(अर्जुन उवाच)
किम्, तत्, ब्रह्म, किम्, अध्यात्मम्, किम्, कर्म, पुरुषोत्तम्,
अधिभूतम्, च, किम्, प्रोक्तम्, अधिदैवम्, किम्, उच्यते।।1।।
अनुवाद: (पुरुषोत्तम) हे पुरुषोत्तम! (तत्) वह (ब्रह्म) ब्रह्म (किम्) क्या है (अध्यात्मम्) अध्यात्म (किम्) क्या है? (कर्म) कर्म (किम्) क्या है? (अधिभूतम्) अधिभूत नामसे (किम्) क्या (प्रोक्तम्) कहा गया है (च) और (अधिदैवम्) अधिदैव (किम्) किसको (उच्यते) कहते हैं?(1)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नामसे क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं?(1)
अधियज्ञः, कथम्, कः, अत्र, देहे, अस्मिन्, मधुसूदन,
प्रयाणकाले, च, कथम्, ज्ञेयः, असि, नियतात्मभिः।।2।।
अनुवाद: (मधुसूदन) हे मधुसूदन! (अत्र) यहाँ (अधियज्ञः) अधियज्ञ (कः) कौन है और वह (अस्मिन्) इस (देहे) शरीरमें (कथम्) कैसे है? (च) तथा (नियतात्मभिः) युक्त चितवाले पुरुषोंद्वारा (प्रयाणकाले) अन्त समयमें (कथम्) किस प्रकार (ज्ञेयः) जाननेमें आते (असि) हैं। (2)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस शरीरमें कैसे है? तथा युक्त चितवाले पुरुषोंद्वारा अन्त समयमें किस प्रकार जाननेमें आते हैं। (2)
(श्री भगवान उवाच)
अक्षरम्, ब्रह्म, परमम्, स्वभावः, अध्यात्मम्, उच्यते,
भूतभावोद्भवकरः, विसर्गः, कर्मस×िज्ञतः।। 3।।
अनुवाद: ब्रह्म भगवान ने उत्तर दिया वह (परमम्) परम (अक्षरम्) अक्षर (ब्रह्म) ‘ब्रह्म‘ है जो जीवात्मा के साथ सदा रहने वाला है (स्वभावः) उसीका स्वरूप अर्थात् परमात्मा जैसे गुणों वाली जीवात्मा (अध्यात्मम्) ‘अध्यात्म‘ नामसे (उच्यते) कहा जाता है तथा (भूतभावोद्भवकरः) जीव भावको उत्पन्न करनेवाला जो (विसर्गः) त्याग है वह (कर्मस×िजतः) ‘कर्म‘ नामसे कहा गया है। ( 3)
केवल हिन्दी अनुवाद: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म भगवान ने उत्तर दिया वह परम अक्षर ‘ब्रह्म‘ है जो जीवात्मा के साथ सदा रहने वाला है उसीका स्वरूप अर्थात् परमात्मा जैसे गुणों वाली जीवात्मा ‘अध्यात्म‘ नामसे कहा जाता है तथा जीव भावको उत्पन्न करनेवाला जो त्याग है वह ‘कर्म‘ नामसे कहा गया है। (3)
अधिभूतम्, क्षरः, भावः, पुरुषः, च, अधिदैवतम्,
अधियज्ञः, अहम्, एव, अत्र, देहे, देहभृताम्, वर।।4।।
अनुवाद: (अत्र) इस (देहभृताम् वर) देह धारियों में श्रेष्ठ अर्थात् मानव (देहे) शरीर में (क्षरः भावः) नाश्वान स्वभाव वाले (अधिभूतम्) अधिभूत जीव का स्वामी (च) और (अधिदैवतम्) अधिदैव दैवी शक्ति का स्वामी (अधियज्ञः) यज्ञ का स्वामी अर्थात् यज्ञ में प्रतिष्ठित अधियज्ञ (पुरूषः) पूर्ण परमात्मा है(एव) इसी प्रकार इस मानव शरीर में (अहम्) मैं हूँ। (4)
केवल हिन्दी अनुवाद: इस देह धारियों में श्रेष्ठ अर्थात् मानव शरीर में नाश्वान स्वभाव वाले अधिभूत जीव का स्वामी और अधिदैव दैवी शक्ति का स्वामी यज्ञ का स्वामी अर्थात् यज्ञ में प्रतिष्ठित अधियज्ञ पूर्ण परमात्मा है इसी प्रकार इस मानव शरीर में मैं हूँ। (4)
भावार्थ:- सर्व देहधारी प्राणियों में श्रेष्ठ शरीर मानव शरीर है। इस मानव शरीर में सर्व प्रभुओं का वास है। जैसे गीता अध्याय 15 श्लोक 15 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि मैं सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कहा है कि वह पूर्ण ब्रह्म ज्योतियों का ज्योति माया से अति परे कहा जाता है। वह तत्वज्ञान से जानने योग्य है और सब के हृदय में विशेष रूप से स्थित है। इसी प्रकार गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है शरीर रूपी यन्त्र में अन्र्तयामी परमेश्वर अपनी माया से भ्रमण कराता हुआ (सर्वभूतानाम्) सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। {इससे सिद्ध हुआ कि शरीर में दोनों प्रभुओं (ब्रह्म तथा पूर्ण ब्रह्म) का वास है}
नोट:- गीता अ. 3 के श्लोक 14,15 में स्पष्ट है कि सर्वव्यापक परमात्मा पूर्णब्रह्म ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है अर्थात् अधियज्ञ है।
अन्तकाले, च, माम्, एव, स्मरन्, मुक्त्वा, कलेवरम्,
यः, प्रयाति, सः, मद्भावम्, याति, न, अस्ति, अत्र, संशयः।।5।।
अनुवाद: (यः) जो (अन्तकाले,च) अन्तकालमें भी (माम्) मुझको (एव) ही (स्मरन्) सुमरण करता हुआ (कलेवरम्) शरीरको (मुक्त्वा) त्यागकर (प्रयाति) जाता है (सः) वह (मद्भावम्) शास्त्रनुकूल भक्ति ब्रह्म तक की साधना के भाव को अर्थात् स्वभाव को (याति) प्राप्त होता है (अत्र) इसमें कुछ भी (संशयः) संश्य (न) नहीं (अस्ति) है। (5)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो अन्तकालमें भी मुझको ही सुमरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है वह शास्त्रनुकूल भक्ति ब्रह्म तक की साधना के भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संश्य नहीं है। (5)
यम्, यम्, वा, अपि, स्मरन्, भावम्, त्यजति, अन्ते, कलेवरम्,
