(Bhagwan uvaach)
SannyaasH, karmyogH, ch, niHshreyaskarau, ubhau,
TayoH, tu, karmsannyaasaat, karmyogH, vishishyate ||2||
(God said)
Translation: Because of not finding a Tatvdarshi saint and as a result not being aware of the true bhakti (sannyaasH) inspired by the urge to attain God a devotee’s, who has obtained sadhna opposite to the scriptures, departure into the forest on abandoning home, or on abandoning action sitting in one place closing nose, ears etc, or doing meditation (ch) and (karmyogH) also doing sadhna devoid of the injunctions of the scriptures while performing actions (ubhau) both are useless i.e. are not auspicious and are not to be done. Those who do sadhna according to the injunctions of the scriptures and taking Sanyas/renunciation live in monastery and do not take karm sanyas/renunciation of actions, and those who after getting married stay at home, the way of worship of both of them (niHshreyaskarau) is not inauspicious (tu) but (tayoH) in above-mentioned these two also (karmsannyaasaat) if even after staying in a monastery one is work-thief, then compared to that Karm Sanyas (KarmyogH) Karmyog i.e. doing scripture-based sadhna while performing worldly actions (vishishyate) is superior. (2)
Because of not finding a Tatvdarshi saint and as a result not being aware of the true bhakti, a devotee’s, who has obtained sadhna opposite to the scriptures, departure into the forest on abandoning home inspired by the urge to attain God, or abandoning actions sitting in one place closing nose, ears etc or doing meditation, and also doing sadhna devoid of the injunctions of the scriptures while performing actions, both are useless i.e. are not auspicious and are not to be done. Those who do sadhna according to the injunctions of the scriptures and taking Sanyas (renunciation) live in monastery, and do not take karm sanyas (renunciation of actions), and those who after getting married stay at home, the way of worship of both of them is not inauspicious, but in above-mentioned these two also if even after staying in a monastery one is work-thief, then compared to that Karm Sanyas, Karmyog i.e. doing scripture-based sadhna while performing worldly actions is superior.
This same evidence is given in Gita Adhyay 18 Shlok 41 to 46 that the individuals of the four castes (Brahmin, Kshatriya, Vaishya and Shudr) whilst during their natural tasks attain supreme success i.e. complete salvation. Regarding supreme success it has been clarified in Shlok 46 that the Supreme God from whom all the living beings have originated, from whom this entire universe is pervading, by worshipping that Supreme God through one’s natural actions, one attains supreme success i.e. whilst doing actions a true worshipper attains complete salvation. It has been clarified in Adhyay 18 Shlok 47 that compared to one who does worship opposed to the scriptures (Karm Sanyas), one who worships according to the injunctions of the scriptures (while performing actions) is superior because a worshipper who performs his actions does not incur sin. This also proves that it is a sin to do Hath after taking Karm Sanyas. It has been clarified in Shlok 48 that one should not abandon one’s natural actions even if some sin is perceived in it. Like, living beings get killed while farming etc-etc.
The meaning of the above-mentioned Shlok 2 is that the worshippers who are not in accord with the scriptures are of two types: one is Karm Sanyasi; second, Karmyogi. Because of absence of a Tatvdarshi Saint and being opposed to the scriptures the way of worship of both of them is inauspicious i.e. is not beneficial and is not to be done. Like in Gita Adhyay 16 Shlok 23, it is said that abandoning the injunctions of the scriptures, arbitrary behaviour i.e. arbitrary way of worship is useless. In Shlok 24 it is said that the religious practice of the path of bhakti which is to be done and which is not to be done, for that the scriptures alone should be considered to be the evidence. It is mentioned in the scriptures (Gita and Vedas) that for complete salvation find a Tatvdarshi Saint. Obtain the way of bhakti with courtesy from him only. Evidence – Gita Adhyay 4 Shlok 34, Yajurved Adhyay 40 Mantra 10 and 13. In both of these a Karmyogi is better than a Karm Sanyasi because when a Karmyogi, whose way of worship is opposite to the scriptures, gets the satsang (spiritual discourse) of a Tatvdarshi saint, he immediately gives up his scripture-opposed way of worship and gets his welfare done by following scripture-based way of worship. But both the types of Karm Sanyasi, Hath-yogi (who forcefully practices physical discipline), who even while staying at home, closing their ears and eyes sit in one place and practice Hath-yog, and those who abandoning home practice the aforesaid Hath-yog, out of ego, do not accept the knowledge delivered by a Tatvdarshi saint because they become arrogant of their renunciation and the supernatural powers obtained from Hath-yog. Even the pride of renouncing home is a hinderance in attaining true bhakti. Amongst crores of Karm Sanyasis seldom does someone accept the true bhakti. Therefore a Karmyogi worshipper, who acts against the scriptures, is better than a Karm Sanyasi worshipper who acts against the scriptures.
