ऊध्र्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्,
छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित्।।1।।
अनुवाद: (ऊध्र्वमूलम्) ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला (अधःशाखम्) नीचे को तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु व तमगुण शिव रूपी शाखा वाला (अव्ययम्) अविनाशी (अश्वत्थम्) विस्तारित पीपल का वृृक्ष है, (यस्य) जिसके (छन्दांसि) जैसे वेद में छन्द है ऐसे संसार रूपी वृृक्ष के भी विभाग छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ व (पर्णानि) पत्ते (प्राहुः) कहे हैं (तम्) उस संसाररूप वृक्षको (यः) जो (वेद) इसे विस्तार से जानता है (सः) वह (वेदवित्) पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है। (1)
हिन्दी: ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला नीचे को तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु व तमगुण शिव रूपी शाखा वाला अविनाशी विस्तारित पीपल का वृृक्ष है, जिसके जैसे वेद में छन्द है ऐसे संसार रूपी वृृक्ष के भी विभाग छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ व पत्ते कहे हैं उस संसाररूप वृक्षको जो इसे विस्तार से जानता है वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है।
भावार्थ:- गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि अर्जुन पूर्ण परमात्मा के तत्वज्ञान को जानने वाले तत्वदर्शी संतों के पास जा कर उनसे विनम्रता से पूर्ण परमात्मा का भक्ति मार्ग प्राप्त कर, मैं उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग नहीं जानता। इसी अध्याय 15 श्लोक 3 में भी कहा है कि इस संसार रूपी वृृक्ष के विस्तार को अर्थात् सृृष्टि रचना को मैं यहाँ विचार काल में अर्थात् इस गीता ज्ञान में नहीं बता पाऊँगा क्योंकि मुझे इस के आदि (प्रारम्भ) तथा अन्त (जहाँ तक यह फैला है अर्थात् सर्व ब्रह्मण्डों का विवरण) का ज्ञान नहीं है। तत्वदर्शी सन्त के विषय में इस अध्याय 15 श्लोक 1 में बताया है कि वह तत्वदर्शी संत कैसा होगा जो संसार रूपी वृृक्ष का पूर्ण विवरण बता देगा कि मूल तो पूर्ण परमात्मा है, तना अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म है, डार ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष है तथा शाखा तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी)है तथा पात रूप संसार अर्थात् सर्व ब्रह्मण्ड़ों का विवरण बताएगा वह तत्वदर्शी संत है।
अधः, च, ऊध्र्वम्, प्रसृृताः, तस्य, शाखाः, गुणप्रवृृद्धाः,
विषयप्रवालाः, अधः, च, मूलानि, अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि, मनुष्यलोके।।2।।
अनुवाद: (तस्य) उस वृक्षकी (अधः) नीचे (च) और (ऊध्र्वम्) ऊपर (गुणप्रवृद्धाः) तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी (प्रसृता) फैली हुई (विषयप्रवालाः) विकार- काम क्रोध, मोह, लोभ अहंकार रूपी कोपल (शाखाः) डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव (कर्मानुबन्धीनि) जीवको कर्मोंमें बाँधने की (मूलानि) जड़ें मुख्य कारण हैं (च) तथा (मनुष्यलोके) मनुष्यलोक – स्वर्ग,-नरक लोक पृथ्वी लोक में (अधः) नीचे - नरक, चैरासी लाख जूनियों में ऊपर स्वर्ग लोक आदि में (अनुसन्ततानि) व्यवस्थित किए हुए हैं। (2)