तम्, तम्, एव, एति, कौन्तेय, सदा, तद्भावभावितः।।6।।
अनुवाद: (कौन्तेय) हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य (अन्ते) अन्तकालमें (यम् यम्) जिस-जिस (वा, अपि) भी (भावम्) भावको (स्मरन्) सुमरण करता हुआ अर्थात् जिस भी देव की उपासना करता हुआ (कलेवरम्) शरीरका (त्यजति) त्याग करता है (तम् तम्) उस-उसको (एव) ही (एति) प्राप्त होता है क्योंकि वह (सदा) सदा (तद्भावभावितः) उसी भक्ति भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है। (6)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको सुमरण करता हुआ अर्थात् जिस भी देव की उपासना करता हुआ शरीरका त्याग करता है उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भक्ति भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है। (6)
तस्मात्, सर्वेषु, कालेषु, माम्, अनुस्मर, युध्य, च,
मयि, अर्पितमनोबुद्धिः, माम्, एव, एष्यसि, असंशयम्।।7।।
अनुवाद: (तस्मात्) इसलिये हे अर्जुन! तू (सर्वेषु) सब (कालेषु) समयमें निरन्तर (माम्) मेरा (अनुस्मर) सुमरण कर (च) और (युध्य) युद्ध भी कर इस प्रकार (मयि) मुझमें (अर्पितमनोबुद्धिः) अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू (असंशयम्) निःसन्देह (माम्) मुझको (एव) ही (एष्यसि) प्राप्त होगा अर्थात् जब कभी तेरा मनुष्य का जन्म होगा मेरी साधना पर लगेगा तथा मेरे पास ही रहेगा। (7)
केवल हिन्दी अनुवाद: इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा सुमरण कर और युद्ध भी कर इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू निःसन्देह मुझको ही प्राप्त होगा अर्थात् जब कभी तेरा मनुष्य का जन्म होगा मेरी साधना पर लगेगा तथा मेरे पास ही रहेगा। (7)
अभ्यासयोगयुक्तेन, चेतसा, नान्यगामिना।
परमम्, पुरुषम्, दिव्यम्, याति, पार्थ, अनुचिन्तयन्।।8।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (अभ्यासयोगयुक्तेन) परमेश्वरके नाम जाप के अभ्यासरूप योगसे युक्त अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा की पूजा में लीन (नान्यगामिना) दूसरी ओर न जानेवाले (चेतसा) चित्तसे (अनुचिन्तयन्) निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त (परमम्) परम (दिव्यम्) दिव्य (पुरुषम्) परमात्माको अर्थात् परमेश्वरको ही (याति) प्राप्त होता है। (8)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे पार्थ! परमेश्वरके नाम जाप के अभ्यासरूप योगसे युक्त अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा की पूजा में लीन दूसरी ओर न जानेवाले चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त परम दिव्य परमात्माको अर्थात् परमेश्वरको ही प्राप्त होता है। (8)
कविम्, पुराणम् अनुशासितारम्, अणोः, अणीयांसम्, अनुस्मरेत्,
यः, सर्वस्य, धातारम्, अचिन्त्यरूपम्, आदित्यवर्णम्, तमसः, परस्तात्।।9।।
अनुवाद: (कविम्) कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप में प्रसिद्ध होता है वह (पुराणम्) अनादि, (अनुशासितारम्) सबके नियन्ता (अणोः, अणीयांसम्) सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, (सर्वस्य) सबके (धातारम्) धारण-पोषण करने वाला (अचिन्त्यरूपम्) अचिन्त्य-स्वरूप (आदित्यवर्णम्) सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है (यः) जो साधक (तमसः) उस अज्ञानरूप अंधकारसे (परस्तात्) अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका (अनुस्मरेत्) सुमरण करता है। (9)
केवल हिन्दी अनुवाद: कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप से प्रसिद्ध होता है वह अनादि, सबके नियन्ता सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले अचिन्त्य-स्वरूप सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है। जो उस अज्ञानरूप अंधकारसे अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका सुमरण करता है। (9)
प्रयाणकाले, मनसा, अचलेन, भक्त्या, युक्तः, योगबलेन, च, एव, भ्रुवोः, मध्ये, प्राणम्, आवेश्य, सम्यक्, सः, तम्, परम् पुरुषम्, उपैति, दिव्यम्।।10।।
अनुवाद: (सः) वह (भक्त्या, युक्तः) भक्तियुक्त साधक (प्रयाणकाले) अन्तकालमें (योगबलेन) नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे (भ्रुवोः) भृकुटी के (मध्ये) मध्यमें (प्राणम्) प्राणको (सम्यक्) अच्छी प्रकार (आवेश्य) स्थापित करके (च) फिर (अचलेन) निश्चल (मनसा) मनसे (तम्) अज्ञात (दिव्यम्) दिव्यरूप (परम्) परम (पुरुषम्) भगवानको (एव) ही (उपैति) प्राप्त होता है। (10)
केवल हिन्दी अनुवाद: वह भक्तियुक्त साधक अन्तकालमें नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे भृकुटीके मध्यमें प्राणको अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मनसे अज्ञात दिव्यरूप परम भगवानको ही प्राप्त होता है। (10)
यत्, अक्षरम्, वेदविदः, वदन्ति, विशन्ति, यत्, यतयः, वीतरागाः,
