अध्याय 18 श्लोक 1: हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन! केशिनाशक संन्यास और त्यागके तत्वको पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ।
अध्याय 18 श्लोक 2: पण्डितजन तो मनोकामना के लिए किए धार्मिक कर्मोंके त्यागको संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मोंके फलके त्यागको त्याग कहते हैं।
अध्याय 18 श्लोक 3: कई एक विद्वान् ऐसा कहते हैं कि शास्त्रा विधि रहित भक्ति कर्म दोषयुक्त हैं इसलिये त्यागनेके योग्य हैं और दूसरे विद्वान् यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूपी कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।
अध्याय 18 श्लोक 4: हे शेर पुरुष अर्जुन! संन्यास और त्याग इन दोनोंमेसे पहले त्यागके विषयमें तू मेरा निश्चय सुन क्योंकि त्याग तीन प्रकारका कहा गया है।
अध्याय 18 श्लोक 5: यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करनेके योग्य नहीं है बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है क्योंकि यज्ञ दान और तप ही कर्म बुद्धिमान् पुरुषोंको पवित्र करनेवाले हैं।
अध्याय 18 श्लोक 6: हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंको तथा भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको आसक्ति और फलोंका त्याग करके करना चाहिए यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।
अध्याय 18 श्लोक 7: परंतु नियत शास्त्रानुकूल कर्मका त्याग उचित नहीं है मोहके कारण अज्ञानता वश भाविक होकर उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है।
अध्याय 18 श्लोक 8: जो कुछ भक्ति साधना का व शरीर निर्वाह के लिए कर्म है दुःखरूप ही है ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेशके भयसे अर्थात् कार्य करने को कष्ट मानकर कर्तव्य कर्मोंका त्याग कर दे तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्यागके फलको किसी प्रकार भी नहीं पाता।
अध्याय 18 श्लोक 9: हे अर्जुन! जो शास्त्रानुकूल कर्म करना कर्तव्य है इसी भावसे आसक्ति और फलका त्याग करके किया जाता है वही सात्विक त्याग माना गया है।
अध्याय 18 श्लोक 10: अकुशल कर्मसे तो ) द्वेष नहीं करता और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता वह सत्वगुणसे युक्त पुरुष संश्यरहित बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है।
अध्याय 18 श्लोक 11: क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्यके द्वारा सम्पूर्णतासे सब कर्मोंका त्याग किया जाना शक्य नहीं है जो कर्मफलका त्यागी है वही त्यागी है यह कहा जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 12: कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका शुभ अशुभ और मिला हुआ तीन प्रकारका फल मरनेके पश्चात् होता है किंतु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका फल किसी कालमें भी नहीं होता ।
अध्याय 18 श्लोक 13: हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके ये पाँच हेतु कर्मोंका अन्त करनेके लिये उपाय बतलानेवाले सांख्यशास्त्रामें कहे गये हैं उनको तू मुझसे भलीभाँति जान।
अध्याय 18 श्लोक 14: इस विषयमें अर्थात् कर्मोंकी सिद्धिमें अधिष्ठान और कत्र्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकारके करण एवं नाना प्रकारकी अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव अर्थात् ईश्वरीय देन है।
अध्याय 18 श्लोक 15: मनुष्य मन, वाणी और शरीरसे शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है उसके ये पाँचों कारण हैं।
अध्याय 18 श्लोक 16: परंतु ऐसा होनेपर भी जो मनुष्य अशुद्धबुद्धि होने के कारण उस विषयमें यानी कर्मोंके होनेमें केवल जीवात्मा अर्थात् जीव को कत्र्ता समझता है वह दुर्बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता।