हिन्दी: उस वृक्षकी नीचे और ऊपर तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी फैली हुई विकार- काम क्रोध, मोह, लोभ अहंकार रूपी कोपल डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव जीवको कर्मोंमें बाँधने की जड़ें मुख्य कारण हैं तथा मनुष्यलोक – स्वर्ग,-नरक लोक पृथ्वी लोक में नीचे - नरक, चैरासी लाख जूनियों में ऊपर स्वर्ग लोक आदि में व्यवस्थित किए हुए हैं।
न, रूपम्, अस्य, इह, तथा, उपलभ्यते, न, अन्तः, न, च, आदिः, न, च,
सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्, एनम्, सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रोण, दृढेन, छित्वा।।3।।
अनुवाद: (अस्य) इस रचना का (न) न (आदिः) शुरूवात (च) तथा (न) न (अन्तः) अन्त है (न) न (तथा) वैसा (रूपम्) स्वरूप (उपलभ्यते) पाया जाता है (च) तथा (इह) यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी (न) नहीं है (सम्प्रतिष्ठा) क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है (एनम्) इस (सुविरूढमूलम्) अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला (अश्वत्थम्) मजबूत स्वरूपवाले (असङ्गशस्त्रोण) निर्लेप तत्वज्ञान रूपी (दृढेन्) दृढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा (छित्वा) काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर। (3)
हिन्दी: इस रचना का न शुरूवात तथा न अन्त है न वैसा स्वरूप पाया जाता है तथा यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी नहीं है क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है इस अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला मजबूत स्वरूपवाले निर्लेप तत्वज्ञान रूपी दृढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर।
ततः, पदम्, तत्, परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्, गताः, न, निवर्तन्ति, भूयः,
तम्, एव्, च, आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये, यतः, प्रवृत्तिः, प्रसृता, पुराणी।।4।।
अनुवाद: {जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए} (ततः) इसके पश्चात् (तत्) उस परमेश्वर के (पदम्) परम पद अर्थात् सतलोक को (परिमार्गितव्यम्) भलीभाँति खोजना चाहिए (यस्मिन्) जिसमें (गताः) गये हुए साधक (भूयः) फिर (न, निवर्तन्ति) लौटकर संसारमें नहीं आते (च) और (यतः) जिस परम अक्षर ब्रह्म से (पुराणी) आदि (प्रवृत्तिः) रचना-सृष्टि (प्रसृता) उत्पन्न हुई है (तम्) उस (आद्यम्) सनातन (पुरुषम्) पूर्ण परमात्मा की (एव) ही (प्रपद्ये) मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए। (4)
हिन्दी: {जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए} इसके पश्चात् उस परमेश्वर के परम पद अर्थात् सतलोक को भलीभाँति खोजना चाहिए जिसमें गये हुए साधक फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिस परम अक्षर ब्रह्म से आदि रचना-सृष्टि उत्पन्न हुई है उस सनातन पूर्ण परमात्मा की ही मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए।
निर्मानमोहाः, जितसंगदोषाः, अध्यात्मनित्याः, विनिवृत्तकामाः,
द्वन्द्वैः, विमुक्ताः, सुखदुःखसंज्ञैः, गच्छन्ति, अमूढाः, पदम्, अव्ययम्, तत्।। 5।।
अनुवाद: (निर्मानमोहाः) जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है (जितसंगदोषाः) आसक्तता नष्ट हो गई (अध्यात्मनित्याः) हर समय पूर्ण परमात्मा में व्यस्त रहते हैं (विनिवृृत्तकामाः) कामनाओं से रहित (सुखदुःखसंज्ञैः) सुख-दुःख रूपी (द्वन्द्वैः) अधंकारसे (विमुक्ताः) अच्छी तरह रहित (अमूढाः) विद्वान (तत्) उस (अव्ययम्) अविनाशी (पदम्) सतलोक स्थान को (गच्छन्ति) जाते हैं। (5)