यत्, इच्छन्तः, ब्रह्मचर्यम्, चरन्ति, तत्, ते, पदम्, सङ्ग्रहेण, प्रवक्ष्ये।।11।।
अनुवाद: उपरोक्त श्लोक 8 से 10 में वर्णित (यत्) जिस सच्चिदानन्द घन परमेश्वर को (वेदविदः) वेद के जानने वाले अर्थात् तत्वदर्शी सन्त (अक्षरम्) वास्तव में अविनाशी (वदन्ति) कहते हैं। (यत्) जिसमें (यतयः) यत्नशील (वितरागाः) रागरहित साधक जन (विशन्ति) प्रवेश करते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं (यत्) जिसे (इच्छन्तः) चाहने वाले (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य का (चरन्ति) आचरण करते हैं अर्थात् ब्रह्मचारी रह कर भी उस परमात्मा को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। (तत्) उस (पदम्) पद अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाले भक्ति पद्धती को उस पूजा विधि को (ते) तेरे लिए (सङ्ग्रेहण) संक्षेप से अर्थात् सांकेतिक रूप से (प्रवक्ष्ये) कहूँगा। (11)
केवल हिन्दी अनुवादः उपरोक्त श्लोक 8 से 10 में वर्णित जिस सच्चिदानन्द घन परमेश्वर को वेद के जानने वाले अर्थात् तत्वदर्शी सन्त वास्तव में अविनाशी कहते हैं। जिसमें यत्नशील रागरहित साधक जन प्रवेश करते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं जिसे चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं अर्थात् ब्रह्मचारी रह कर भी उस परमात्मा को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। उस पद अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाले भक्ति पद्धती को उस पूजा विधि को तेरे लिए संक्षेप में अर्थात् सांकेतिक रूप से कहूँगा।
भावार्थ: इस अध्याय में गीता ज्ञान दाता भिन्न.2 साधना का ज्ञान करते हुए कह रहा है कि जो तत्वदर्शी संत नाम (मन्त्र) जाप के लिए बताता है जिससे मोक्ष प्राप्त करते हैं। वह मार्ग बताऊँगा जिसका वर्णन गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में किया है कि पूर्ण परमात्मा की साधना का तो केवल ओम्-तत्-सत् यह तीन अक्षर का मन्त्र है, अन्य नहीं।
सर्वद्वाराणि, संयम्य, मनः, हृदि, निरुध्य, च,
मूध्र्नि, आधाय, आत्मनः, प्राणम्, आस्थितः, योगधारणाम्।।12।।
अनुवाद: जो भक्ति पद अर्थात् पद्यति बताने जा रहा हूँ उस में साधक (सर्वद्धाराणि) सर्व इन्द्रियों के द्वारों को (संयम्य) नियमित करके (मनः) मन को (हृदय) हृदय देश में (च) तथा (प्राणम्) स्वासों को (मूध्र्नि) मस्तिक में (निरुध्य) स्थिर करके (आत्मनः) परमात्मा के ध्यान में (अधाय) स्थापित करके (योग धारणाम्) योग धारण अर्थात् साधना में (आस्थितः) स्थित होता है। (12)
केवल हिन्दी अनुवाद: जो भक्ति पद अर्थात् पद्यति बताने जा रहा हूँ उस में साधक सर्व इन्द्रियों के द्वारों को नियमित करके मन को हृदय देश में तथा स्वासों को मस्तिक में स्थिर करके परमात्मा के ध्यान में स्थापित करके योग धारण अर्थात् साधना में स्थित होता है।
भावार्थ: गीता ज्ञान दाता काल भगवान केवल संक्षेप में संकेत द्वारा कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाली भक्ति पद्धती में साधक स्वासों द्वारा साधना करता है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ओं-तत्-सत् जो तीन मन्त्र का जाप है उसका मन-पवन अर्थात् स्वासों व सुरति व निरति को सम करके मस्तिक तथा हृदय में अभ्यास करता है। जैसे सतनाम के जाप को स्वासों द्वारा किया जाता है। सत्यनाम में दो अक्षर होते हैं एक अक्षर ओं (ॐ) तथा दूसरा तत् जो गुप्त है। ओं (ॐ) नाम ब्रह्म का जाप है। ब्रह्म का स्थान संहस्त्र कमल है जो मस्तिक के पीछे है तथा पूर्ण परमात्मा विशेष रूप से हृदय में (जल में सूर्य की तरह) निवास करता है। इसलिए सत्यनाम के सुमरण में स्वांस पर ध्यान एकाग्र करके मस्तिक व हृदय में स्वांस के साथ ध्यान से नामों का जाप किया जाता है। काल भगवान को पूर्ण भक्ति विधि का ज्ञान नहीं है। अगले श्लोक 13 में केवल अपनी साधना की विधि बताई है।
ओम्, इति, एकाक्षरम्, ब्रह्म, व्याहरन्, माम्, अनुस्मरन्,
यः, प्रयाति, त्यजन्, देहम्, सः, याति, परमाम्, गतिम्।।13।।
अनुवाद: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि उपरोक्त श्लोक 11-12 में जिस गीता अध्याय 17 के श्लोक 23 में जो मन्त्र को पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का कहा है उस पूर्ण मोक्ष मार्ग के नाम में तीन अक्षर का जाप ओं-तत-सत् है उस में (माम् ब्रह्म) मुझ ब्रह्म का तो (इति) यह (ओम्) ओम्/ऊँ (एकाक्षरम) एक अक्षर है (व्यवाहरन्) उच्चारण करते हुए (अनुस्मरन्) स्मरन करने अर्थात् साधना करने का (यः) जो (त्यजन् देहम्) शरीर त्याग कर जाता हुआ स्मरण करता है अर्थात् अंतिम समय में (प्रयाति) साधना स्मरण करता हुआ मर जाता है (सः) वह (परमाम् गतिम्) परम गति पूर्ण मोक्ष को (याति) प्राप्त होता है। अपनी गति को तो गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम कहा है। इसलिए यहाँ पर पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति अर्थात् पूर्ण मोक्ष रूपी परम गति का वर्णन है(13)