Two types of ways of worship have been described in Gita Adhyay 2 Shlok 39 to 53 and Adhyay 3 Shlok 3. Regarding them it is said that the way of worship told by me is my opinion, which both of them are inauspicious and not to be done. Know the complete knowledge which is the giver of complete salvation from a Tatvdarshi Saint; evidence is in Gita Adhyay 4 Shlok 33-34. This same evidence is in Gita Adhyay 6 Shlok 46. In this it is said that compared to a Karmyogi whose way of worship is opposite to the scriptures, a scripture-based yogi is superior.
सóयासः, कर्मयोगः, च, निःश्रेयसकरौ, उभौ,
तयोः, तु, कर्मसóयासात्, कर्मयोगः, विशिष्यते।।2।।
अनुवाद: तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण वास्तविक भक्ति का ज्ञान न होने से (सóयासः) शास्त्रा विधि रहित साधना प्राप्त साधक प्रभु प्राप्ति से विशेष प्रेरित होकर गृहत्याग कर वन में चला जाना या कर्म त्याग कर एक स्थान पर बैठ कर कान नाक आदि बंद करके या तप आदि करना (च) तथा (कर्मयोगः) शास्त्रा विधि रहित साधना कर्म करते-करते भी करना (उभौ) दोनों ही व्यर्थ है अर्थात् श्रेयकर नहीं हैं तथा न करने वाली है शास्त्राविधी अनुसार साधना करने वाले जो सन्यास लेकर आश्रम में रहते हैं तथा कर्म सन्यास नहीं लेते तथा जो विवाह करा कर घर पर रहते हैं उन दोनों की साधना ही (निश्रेयसकरौ) अमंगलकारी नहीं हैं (तु) परन्तु (तयोः) उपरोक्त उन दोनोंमें भी (कर्मसóयासात्) यदि आश्रम रह कर भी काम चोर है उस कर्मसंन्याससे (कर्मयोगः) कर्मयोग संसारिक कर्म करते-करते शास्त्रा अनुसार साधना करना (विशिष्यते) श्रेष्ठ है। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 41 से 46 में कहा है कि चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्राी, वैश्य तथा शुद्र) के व्यक्ति भी अपने स्वभाविक कर्म करते हुए परम सिद्धी अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। परम सिद्धी के विषय में स्पष्ट किया है श्लोक 46 में कि जिस परमात्मा परमेश्वर से सर्व प्राणियों की उत्पति हुई है जिस से यह समस्त संसार व्याप्त है, उस परमेश्वर कि अपने-2 स्वभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धी को प्राप्त हो जाता हैं अर्थात् कर्म करता हुआ सत्य साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। अध्याय 18 श्लोक 47 में स्पष्ट किया है कि शास्त्रा विरूद्ध साधना करने वाले (कर्म सन्यास) से अपना शास्त्रा विधी अनुसार (कर्म करते हुए) साधना करने वाला श्रेष्ठ है। क्योंकि अपने कर्म करता हुआ साधक पाप को प्राप्त नहीं होता। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि कर्म सन्यास करके हठ करना पाप है। श्लोक 48 में स्पष्ट किया है कि अपने स्वाभाविक कर्मों को नहीं त्यागना चाहिए चाहे उसमें कुछ पाप भी नजर आता है। जैसे खेती करने में जीव मरते हैं आदि-2।