हिन्दी: जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है आसक्तता नष्ट हो गई हर समय पूर्ण परमात्मा में व्यस्त रहते हैं कामनाओं से रहित सुख-दुःख रूपी अधंकारसे अच्छी तरह रहित विद्वान उस अविनाशी सतलोक स्थान को जाते हैं।
न, तत्, भासयते, सूर्यः, न, शशांकः, न, पावकः,
यत्, गत्वा, न, निवर्तन्ते, तत्, धाम, परमम्, मम्।।6।।
अनुवाद: (यत्) जहाँ (गत्वा) जाकर (न, निवर्तन्ते) लौटकर संसारमें नहीं आते (तत्) उस स्थान को (न) न (सूर्यः) सूर्य (भासयते) प्रकाशित कर सकता है (न) न (शशांक) चन्द्रमा और (न) न (पावकः) अग्नि ही (तत् धाम) वह सतलोक (परमम् मम्) मेरे लोक से श्रेष्ठ है। गीता जी के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने लिखा है कि ‘‘वह मेरा परम धाम है’’ यदि यह भी माने तो यह गीता बोलने वाला ब्रह्म सत्यलोक अर्थात् परम धाम से निष्कासित है, इसलिए कहा है कि मेरा परमधाम भी वही है तथा मेरे लोक से श्रेष्ठ है, जहाँ जाने के पश्चात् फिर जन्म-मृत्यु में नहीं आते। इसीलिए अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि उसी आदि पुरूष परमात्मा की मैं शरण हूँ। (6)
हिन्दी: जहाँ जाकर लौटकर संसारमें नहीं आते उस स्थान को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है न चन्द्रमा और न अग्नि ही वह सतलोक मेरे लोक से श्रेष्ठ है। गीता जी के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने लिखा है कि ‘‘वह मेरा परम धाम है’’ यदि यह भी माने तो यह गीता बोलने वाला ब्रह्म सत्यलोक अर्थात् परम धाम से निष्कासित है, इसलिए कहा है कि मेरा परमधाम भी वही है तथा मेरे लोक से श्रेष्ठ है, जहाँ जाने के पश्चात् फिर जन्म-मृत्यु में नहीं आते। इसीलिए अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि उसी आदि पुरूष परमात्मा की मैं शरण हूँ।
मम, एव, अंशः, जीवलोके, जीवभूतः, सनातनः,
मनःषष्ठानि, इन्द्रियाणि, प्रकृतिस्थानि, कर्षति।।7।।
अनुवाद: (जीवलोके) मृतलोक में (सनातनः) आदि परमात्मा (अंशः) अंश (जीवभूतः) जीवात्मा (एव) ही (प्रकृतिस्थानि) प्रकृतिमें स्थित (मम) मेरे (मनः) काल का दूसरा स्वरूप मन है इस मन व (इन्द्रियाणि) पाँच इन्द्रियों (षष्ठानि) सहित इन छःओं द्वारा (कर्षति) आकर्षित करके सताई जाती है अर्थात् कृषित की जाती है। (7)
हिन्दी: मृतलोक में आदि परमात्मा अंश जीवात्मा ही प्रकृतिमें स्थित मेरे काल का दूसरा स्वरूप मन है इस मन व पाँच इन्द्रियों सहित इन छःओं द्वारा आकर्षित करके सताई जाती है अर्थात् कृषित की जाती है।
शरीरम्, यत्, अवाप्नोति, यत्, च, अपि, उत्क्रामति, ईश्वरः,
गृृहीत्वा, एतानि, संयाति, वायुः, गन्धान्, इव, आशयात्।।8।।
अनुवाद: (वायुः) हवा (गन्धान्) गन्धको (आशयात्) ले जाती है क्योंकि गंध की वायु मालिक है (इव) इसी प्रकार (ईश्वरः) सर्व शक्तिमान प्रभु (अपि) भी इस जीवात्मा को (एतानि) इन पाँच इन्द्रियों व मन सहित सुक्ष्म शरीर (गृहीत्वा) ग्रहण करके जीवात्मा (यत्) जिस पुराने शरीरको (उत्क्रामति) त्याग कर (च) और (यत्) जिस नए (शरीरम्) शरीरको (अवाप्नोति) प्राप्त होता है उसमें संस्कारवश (संयाति) ले जाता है। गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में भी प्रमाण है। (8)