केवल हिन्दी अनुवाद: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि उपरोक्त श्लोक 11-12 में जिस पूर्ण मोक्ष मार्ग के नाम जाप में तीन अक्षर का जाप कहा है उस में मुझ ब्रह्म का तो यह ओं/ऊँ एक अक्षर है उच्चारण करते हुए स्मरन करने अर्थात् साधना करने का जो शरीर त्याग कर जाता हुआ स्मरण करता है अर्थात् अंतिम समय में स्मरण करता हुआ मर जाता है वह परम गति पूर्ण मोक्ष को प्राप्त होता है। {अपनी गति को तो गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम कहा है। इसलिए यहाँ पर पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति अर्थात् पूर्ण मोक्ष रूपी परम गति का वर्णन है (13)}
भावार्थ: काल भगवान कह रहा है कि उस तीन अक्षरों (ओं,तत्,सत्) वाले मन्त्र में मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम/ऊँ (ओं) अक्षर है। उच्चारण करके स्मरण करने का जो साधक अंतिम स्वांस तक स्मरण साधना करता हुआ शरीर त्याग जाता है वह परम गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है। {अपनी गति को अध्याय 7 श्लोक 18 में (अनुतमाम्) अति अश्रेष्ठ कहा है।}
अनन्यचेताः, सततम्, यः, माम्, स्मरति, नित्यशः,
तस्य, अहम्, सुलभः, पार्थ, नित्ययुक्तस्य, योगिनः।।14।।
अनुवाद: (पार्थ) हे अर्जुन! (यः) जो (अनन्यचेताः) अनन्यचित होकर (नित्यशः) सदा ही (सततम्) निरन्तर (माम्) मुझको (स्मरति) सुमरण करता है (तस्य) उस (नित्ययुक्तस्य) नित्य निरन्तर युक्त हुए (योगिनः) योगीके लिये (अहम्) मैं (सुलभः) सुलभ हूँ। (14)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! जो अनन्यचित होकर सदा ही निरन्तर मुझको सुमरण करता है उस नित्य निरन्तर युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ। (14)
माम्, उपेत्य, पुनर्जन्म, दुःखालयम्, अशाश्वतम्,
न, आप्नुवन्ति, महात्मानः, संसिद्धिम्, परमाम्, गताः।।15।।
अनुवाद: (माम्) मुझको (उपेत्य) प्राप्त साधकतो(अशाश्वतम्) क्षणभंगुर (दुःखालयम्) दुःख के घर (पुनर्जन्म) बार-बार जन्म-मरण में हैं (परमाम्) परम अर्थात् पूर्ण परमात्मा की साधना से होने वाली (संसिद्धिम) सिद्धिको (गताः) प्राप्त (महात्मानः) महात्माजन (न) नहीं (आप्नुवन्ति) प्राप्त होते। यही प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12 , अध्याय 4 श्लोक 5 व 9 तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 4 अध्याय 18 श्लोक 62 में है जिनमें कहा है कि मेरे तथा तेरे अनेकों जन्म व मृत्यु हो चुके हैं परन्तु उस परमेश्वर को प्राप्त करके ही साधक सदा के लिए जन्म मरण से मुक्त हो जाता है वह फिर लौट कर इस क्षण भंगुर लोक में नहीं आता(15)
केवल हिन्दी अनुवाद: मुझको प्राप्त साधकतो क्षणभंगुर दुःख के घर बार-बार जन्म-मरण में हैं परम अर्थात् पूर्ण परमात्मा की साधना से होने वाली सिद्धिको प्राप्त महात्माजन नहीं प्राप्त होते। यही प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12 , अध्याय 4 श्लोक 5 व 9 तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 4 अध्याय 18 श्लोक 62 में है जिनमें कहा है कि मेरे तथा तेरे अनेकों जन्म व मृत्यु हो चुके हैं परन्तु उस परमेश्वर को प्राप्त करके ही साधक सदा के लिए जन्म मरण से मुक्त हो जाता है वह फिर लौट कर इस क्षण भंगुर लोक में नहीं आता (15)
आब्रह्मभुवनात्, लोकाः, पुनरावर्तिनः, अर्जुन,
माम्, उपेत्य, तु, कौन्तेय, पुनर्जन्म, न, विद्यते।।16।।
अनुवाद: (अर्जुन) हे अर्जुन! (आब्रह्मभुवनात्) ब्रह्मलोक से लेकर (लोकाः) सब लोक (पुनरावर्तिनः) बारम्बार उत्पत्ति नाश वाले हैं (तु) परन्तु (कौन्तेय) हे कुन्ती पुत्र (न, विद्यते) जो यह नहीं जानते वे (माम्) मुझे (उपेत्य) प्राप्त होकर भी (पुनः) फिर (जन्मः) जन्मते हैं। (16)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक बारम्बार उत्पत्ति नाश वाले हैं परन्तु हे कुन्ती पुत्र जो यह नहीं जानते वे मुझे प्राप्त होकर भी फिर जन्मते हैं। (16)
विशेष:- गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता अध्याय 10 श्लोक 17 में विद्याम का अर्थ जानूँ किया है, गीता अध्याय 6 श्लोक 23 तथा अध्याय 14 श्लोक 11 में विद्यात का अर्थ जानना चाहिए किया है तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 15 में तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 17 में वेद्यः तथा वेद्यम् का अर्थ जानने योग्य तथा जानना चाहिए किया है। इसलिए विद्यते का अर्थ ‘जानते‘ सही है। यदि इन श्लोकों 15-16 का अर्थ अन्य अनुवाद कर्ताओं वाला सही माना जाए कि ब्रह्म (गीता ज्ञान दाता को) को प्राप्त होने के पश्चात् पुर्नजन्म नहीं होता तो गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 व 9 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 का अर्थ सही नहीं लगेगा। इसलिए यही उपरोक्त अनुवाद जो मुझ दास(संत रामपाल जी महाराज) द्वारा किया गया है वह उचित है।
