी इच्छावालेसे ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृृष्टि रखता है नहीं कहना चाहिए।
यः, इमम्, परमम्, गुह्यम्, मद्भक्तेषु, अभिधास्यति,
भक्तिम्, मयि, पराम्, कृृत्वा, माम्, एव, एष्यति, असंशयः।।68।।
अनुवाद: (यः) जो पुरुष (मयि) मुझमें (पराम्) परम (भक्तिम्) भक्ति (कृृत्वा) करके (इमम्) इस (परमम्) परम (गुह्यम्) रहस्ययुक्त गीताशास्त्रो (मद्भक्तेषु) भक्तोंमें (अभिधास्यति) कहेगा वह (माम्) मुझको (एव) ही (एष्यति) प्राप्त हेागा (असंशयः) इसमें कोई संदेह नहीं है। (68)
हिन्दी: जो पुरुष मुझमें परम भक्ति करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्रो भक्तोंमें कहेगा वह मुझको ही प्राप्त हेागा इसमें कोई संदेह नहीं है।
न, च, तस्मात्, मनुष्येषु, कश्चित्, मे, प्रियकृत्तमः,
भविता, न, च, मे, तस्मात्, अन्यः, प्रियतरः, भुवि।।69।।
अनुवाद: (तस्मात्) उससे बढ़कर (मे) मेरा (प्रियकृत्तमः) प्रिय कार्य करनेवाला (मनुष्येषु) मनुष्योंमें (कश्चित्) कोई (च) भी (न) नहीं है (च) तथा (भुवि) पृथ्वीभरमें (तस्मात्) उससे बढ़कर (मे) मेरा (प्रियतरः) प्रिय (अन्यः) दूसरा कोई (भविता) भविष्यमें होगा भी (न) नहीं। (69)
हिन्दी: उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं।
अध्येष्यते, च, यः, इमम्, धम्र्यम्, संवादम्, आवयोः,
ज्ञानयज्ञेन, तेन, अहम्, इष्टः, स्याम्, इति, मे, मतिः।।70।।
अनुवाद: (यः) जो पुरुष (इमम्) इस (धम्र्यम्) धर्ममय (आवयोः) हम दोनोंके (संवादम्) संवादरूप गीताशास्त्रको (अध्येष्यते) पढ़ेगा (तेन) उसके द्वारा (च) भी (अहम्) मैं (ज्ञानयज्ञेन) ज्ञानयज्ञसे (इष्टः) पूज्यदेव (स्याम्) होऊँगा (इति) ऐसा (मे) मेरा (मतिः) मत है। (70)
हिन्दी: जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनोंके संवादरूप गीताशास्त्रको पढ़ेगा उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञसे पूज्यदेव होऊँगा ऐसा मेरा मत है।
श्रद्धावान्, अनसूयः, च, श्रृणुयात्, अपि, यः, नरः,
सः, अपि, मुक्तः, शुभान्, लोकान्, प्राप्नुयात्, पुण्यकर्मणाम्।।71।।
अनुवाद: (यः) जो (नरः) मनुष्य (श्रद्धावान्) श्रद्धायुक्त (च) और (अनसूयः) दोष-दृष्टिसे रहित होकर इस गीताशास्त्रका (श्रृणुयात् अपि) श्रवण भी करेगा, (सः) वह (अपि) भी (मुक्तः) मुक्त होकर (पुण्यकर्मणाम्) उत्तम कर्म करनेवालोंके (शुभान्) श्रेष्ठ (लोकान्) लोकोंको (प्राप्नुयात्) प्राप्त होगा। (71)
हिन्दी: जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोष-दृष्टिसे रहित होकर इस गीताशास्त्रका श्रवण भी करेगा, वह भी मुक्त होकर उत्तम कर्म करनेवालोंके श्रेष्ठ लोकोंको प्राप्त होगा।
कच्चित्, एतत्, श्रुतम्, पार्थ, त्वया, एकाग्रेण, चेतसा,
कच्चित्, अज्ञानसम्मोहः, प्रनष्टः, ते, धन×जय।। 72।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (कच्चित्) क्या (एतत्) इस गीताशास्त्रको (त्वया) तूने (एकाग्रेण, चेतसा) एकाग्रचितसे (श्रुतम्) श्रवण किया और (धन×जय) हे धन×जय! (कच्चित्) क्या (ते) तेरा (अज्ञानसम्मोहः) अज्ञानजनित मोह (प्रनष्टः) नष्ट हो गया। (72)
हिन्दी: हे पार्थ! क्या इस गीताशास्त्रको तूने एकाग्रचितसे श्रवण किया और हे धन×जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया।
(अर्जुन उवाच)
नष्टः, मोहः, स्मृतिः, लब्धा, त्वत्प्रसादात्, मया, अच्युत,
स्थितः, अस्मि, गतसन्देहः, करिष्ये, वचनम्, तव।।73।।