हिन्दी: हवा गन्धको ले जाती है क्योंकि गंध की वायु मालिक है इसी प्रकार सर्व शक्तिमान प्रभु भी इस जीवात्मा को इन पाँच इन्द्रियों व मन सहित सुक्ष्म शरीर ग्रहण करके जीवात्मा जिस पुराने शरीरको त्याग कर और जिस नए शरीरको प्राप्त होता है उसमें संस्कारवश ले जाता है। गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में भी प्रमाण है।
श्रोत्रम्, चक्षुः, स्पर्शनम्, च, रसनम्, घ्राणम्, एव, च,
अधिष्ठाय, मनः, च, अयम्, विषयान्, उपसेवते।।9।।
अनुवाद: (अयम्) यह परमात्मा - अंश जीव आत्मा (श्रोत्रम्) कान (चक्षुः) आँख (च) और (स्पर्शनम्) त्वचा (च) और (रसनम्) रसना (घ्राणम्) नाक (च) और (मनः) मनके (अधिष्ठाय) माध्यम से (एव) ही (विषयान्) विषयों अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि का (उपसेवते) सेवन करता है। फिर उस का कर्म भोग जीवात्मा को ही भोगना पड़ता है। (9)
हिन्दी: यह परमात्मा - अंश जीव आत्मा कान आँख और त्वचा और रसना नाक और मनके माध्यम से ही विषयों अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि का सेवन करता है। फिर उस का कर्म भोग जीवात्मा को ही भोगना पड़ता है।
उत्क्रामन्तम्, स्थितम्, वा, अपि, भु×जानम्, वा, गुणान्वितम्,
विमूढाः, न, अनुपश्यन्ति, पश्यन्ति, ज्ञानचक्षुषः।।10।।
अनुवाद: (विमूढाः) अज्ञानीजन (उत्क्रामन्तम्) अन्त समय में शरीर त्याग कर जाते हुए अर्थात् शरीर से निकल कर जाते हुए (वा) अथवा (स्थितम्) शरीरमें स्थित (वा) अथवा (भु×जानम्) भोगते हुए (गुणान्वितम्) इन गुणों वाले आत्मा से अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा को (अपि) भी (न,अनुपश्यन्ति) नहीं देखते अर्थात् नहीं जानते (ज्ञानचक्षुषः) ज्ञानरूप नेत्रोंवाले अर्थात् पूर्ण ज्ञानी (पश्यन्ति) जानते हैं। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12 से 23 तक भी है। (10)
हिन्दी: अज्ञानीजन अन्त समय में शरीर त्याग कर जाते हुए अर्थात् शरीर से निकल कर जाते हुए अथवा शरीरमें स्थित अथवा भोगते हुए इन गुणों वाले आत्मा से अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा को भी नहीं देखते अर्थात् नहीं जानते ज्ञानरूप नेत्रोंवाले अर्थात् पूर्ण ज्ञानी जानते हैं। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12 से 23 तक भी है।
यतन्तः, योगिनः, च, एनम्, पश्यन्ति, आत्मनि, अवस्थितम्,
यतन्तः, अपि, अकृतात्मानः, न, एनम्, पश्यन्ति, अचेतसः।।11।।
अनुवाद: (यतन्तः) यत्न करनेवाले (योगिनः) योगीजन (आत्मनि) अपने हृदय में (अवस्थितम्) स्थित (एनम्) इस परमात्माको जो आत्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जैसे सूर्य का ताप अपना निर्गुण प्रभाव निरन्तर बनाए रहता है को (पश्यन्ति) देखता है (च) और (अकृतात्मानः) जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध नहीं किया अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कम्र न करने वाले (अचेतसः) अज्ञानीजन तो (यतन्तः) यत्न करते रहनेपर (अपि) भी (एनम्) इसको (न, पश्यन्ति) नहीं देखते। (11)
हिन्दी: यत्न करनेवाले योगीजन अपने हृदय में स्थित इस परमात्माको जो आत्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जैसे सूर्य का ताप अपना निर्गुण प्रभाव निरन्तर बनाए रहता है को देखता है और जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध नहीं किया अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कम्र न करने वाले अज्ञानीजन तो यत्न करते रहनेपर भी इसको नहीं देखते।