सहस्त्रयुगपर्यन्तम्, अहः,यत्,ब्रह्मणः, विदुः,रात्रिम्,
युगसहस्त्रन्ताम्, ते, अहोरात्रविदः, जनाः।।17।।
अनुवाद: (ब्रह्मणः) परब्रह्म का (यत्) जो (अहः) एक दिन है उसको (सहस्त्रयुगपर्यन्तम्) एक हजार युग की अवधिवाला और (रात्रिम्) रात्रिको भी (युगसहस्त्रन्ताम्) एक हजार युगतककी अवधिवाली (विदुः) तत्वसे जानते हैं (ते) वे (जनाः) तत्वदर्शी संत (अहोरात्रविदः) दिन-रात्री के तत्वको जाननेवाले हैं। (17)
केवल हिन्दी अनुवाद: परब्रह्म का जो एक दिन है उसको एक हजार युग की अवधिवाला और रात्रिको भी एक हजार युगतककी अवधिवाली तत्वसे जानते हैं वे तत्वदर्शी संत दिन-रात्री के तत्वको जाननेवाले हैं। (17)
विशेषः- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा (काल के रजगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात त्रिलोकिय विष्णु (काल के सतगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव (ब्रह्म-काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु होती है। ऐसे 70000 (सतर हजार अर्थात् 0ण्7 लाख) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के उपरान्त एक ब्रह्मलोकिय महा शिव (सदाशिव अर्थात् काल) की मृत्यु होती है। एक ब्रह्मलोकिय महाशिव की आयु जितना एक युग परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का हुआ। ऐसे एक हजार युग अर्थात् एक हजार ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्मलोक में स्वयं काल ही महाशिव रूप में रहता है) की मृत्यु के बाद काल के इक्कीस ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है। इसलिए यहाँ पर परब्रह्म के एक दिन जो एक हजार युग का होता है तथा इतनी ही रात्री होती है। लिखा है।
(1) रजगुण ब्रह्मा की आयुः-ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युग का है तथा इतनी ही रात्री है। (एक चतुर्युग में 43,20,000 मनुष्यों वाले वर्ष होते हैं) एक महिना तीस दिन रात का है, एक वर्ष बारह महिनों का है तथा सौ वर्ष की ब्रह्मा जी की आयु है। जो सात करोड़ बीस लाख चतुर्युग की है।
(2) सतगुण विष्णु की आयुः श्री ब्रह्मा जी की आयु से सात गुणा अधिक श्री विष्णु जी की आयु है अर्थात् पचास करोड़ चालीस लाख चतुर्युग की श्री विष्णु जी की आयु है।
(3) तमगुण शिव की आयुः श्री विष्णु जी की आयु से श्री शिव जी की आयु सात गुणा अधिक है अर्थात् तीन अरब बावन करोड़ अस्सी लाख चतुर्युग की श्री शिव की आयु है।
(4) काल ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष की आयुः-सात त्रिलोकिय ब्रह्मा (काल के रजगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात त्रिलोकिय विष्णु (काल के सतगुण पुत्र) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव (ब्रह्म/काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु होती है। ऐसे 70000 (सतर हजार अर्थात् 0.7 लाख) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के उपरान्त एक ब्रह्मलोकिय महा शिव (सदाशिव अर्थात् काल) की मृत्यु होती है। एक ब्रह्मलोकिय महाशिव की आयु जितना एक युग परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का हुआ। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म का एक दिन होता है। परब्रह्म के एक दिन के समापन के पश्चात् काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है तथा काल व प्रकृति देवी(दुर्गा) की मृत्यु होती है। परब्रह्म की रात्री (जो एक हजार युग की होती है) के समाप्त होने पर दिन के प्रारम्भ में काल व दुर्गा का पुनर् जन्म होता है फिर ये एक ब्रह्मण्ड में पहले की भांति सृष्टि प्रारम्भ करते हैं। इस प्रकार परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का एक दिन एक हजार युग का होता है तथा इतनी ही रात्री है।
(5) अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की आयु:- परब्रह्म का एक युग ब्रह्मलोकीय शिव अर्थात् महाशिव (काल ब्रह्म) की आयु के समान होता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का तथा इतनी ही रात्री होती है। इस प्रकार परब्रह्म का एक दिन-रात दो हजार युग का हुआ। एक महिना 30 दिन का एक वर्ष 12 महिनों का तथा परब्रह्म की आयु सौ वर्ष की है। इस से सिद्ध है कि परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष भी नाश्वान है। इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17 तथा अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में किसी अन्य पूर्ण परमात्मा के विषय में कहा है जो वास्तव में अविनाशी है।