भावार्थ: उपरोक्त मंत्र नं. 2 का भावार्थ है कि जो शास्त्रा विरुद्ध साधक हैं वे दो प्रकार के हैं, एक तो कर्म सन्यासी, दूसरे कर्म योगी। उन की दोनों प्रकार की साधना जो तत्वदर्शी सन्त के अभाव से शास्त्राविरूद्ध होने से श्रेयकर अर्थात् कल्याण कारक नहीं है तथा दोनों प्रकार की शास्त्राविरूद्ध साधना न करने वाली है। जैसे गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में कहा है कि शास्त्रा विधि को त्यागकर मनमाना आचरण अर्थात् पूजा व्यर्थ है। श्लोक 24 में कहा है कि भक्ति मार्ग की जो साधना करने वाली है तथा न करने वाली उसके लिए शास्त्रों को ही प्रमाण मानना चाहिए। शास्त्रों (गीता व वेदों) में कहा है कि पूर्ण मोक्ष के लिए किसी तत्वदर्शी सन्त की खोज करो। उसी से विनम्रता से भक्ति मार्ग प्राप्त करें। प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34ए यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्रा 10 व 13 में इन दोनों में कर्मसन्यासी से कर्मयोगी अच्छा है, क्योंकि कर्मयोगी जो शास्त्रा विधि रहित साधना करता है, उसे जब कोई तत्वदर्शी संत का सत्संग प्राप्त हो जायेगा तो वह तुरन्त अपनी शास्त्रा विरुद्ध पूजा को त्याग कर शास्त्रा अनुकूल साधना पर लग कर आत्म कल्याण करा लेता है। परन्तु कर्म सन्यासी दोनों ही प्रकार के हठ योगी घर पर रहते हुए भी, जो कान-आंखें बन्द करके एक स्थान पर बैठ कर हठयोग करने वाले तथा घर त्याग कर उपरोक्त हठ योग करने वाले तत्वदर्शी संत के ज्ञान को मानवश स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उन्हें अपने त्याग तथा हठयोग से प्राप्त सिद्धियों का अभिमान हो जाता है तथा गृह त्याग का भी अभिमान सत्यभक्ति प्राप्ति में बाधक होता है। इसलिए शास्त्राविधि रहित कर्मसन्यासी से शास्त्रा विरुद्ध कर्मयोगी साधक ही अच्छा है। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 41 से 46 में कहा है कि चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्राी, वैश्य तथा शुद्र) के व्यक्ति भी अपने स्वभाविक कर्म करते हुए परम सिद्धी अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। परम सिद्धी के विषय में स्पष्ट किया है श्लोक 46 में कि जिस परमात्मा परमेश्वर से सर्व प्राणियों की उत्पति हुई है जिस से यह समस्त संसार व्याप्त है, उस परमेश्वर कि अपने-2 स्वभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धी को प्राप्त हो जाता हैं अर्थात् कर्म करता हुआ सत्य साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। अध्याय 18 श्लोक 47 में स्पष्ट किया है कि शास्त्रा विरूद्ध साधना करने वाले (कर्म सन्यास) से अपना शास्त्रा विधी अनुसार (कर्म करते हुए) साधना करने वाला श्रेष्ठ है। क्योंकि अपने कर्म करता हुआ साधक पाप को प्राप्त नहीं होता। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि कर्म सन्यास करके हठ करना पाप है। श्लोक 48 में स्पष्ट किया है कि अपने स्वाभाविक कर्मों को नहीं त्यागना चाहिए चाहे उसमें कुछ पाप भी नजर आता है। जैसे खेती करने में जीव मरते हैं आदि-2।
विशेष:- गीता अध्याय 2 श्लोक 39 से 53 तक तथा अध्याय 3 श्लोक 3 में दो प्रकार की साधना बताई है। उनके विषय में कहा है कि मेरे द्वारा बताई साधना तो मेरा मत है। जो दोनों ही अमंगल कारी तथा न करने वाली है। पूर्ण ज्ञान जो मोक्षदायक है किसी तत्वदर्शी सन्त से जान गीता अध्याय 4 श्लोक 33.34 में प्रमाण है। यही प्रमाण गीता अध्याय 6 श्लोक 46 में है कहा है शास्त्रा विरूद्ध साधना करने वाले कर्मयोगी से शास्त्राविद् योगी श्रेष्ठ है।