विशेष:- श्लोक 12 से 15 तक पवित्र गीता बोलने वाला ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष अपनी स्थिति बता रहा है कि मेरे अन्तर्गत अर्थात् इक्कीस ब्रह्मण्डों में सर्व प्राणियों का आधार हूँ। इन ब्रह्मण्डों में जितने भी प्रकाश स्त्रोत हैं उन्हें मेरे ही जान। मैं ही वेदों को बोलने वाला ब्रह्म हूँ। वेदों व वेदान्त का कत्र्ता मैं ही हूँ। चारों वेदों को मैं ही जानता हूँ तथा चारों वेदों में मेरी ही भक्ति विधि का वर्णन है। विचार करें - जैसे उलटा लटका हुआ संसार रूपी वृृक्ष है। इसकी मूल तो आदि पुरुष परमेश्वर अर्थात् पूणब्रह्म है तथा तना अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म है, डार क्षर पुरुष अर्थात् यह गीता व वेदों को बोलने वाला ब्रह्म (काल) है। तीनों गुण रूप (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी) शाखाऐं हैं तथा पत्ते रूप अन्य प्राणी हैं, पेड़ को आहार मूल (जड़) से प्राप्त होता है। फिर वह आहार तना में जाता है, तना से डार मं鉈 तथा डार से उन शाखाओं में जाता है जो उस डार पर आधारित हैं। ऐसे ही शाखाओं से पत्तों तक आहार जाता है, परन्तु वास्तव में सर्व का पालन कत्र्ता तथा वास्तव में अविनाशी परमेश्वर परमात्मा भी इन दोनों (क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष) से अन्य परम अक्षर ब्रह्म है जो गीता अध्याय 8 श्लोक 1 तथा 3 में वर्णन है तथा विशेष वर्णन इन निम्न श्लोक 16,17 में व इसी अध्याय 15 के ही 1 से 4 तक में है। इसी अध्याय 15 के श्लोक 15 में कहा है कि मैं प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। यह काल महाशिव रूप में हृदय कमल में दिखाई देता है। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कहा है वह पूर्ण परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में विशेष रूप से स्थित है तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में भी यही प्रमाण है। इस प्रकार इस मानव शरीर वह ब्रह्म तथा पूर्ण परमात्मा व ब्रह्मा विष्णु महेश का भी इसी शरीर में दर्शन होता है। परन्तु सर्व परमात्मा दूरस्थ होकर शरीर में अलग-2 स्थानों पर दिखाई देते है।
यत्, आदित्यगतम्, तेजः, जगत्, भासयते, अखिलम्,
यत्, चन्द्रमसि, यत्, च, अग्नौ, तत्, तेजः, विद्धि, मामकम्।।12।।
अनुवाद: (आदित्यगतम्) सूर्यमें स्थित (यत्) जो (तेजः) तेज (अखिलम्) सम्पूर्ण (जगत्) जगत्को (भासयते) प्रकाशित करता है (च) तथा (यत्) जो तेज (चन्द्रमसि) चन्द्रमामें है और (यत्) जो (अग्नौ) अग्निमें है (तत्) उसको तू (मामकम्) मेरा ही (तेजः) तेज (विद्धि) जान। (12)
हिन्दी: सूर्यमें स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमामें है और जो अग्निमें है उसको तू मेरा ही तेज जान।
गाम्, आविश्य, च, भूतानि, धारयामि, अहम्, ओजसा,
पुष्णामि, च, ओषधीः, सर्वाः, सोमः, भूत्वा, रसात्मकः।।13।।
अनुवाद: (च) और (अहम्) मैं ही (गाम्) पृथ्वीमें (आविश्य) प्रवेश करके (ओजसा) शक्तिसे (भूतानि) मेरे अन्तर्गत प्राणियों को (धारयामि) धारण करता हूँ (च) और (रसात्मकः) रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय (सोमः) चन्द्रमा (भूत्वा) होकर (सर्वाः) सम्पूर्ण (ओषधीः) ओषधियोंको अर्थात् वनस्पतियोंको (पुष्णामि) पुष्ट करताहूँ। (13)