नोट:- गीता जी के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युग का लिखा है जो उचित नहीं है। क्योंकि मूल संस्कृत में सहंसर युग लिखा है न की चतुर्युग। तथा ब्रह्मणः लिखा है न कि ब्रह्मा। तत्वज्ञान के अभाव से अर्थों का अनर्थ किया है।
अव्यक्तात्, व्यक्तयः, सर्वाः, प्रभवन्ति, अहरागमे,
रात्रयागमे, प्रलीयन्ते, तत्र, एव, अव्यक्तसज्ञके।। 18।।
अनुवाद: (सर्वाः) सम्पूर्ण (व्यक्तयः) प्रत्यक्ष आकार में आया संसार (अहरागमे) परब्रह्म के दिनके प्रवेशकालमें (अव्यक्तात्) अव्यक्तसे अर्थात् अदृश परब्रह्म से (प्रभवन्ति) उत्पन्न होते हैं और (रात्रयागमे) रात्रि आने पर (तत्र) उस (अव्यक्तसज्ञके) अदृश अर्थात् परोक्ष परब्रह्म में (एव) ही (प्रलीयन्ते) लीन हो जाते हैं। (18)
केवल हिन्द अनुवाद: सम्पूर्ण प्रत्यक्ष आकार में आया संसार परब्रह्म के दिन के प्रवेशकालमें अव्यक्तसे अर्थात् अदृश परब्रह्म से उत्पन्न होते हैं और रात्रि आने पर उस अदृश अर्थात् परोक्ष परब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं। (18)
भूतग्रामः, सः, एव, अयम्, भूत्वा, भूत्वा, प्रलीयते,
रात्रयागमे, अवशः, पार्थ, प्रभवति, अहरागमे।।19।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (सः,एव) वही (अयम्) यह (भूतग्रामः) प्राणी समुदाय (भूत्वा, भूत्वा) उत्पन्न हो होकर (अवशः) संस्कार वश होकर (रात्रयागमे) रात्रिके प्रवेशकालमें (प्रलीयते) लीन होता है और (अहरागमे) दिनके प्रवेशकालमें फिर (प्रभवति) उत्पन्न होता है। (19)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे पार्थ! वही यह प्राणी समुदाय उत्पन्न हो होकर संस्कार वश होकर रात्रिके प्रवेशकालमें लीन होता है और दिन के प्रवेशकालमें फिर उत्पन्न होता है। (19)
परः, तस्मात्, तु, भावः, अन्यः, अव्यक्तः,, अव्यक्तात्, सनातनः।
यः सः, सर्वेषु, भूतेषु, नश्यत्सु, न, विनश्यति।।20।।
अनुवाद: (तु) परंतु (तस्मात्) उस (अव्यक्तात्) अव्यक्त अर्थात् गुप्त परब्रह्म से भी अति (परः) परे (अन्यः) दूसरा (यः) जो (सनातनः) आदि (अव्यक्तः) अव्यक्त अर्थात् परोक्ष (भावः) भाव है (सः) वह परम दिव्य पुरुष (सर्वेषु) सब (भूतेषु) प्राणियों के (नश्यत्सु) नष्ट होने पर भी (न, विनश्यति) नष्ट नहीं होता। (20)
केवल हिन्दी अनुवाद: परंतु उस अव्यक्त अर्थात् गुप्त परब्रह्म से भी अति परे दूसरा जो आदि अव्यक्त अर्थात् परोक्ष भाव है वह परम दिव्य पुरुष सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। (20)
अव्यक्तः, अक्षरः, इति, उक्तः, तम्, आहुः, परमाम्, गतिम्।
यम्, प्राप्य, न, निवर्तन्ते, तत् धाम, परमम्, मम्।।21।।
अनुवाद: (अव्यक्तः) अदृश अर्थात् परोक्ष (अक्षरः) अविनाशी (इति) इस नामसे (उक्तः) कहा गया है (तम्) अज्ञान के अंधकार में छुपे गुप्त स्थान को (परमाम्, गतिम्) परमगति (आहुः) कहते हैं (यम्) जिसे (प्राप्य) प्राप्त होकर मनुष्य (न, निवर्तन्ते) वापस नहीं आते (तत् धाम) वह लोक (परमम् मम्) मुझ से व मेरे लोक से श्रेष्ठ है। (21)
केवल हिन्दी अनुवाद: अदृश अर्थात् परोक्ष अविनाशी इस नामसे कहा गया है अज्ञान के अंधकार में छुपे गुप्त स्थान को परमगति कहते हैं जिसे प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते वह लोक मुझ से व मेरे लोक से श्रेष्ठ है। (21)
क्योंकि काल (ब्रह्म) सत्यलोक से निष्कासित है, इसलिए कह रहा है कि मेरा भी वास्तविक स्थान सत्यलोक है। मैं भी पहले वहीं रहता था तथा मेरे लोक से श्रेष्ठ है। जहाँ जाने के पश्चात् वापिस जन्म-मत्यु में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं।
गीता अध्याय 8 श्लोक 18, 20, 21, 22 अध्याय 8 के श्लोकों में दो परमात्माओं का वर्णन है। श्लोक 18 में कहा है कि सर्व प्राणी इस अव्यक्त परमात्मा अर्थात् परब्रह्म में प्रलय समय लीन हो जाते है। फिर उत्पत्ति समय उत्पन्न हो जाते हैं। श्लोक 20-21 में कहा है कि उस अव्यक्त अर्थात् परब्रह्म से दूसरा अव्यक्त परमात्मा अर्थात् पूर्ण ब्रह्म है जहाँ जाने के पश्चात् प्राणी फिर लौट कर संसार में नहीं आते। अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। एक अव्यक्त गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में है। इस प्रकार तीन परमात्मा सिद्ध हुए। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16 व 17 में है।
पुरुषः, सः, परः, पार्थ, भक्त्या, लभ्यः, तु, अनन्यया।