अनुवाद: (अच्युत) हे अच्युत! (त्वत्प्रसादात्) आपकी कृप्यासे मेरा (मोहः) मोह (नष्टः) नष्ट हो गया और (मया) मुझे (स्मृतिः) ज्ञान (लब्धा) प्राप्त हो गया (गतसन्देहः) संश्यरहित होकर (स्थितः) स्थित (अस्मि) हूँ अतः (तव) आपकी (वचनम्) आज्ञाका (करिष्ये) पालन करूँगा। (73)
हिन्दी: हे अच्युत! आपकी कृप्यासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया संश्यरहित होकर स्थित हूँ अतः आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
(संजय उवाच)
इति, अहम्, वासुदेवस्य, पार्थस्य, च, महात्मनः,
संवादम्, इमम्, अश्रौषम्, अद्भुतम्, रोमहर्षणम्।।74।।
अनुवाद: (इति) इस प्रकार (अहम्) मैंने (वासुदेवस्य) श्रीवासुदेवके (च) और (महात्मनः) महात्मा (पार्थस्य) अर्जुनके (इमम्) इस (अद्भुतम्) अद्भुत रहस्ययुक्त (रोमहर्षणम्) रोमांचकारक (संवादम्) संवादको (अश्रौषम्) सुना। (74)
हिन्दी: इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेवके और महात्मा अर्जुनके इस अद्भुत रहस्ययुक्त रोमांचकारक संवादको सुना।
व्यासप्रसादात्, श्रुतवान्, एतत्, गुह्यम्, अहम्, परम्
योगम्, योगेश्वरात्, कृष्णात्, साक्षात्, कथयतः, स्वयम्।।75।।
अनुवाद: (व्यासप्रसादात्) श्रीव्यासजीकी कृप्यासे दिव्य दृष्टि पाकर (अहम्) मैंने (एतत्) इस (परम्) परम (गुह्यम्) गोपनीय (योगम्) योगको अर्जुनके प्रति (कथयतः) कहते हुए (स्वयम्) स्वयं (योगेश्वरात्) योगेश्वर (कृष्णात्) भगवान् श्रीकृष्णसे (साक्षात्) प्रत्यक्ष (श्रुतवान्) सुना है। (75)
हिन्दी: श्रीव्यासजीकी कृप्यासे दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योगको अर्जुनके प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णसे प्रत्यक्ष सुना है।
राजन्, संस्मृत्य, संस्मृत्य, संवादम्, इमम्, अद्भुतम्,
केशवार्जुनयोः, पुण्यम्, हृष्यामि, च, मुहुर्मुहुः।।76।।
अनुवाद: (राजन्) हे राजन् (केशवार्जुनयोः) भगवान् श्रीकृृष्ण और अर्जुनके (इमम्) इस रहस्ययुक्त (पुण्यम्) कल्याणकारक (च) और (अद्भुतम्) अद्भुत (संवादम्) संवादको (संस्मृत्य, संस्मृत्य) पुनः-पुनः सुमरण करके मैं (मुहुर्मुहु) बार-बार (हृष्यामि) हर्षित हो रहा हूँ। (76)
हिन्दी: हे राजन् भगवान् श्रीकृृष्ण और अर्जुनके इस रहस्ययुक्त कल्याणकारक और अद्भुत संवादको पुनः-पुनः सुमरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
तत्, च, संस्मृत्य, संस्मृत्य, रूपम्, अति, अद्भुतम्, हरेः,
विस्मयः, मे, महान्, राजन्, हृष्यामि, च, पुनः, पुनः।।77।।
अनुवाद: (राजन्) हे राजन्! (हरेः) श्रीहरिके (तत्) उस (अति) अत्यन्त (अद्भुतम्) विलक्षण (रूपम्) रूपको (च) भी (संस्मृत्य,संस्मृत्य) पुनः-पुनः सुमरण करके (मे) मेरे चितमें (महान्) महान् (विस्मयः) आश्चर्य होता है (च) और (पुनः,पुनः) बार-बार (हृष्यामि) हर्षित हो रहा हूँ। (77)
हिन्दी: हे राजन्! श्रीहरिके उस अत्यन्त विलक्षण रूपको भी पुनः-पुनः सुमरण करके मेरे चितमें महान् आश्चर्य होता है और बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
यत्र, योगेश्वरः, कृष्णः, यत्र, पार्थः, धनुर्धरः,
तत्र श्रीः, विजयः, भूतिः, ध्रुवा, नीतिः, मतिः, मम।।78।।
अनुवाद: (यत्र) जहाँ (योगेश्वरः) योगेश्वर (कृष्णः) भगवान् श्रीकृष्ण हैं और (यत्र) जहाँ (धनुर्धरः) गाण्डीव-धनुषधारी (पार्थः) अर्जुन हैं (तत्र) वहींपर (श्रीः) श्री (विजयः) विजय (भूतिः) विभूति और (ध्रुवा) अचल (नीतिः) नीति है (मम) मेरा (मतिः) मत है। (78)
हिन्दी: जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं वहींपर श्री विजय विभूति और अचल नीति है मेरा मत है।