हिन्दी: और मैं ही पृथ्वीमें प्रवेश करके शक्तिसे मेरे अन्तर्गत प्राणियों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियोंको अर्थात् वनस्पतियोंको पुष्ट करताहूँ।
अहम्, वैश्वानरः, भूत्वा, प्राणिनाम्, देहम्, आश्रितः,
प्राणापानसमायुक्तः, पचामि, अन्नम्, चतुर्विधम्।।14।।
अनुवाद: (अहम्) मैं ही (प्राणिनाम्) मेरे अन्तर्गत प्राणियोंके (देहम्) शरीरमें (आश्रितः) शरण रहनेवाला (प्राणापानसमायुक्तः) प्राण और अपानसे संयुक्त (वैश्वानरः) जठराग्नि (भूत्वा)होकर (चतुर्विधम्)चार प्रकारके (अन्नम्)अन्नको (पचामि)पचाता हूँ। (14)
हिन्दी: मैं ही मेरे अन्तर्गत प्राणियोंके शरीरमें शरण रहनेवाला प्राण और अपानसे संयुक्त जठराग्नि होकर चार प्रकारके अन्नको पचाता हूँ।
सर्वस्य, च, अहम्, हृदि, सन्निविष्टः, मत्तः, स्मृृतिः, ज्ञानम्, अपोहनम्,
च, वेदैः, च, सर्वैः, अहम्, एव, वेद्यः, वेदान्तकृत्, वेदवित्, एव, च, अहम्।।
अनुवाद: (अहम्) मैं (सर्वस्य) मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों के सब प्राणियोंके (हृदि) हृदयमें (मत्तः) शास्त्रानुकूल विचार (सन्निविष्टः) स्थित करता हूँ (च) और (अहम्) मैं (एव) ही (स्मृतिः) स्मृति (ज्ञानम्) ज्ञान (च) और (अपोहनम्) अपोहन-संश्य निवारण (च) और (वेदान्तकृत्) वेदान्तका कत्र्ता (च) और (वेदवित्) वेदोंको जाननेवाला भी (अहम्) मैं (एव) ही (सर्वैः) सब (वेदैः) वेदोंद्वारा (वेद्यः) जाननेके योग्य हूँ। (15)
हिन्दी: मैं मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों के सब प्राणियोंके हृदयमें शास्त्रनुकूल विचार स्थित करता हूँ और मैं ही स्मृति ज्ञान और अपोहन-संश्य निवारण और वेदान्तका कत्र्ता और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही सब वेदोंद्वारा जाननेके योग्य हूँ।
द्वौ, इमौ, पुरुषौ, लोके, क्षरः, च, अक्षरः, एव, च,
क्षरः, सर्वाणि, भूतानि, कूटस्थः, अक्षरः, उच्यते।।16।।
अनुवाद: (लोके) इस संसारमें (द्वौ) दो प्रकारके (पुरुषौ) भगवान हैं (क्षरः) नाशवान् (च) और (अक्षरः) अविनाशी (एव) इसी प्रकार (इमौ) इन दोनों लोकों में (सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) भूतप्राणियोंके शरीर तो (क्षरः) नाशवान् (च) और (कूटस्थः) जीवात्मा (अक्षरः) अविनाशी (उच्यते) कहा जाता है। (16)
हिन्दी: इस संसारमें दो प्रकारके भगवान हैं नाशवान् और अविनाशी इसी प्रकार इन दोनों लोकों में सम्पूर्ण भूतप्राणियोंके शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है।
उत्तमः, पुरुषः, तु, अन्यः, परमात्मा, इति, उदाहृतः,
यः, लोकत्रयम् आविश्य, बिभर्ति, अव्ययः, ईश्वरः।।17।।
अनुवाद: (उत्तमः) उत्तम (पुरुषः) भगवान (तु) तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरुष से (अन्यः) अन्य ही है (यः) जो (लोकत्रयम्) तीनों लोकोंमें (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति) सबका धारण पोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) परमेश्वर (परमात्मा) परमात्मा (इति) इस प्रकार (उदाहृतः) कहा गया है। यह प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 22 में भी है। (17)
हिन्दी: उत्तम भगवान तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरुष से अन्य ही है जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर परमात्मा इस प्रकार कहा गया है। यह प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 22 में भी है।
यस्मात्, क्षरम्, अतीतः, अहम्, अक्षरात्, अपि, च, उत्तमः,