यस्य, अन्तःस्थानि, भूतानि, येन, सर्वम्, इदम्, ततम्।।22।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (यस्य) जिस परमात्माके (अन्तःस्थानि) अन्तर्गत (भूतानि) सर्वप्राणी हैं और (येन) जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे (इदम्) यह (सर्वम्) समस्त जगत् (ततम्) परिपूर्ण है जिस के विषय में उपरोक्त श्लोक 20, 21 में तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 17 में व अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, तथा 65, 66 में कहा है। (सः) वह (परः) परम (पुरुषः) परमात्मा (तु) तो (अनन्यया) अनन्य (भक्त्या) भक्तिसे ही (लभ्यः) प्राप्त होने योग्य है। (22)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे पार्थ! जिस परमात्माके अन्तर्गत सर्वप्राणी हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे यह समस्त जगत् परिपूर्ण है जिस के विषय में उपरोक्त श्लोक 20ए21 में तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 17 में व अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, तथा 65, 66 में कहा है। वह श्रेष्ठ परमात्मा तो अनन्य भक्तिसे ही प्राप्त होने योग्य है। (22)
यत्र, काले, तु, अनावृत्तिम्, आवृत्तिम्, च, एव, योगिनः,
प्रयाताः यान्ति, तम्, कालम्, वक्ष्यामि, भरतर्षभ।।23।।
अनुवाद: (भरतर्षभ) हे अर्जुन! (यत्र) जिस (काले) कालमें (प्रयाताः) शरीर त्यागकर गये हुए (योगिनः) योगीजन (तु) तो (अनावृत्तिम्) वापस न लौटने वाली गतिको (च) और जिस कालमें गये हुए (आवृत्तिम्) वापस लौटनेवाली गतिको (एव) ही (यान्ति) प्राप्त होते हैं (तम्) उस गुप्त (कालम्) कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको (वक्ष्यामि) कहूँगा। (23)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! जिस कालमें शरीर त्यागकर गये हुए योगीजन तो वापस न लौटने वाली गतिको और जिस कालमें गये हुए वापस लौटनेवाली गतिको ही प्राप्त होते हैं उस गुप्त कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको कहूँगा। (23)
अग्निः, ज्योतिः, अहः, शुक्लः, षण्मासाः, उत्तरायणम्,
तत्र, प्रयाताः, गच्छन्ति, ब्रह्म, ब्रह्मविदः, जनाः।।24।।
अनुवाद: (ज्योतिः) प्रकाश (अग्निः) अग्नि है (अहः) दिन का कर्ता है (शुक्लः) शुक्लपक्ष कहा है और (उत्तरायणम्) उतरायणके (षण्मासाः) छः महीनोंका अभिमानी देवता है (तत्र) उस मार्गमें (प्रयाताः) मरकर गये हुए (ब्रह्मविदः) परमात्मा को तत्व से जानने वाले (जनाः) योगीजन (ब्रह्म) परमात्मा को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं। (24)
केवल हिन्दी अनुवाद: प्रकाश अग्नि दिनका कर्ता है शुक्लपक्ष कहा है और उतरायणके छः महीनोंका है उस मार्गमें मरकर गये हुए परमात्मा को तत्व से जानने वाले योगीजन परमात्मा को प्राप्त होते हैं। (24)
धूमः, रात्रिः, तथा, कृष्णः, षण्मासाः, दक्षिणायनम्,
तत्र, चान्द्रमसम्, ज्योतिः, योगी, प्राप्य, निवर्तते।।25।।
अनुवाद: (धूमः) अन्धकार (रात्रिः) रात्रि-का कर्ता है (तथा) तथा (कृष्णः) कृष्णपक्ष (दक्षिणायनम्) दक्षिणायनके (षण्मासाः) छः महीनोंका है (तत्र) उस मार्गमें मरकर गया हुआ (योगी) योगी (चान्द्रमसम्) चन्द्रमाकी (ज्योतिः) ज्योतिको (प्राप्य) प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मोंका फल भोगकर (निवर्तते) वापस आता है। (25)
केवल हिन्दी अनुवाद: अन्धकार रात्रि-का कर्ता है तथा कृष्णपक्ष है और दक्षिणायनके छः महीनोंका है उस मार्गमें मरकर गया हुआ योगी चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मोंका फल भोगकर वापस आता है। (25)
विशेषः- उपरोक्त दोनों श्लोकों का भावार्थ परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी ने अपनी अमृतवाणी स्वसम वेद में कहा है कि
तारा मण्डल बैठ कर चाँद बड़ाई खाय। उदय हुआ जब सूरज का स्यों तारों छिप जाय’’
वाणी का अर्थः- जैसे रात्री के समय चन्द्रमा तारों की रोशनी से अधिक चमकदार होता है। परन्तु सूर्य के प्रकाश के समक्ष उस का प्रकाश समाप्त हो जाता है। यहाँ चांद तो ब्रह्म तथा परब्रह्म तथा तारे ब्रह्मा-विष्णु व शिव जाने तथा सूर्य पूर्ण परमात्मा का लाभ जाने।
शुक्लकष्णे, गती, हि, एते, जगतः, शाश्वते, मते,
एकया,याति,अनावृत्तिम्,अन्यया,आवर्तते,पुनः।।26।।
अनुवाद: (हि) क्योंकि (जगतः) जगत्के (एते) ये दो प्रकारके (शुक्लकृष्णे) शुक्ल और कृष्ण (गती) मोक्ष मार्ग (शाश्वते) सनातन (मते) माने गये हैं इनमें (एकया) एकके द्वारा गया हुआ (अनावृत्तिम्) जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता उस परमगतिको (याति) प्राप्त होता है और (अन्यया) दूसरे मार्ग द्वारा गया हुआ (पुनः) फिर (आवर्तते) वापस आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है। (26)
केवल हिन्दी अनुवाद: क्योंकि जगत्के ये दो प्रकारके शुक्ल और कृष्ण मोक्ष मार्ग सनातन माने गये हैं इनमें एकके द्वारा गया हुआ जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता उस परमगतिको प्राप्त होता है और दूसरे मार्ग द्वारा गया हुआ फिर वापस आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है। (26)
विशेष:- गीता अध्याय 8 श्लोक 27-28 का भावार्थ है कि जिन प्रभुओं (ब्रह्म-परब्रह्म तथा पूर्ण ब्रह्म) के विषय में पूर्वोक्त श्लोक 1 से 26 में ज्ञान कहा है। उन दोनों प्रभुओं से होने वाले मोक्ष लाभ से परिचित होकर बुद्धिमान व्यक्ति मोहित नहीं होता अर्थात् काल उपासना करके धोखा नहीं खाता। इसलिए कहा है कि उस पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने का मन बना।