अतः, अस्मि, लोके, वेदे, च, प्रथितः, पुरुषोत्तमः।।18।।
अनुवाद: (यस्मात्) क्योंकि (अहम्) मैं (क्षरम्) नाशवान् स्थूल शरीर से तो सर्वथा (अतीतः) श्रेष्ठ हूँ (च) और (अक्षरात्) अविनाशी जीवात्मासे (अपि) भी (उत्तमः) उत्तम हूँ (च) और (अतः) इसलिये (लोके वेदे)लोक वेद में अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से वेदमें (पुरुषोत्तमः) श्रेष्ठ भगवान (प्रथितः) प्रसिद्ध (अस्मि) हूँ पवित्र गीता बोलने वाला ब्रह्म-क्षर पुरुष कह रहा है कि मैं तो लोक वेद में अर्थात् सुने-सुनाए ज्ञान के आधार पर केवल मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों में ही श्रेष्ठ प्रभु प्रसिद्ध हूँ। वास्तव में पूर्ण परमात्मा तो कोई और ही है। जिसका विवरण श्लोक 17 में पूर्ण रूप से दिया है। (18)
हिन्दी: क्योंकि मैं नाशवान् स्थूल शरीर से तो सर्वथा श्रेष्ठ हूँ और अविनाशी जीवात्मासे भी उत्तम हूँ और इसलिये लोक वेद में अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से वेदमें श्रेष्ठ भगवान प्रसिद्ध हूँ पवित्र गीता बोलने वाला ब्रह्म-क्षर पुरुष कह रहा है कि मैं तो लोक वेद में अर्थात् सुने-सुनाए ज्ञान के आधार पर केवल मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों में ही श्रेष्ठ प्रभु प्रसिद्ध हूँ। वास्तव में पूर्ण परमात्मा तो कोई और ही है। जिसका विवरण श्लोक 17 में पूर्ण रूप से दिया है।
कबीर परमात्मा ने उदाहरणार्थ कहा है:--
पीछे लागा जाऊं था लोक वेद के साथ, रस्ते में सतगुरू मिले दीपक दीन्हा हाथ।
भावार्थ है:-- कबीर प्रभु ने कहा है कि जब तक साधक को पूर्ण सन्त नहीं मिलता तब तक लोक वेद अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से साधना करता है उस आधार से कोई विष्णु जी को पूर्ण प्रभु परमात्मा कहता है कि क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म को पूर्ण ब्रह्म कहता है। परन्तु तत्वज्ञान से पता चलता है कि पूर्ण परमात्मा तो कबीर जी है।
यः, माम्, एवम्, असम्मूढः, जानाति, पुरुषोत्तमम्,
सः, सर्ववित्, भजति, माम्, सर्वभावेन, भारत।।19।।
अनुवाद: (भारत) हे भारत! (यः) जो (असम्मूढः) ज्ञानी पुरुष (माम्) मुझको (एवम्) इस प्रकार तत्वदर्शी संत के अभाव से (पुरुषोत्तमम्) पुरुषोत्तम (जानाति) जानता है (सः) वह (सर्वभावेन) सब प्रकारसे (माम्) मुझकोही (सर्ववित्) सर्वस्वा जानकर (भजति) भजता है। (19)
हिन्दी: हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्वदर्शी संत के अभाव से पुरुषोत्तम जानता है वह सब प्रकारसे मुझकोही सर्वस्वा जानकर भजता है।
इति, गुह्यतमम्, शास्त्राम्, इदम्, उक्तम्, मया, अनघ,
एतत्, बुद्ध्वा, बुद्धिमान्, स्यात्, कृतकृत्यः, च, भारत।।20।।
अनुवाद: (अनघ) हे निष्पाप (भारत) अर्जुन! (इति) इस प्रकार (इदम्) यह (गुह्यतमम्) अति रहस्ययुक्त गोपनीय (शास्त्राम्) शास्त्र (मया) मेरे द्वारा (उक्तम्) कहा गया (च) और (एतत्) इसको (बुद्ध्वा) तत्वसे जानकर (बुद्धिमान्) ज्ञानवान् (कृतकृत्यः) कृतार्थ (स्यात्) हो जाता है अर्थात् पूर्ण संत जो तत्वदर्शी संत हो उसकी तलाश करके उपदेश प्राप्त करके काल जाल से निकल जाता है। (20)
हिन्दी: हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया और इसको तत्वसे जानकर ज्ञानवान् कृतार्थ हो जाता है अर्थात् पूर्ण संत जो तत्वदर्शी संत हो उसकी तलाश करके उपदेश प्राप्त करके काल जाल से निकल जाता है।