तत्वज्ञान को समझ कर उपरोक्त ज्ञान के रहस्य को जानकर साधक पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का ही प्रयत्न करता है तथा वेदों में वर्णित साधना से होने वाले लाभ पर ही आश्रित नहीं रहता वह चारों वेदों (ऋग्वेद, सामवेद, यर्जुवेद तथा अथर्ववेद) से आगे का लाभ (जो स्वसम वेद में वर्णित है) प्राप्त करता है। उस के लिए वेदों वाली साधना से {दान, तप (तप गीता अध्याय 17 श्लोक 14 से 16 में तीन प्रकार का कहा है)तथा यज्ञ द्वारा} जो पुण्य होता है उस से होने वाला संसारिक लाभ प्राप्त न करके पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए इसे ब्रह्म में त्याग कर पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। क्योंकि वेदों में वर्णित विधि से पुण्य के आधार से स्वर्ग प्राप्ति होती है। पुण्य क्षीण होने के पश्चात् पुनः पाप के आधार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। गीता अध्याय 9 श्लोक 20-21 में वेदों में वर्णित साधना से भी जन्म-मृत्यु तथा स्वर्ग-नरक का चक्र समाप्त नहीं होता। गीता अध्याय 11 श्लोक 48 व 53 में कहा है कि वेदों में वर्णित साधना से मेरी प्राप्ति नहीं है। अध्याय 11 श्लोक 54 में कहा कि मेरे में प्रवेश होने के लिए ही कहा है मोक्ष-मुक्ति के लिए नहीं जैसे गीता ज्ञान दाता प्रतिदिन एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को काल रूप में खाता है। जैसा विवरण अध्याय 11 श्लोक 21 में अर्जुन आँखों देखा बता रहा है कि जो ऋषियों वे देवताओं का समूह आप का वेद मन्त्र द्वारा गुणगान कर रहा है आप उन्हें भी खा रहे हो। वे सर्व आप में प्रवेश कर रहे हैं। कोई आपकी दाड़ों में लटक रहे हैं इसी के विषय में श्लोक 54 में कहा है। श्लोक 55 का भी यह भावार्थ है कि मेरे साधक मेरे को प्राप्त होते है। मेरे ही जाल में रह जाते हैं। उसके लिए गीता अध्याय 8 श्लोक 28 में कहा है कि पूर्ण सन्त (तत्वदर्शी सन्त) के बताए भक्ति मार्ग से साधक वेदों में वर्णित साधना का फल स्वर्ग आदि में जाकर नष्ट नहीं करता अपितु पूर्ण परमात्मा को पाने के लिए प्रयुक्त करता है। उस वेदों वाली कमाई (ओं नाम का जाप पाँचों यज्ञों का फल) को ब्रह्म में त्यागकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करता है जिस कारण से पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में है कहा है कि हे अर्जुन मेरे सत्र की सर्व धाार्मिक पूजाऐं मेरे में त्याग कर तू उस एक (अद्वितीय) सर्वशक्तिमान परमश्ेवर की शरण में (व्रज) जा। फिर मैं तूझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा। क्योंकि जिन पापों को भोगना था उस के प्रतिफल में सर्व पूण्य व नाम जाप की कमाई छोड़ देने से काल का ऋण समाप्त हो जाता है। इसलिए काल जाल से मुक्ति मिलती है।
न,एते,सृती, पार्थ, जानन्,योगी, मुह्यति,कश्चन,
तस्मात्,सर्वेषु, कालेषु, योगयुक्तः, भव, अर्जुन।।27।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! इस प्रकार (एते) इन दोनों (सृती) मार्गों की भिन्नता को (जानन्) तत्वसे जानकर (कश्चन) कोई भी (योगी) योगी (न, मुह्यति) मोहित नहीं होता (तस्मात्) इस कारण (अर्जुन) हे अर्जुन! तू (सर्वेषु) सब (कालेषु) कालमें (योगयुक्तः) समबुद्धिरूप योगसे युक्त (भव) हो अर्थात् निरन्तर पूर्ण परमात्मा प्राप्तिके लिये साधन करनेवाला हो। (27)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों की भिन्नता को तत्वसे जानकर कोई भी योगी मोहित नहीं होता इस कारण हे अर्जुन! तू सब कालमें समबुद्धिरूप योगसे युक्त हो अर्थात् निरन्तर पूर्ण परमात्मा प्राप्तिके लिये साधन करनेवाला हो। (27)
वेदेषु, यज्ञेषु, तपःसु, च, एव, दानेषु, यत्, पुण्यफलम्, प्रदिष्टम्, अत्येति,
तत्, सर्वम्, इदम्, विदित्वा, योगी, परम्, स्थानम्, उपैति, च, आद्यम्।।28।।
अनुवाद: (योगी) साधक (इदम्) इस पूर्वोक्त रहस्य को (विदित्वा) तत्वसे जानकर (वेदेषु) वेदोंके पढ़नेंमें (च) तथा (यज्ञेषु) यज्ञ (तपःसु) तप और (दानेषु) दानादिके करनेमें (यत्) जो (पुण्यफलम्) पुण्यफल (प्रदिष्टम्) कहा है (तत्) उस (सर्वम्) सबको (एव) निःसन्देह मुझ में (अत्येति) त्याग कर वेदों से आगे वाला ज्ञान जानकर शस्त्र विधि अनुसार साधना करता है (च) तथा (आद्यम्) अन्त समय में पूर्ण परमात्मा के (परम्,स्थानम्) उत्तम लोक-सतलोक को (उपैति) प्राप्त होता है। (28)
केवल हिन्दी अनुवाद: साधक इस पूर्वोक्त रहस्य को तत्वसे जानकर वेदोंके पढ़नेंमें तथा यज्ञ तप और दानादिके करनेमें जो पुण्यफल कहा है उस सबको निःसन्देह मुझ में त्याग कर वेदों से आगे वाला ज्ञान जानकर शास्त्र विधि अनुसार साधना करता है तथा अन्त समय में पूर्ण परमात्मा के उत्तम लोक-सतलोक को प्राप्त होता है। (28)