अध्याय 18 श्लोक 17: जिसे ‘मैं कत्र्ता हूँ‘ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि लिपायमान नहीं होती वह इन सब लोकोंको मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है।
अध्याय 18 श्लोक 18: ज्ञाता ज्ञान और ज्ञेय यह तीन प्रकारकी कर्म-प्रेरणा है और कत्र्ता करनी तथा क्रिया यह तीन प्रकारका कर्म-संग्रह है।
अध्याय 18 श्लोक 19: गुणोंकी संख्या करनेवाले शास्त्रामें ज्ञान और कर्म तथा कत्र्ता गुणोंके भेदसे तीन-तीन प्रकारके ही कहे गए हैं। उनको भी तू मुझसे भलीभाँति सुन।
अध्याय 18 श्लोक 20: जिस ज्ञानसे मनुष्य पृथक्-पृथक् सब प्राणियोंमंि एक अविनाशी परमात्मा भावको विभागरहित समभावसे स्थित देखता है उस ज्ञानको तो तू सात्विक जान।
अध्याय 18 श्लोक 21: किंतु जो ज्ञान सम्पूर्ण प्राणियोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारके नाना भावोंको अलग-अलग जानता है उस ज्ञानको तू राजस जान।
अध्याय 18 श्लोक 22: परंतु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीरमें ही सम्पूर्णके सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला बिना सोचे व बिना कारण के तुच्छ है वह तामस कहा गया है।
अध्याय 18 श्लोक 23: जो कर्म शास्त्रानुकूल कत्र्तापनके अभिमानसे रहित हो तथा फल न चाहनेवाले द्वारा बिना राग द्वेषके किया गया हो वह सात्विक कहा जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 24: परंतु जो कर्म बहुत परिश्रमसे युक्त होता है तथा भोगोंको चाहनेवाले पुरुष या अहंकारयुक्त किया जाता है वह कर्म राजस कहा गया है।
अध्याय 18 श्लोक 25: जो कर्म परिणाम हानि हिंसा और सामथ्र्यको न विचारकर केवल अज्ञानसे आरम्भ किया जाता है वह कर्म तामस कहा जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 26: कत्र्ता संगरहित अहंकारके वचन न बोलनेवाला धैर्य और उत्साहसे युक्त तथा कार्यके सिद्ध होने और न होनेमें विकारोंसे रहित सात्विक कहा जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 27: कत्र्ता आसक्तिसे युक्त कर्मोंके फलको चाहनेवाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देनेके स्वभाववाला अशुद्धाचारी और हर्ष-शोकसे लिप्त है वह राजस कहा गया है।
अध्याय 18 श्लोक 28: कत्र्ता अयुक्त स्वभाविक घमण्डी धूर्त और दूसरों की जीविकाका नाश करनेवाला तथा शोक करनेवाला आलसी और आज के कार्य को कल पर छोड़ना तामस कहा जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 29: हे धनंजय! अब तू बुद्धिका और धृतिका भी गुणोंके अनुसार तीन प्रकारका भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णतासे विभागपूर्वक कहा जानेवाला सुन।
अध्याय 18 श्लोक 30: हे पार्थ! जो बुद्धि प्रवृतिमार्ग और निवृतिमार्गको कर्तव्य और अकर्तव्यको भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको यथार्थ जानती है वह बुद्धि सात्विकी है।
अध्याय 18 श्लोक 31: हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धिके द्वारा धर्म और अधर्मको तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको भी यथार्थ नहीं जानता वह बुद्धि राजसी है।
अध्याय 18 श्लोक 32: हे अर्जुन! जो तमोगण्ुासे घिरी हुई बुद्धि अर्धमको भी ‘यह धर्म है‘ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सम्पूर्ण पदार्थोको भी विपरीत मान लेती है वह बुद्धि तामसी है।
अध्याय 18 श्लोक 33: हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी एक इष्ट पर आधारित धारणशक्तिसे मनुष्य भक्तियोगके द्वारा मन, स्वांस और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको धारण करता है वह धृति सात्विकी है।
अध्याय 18 श्लोक 34: परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फलकी इच्छावाला मनुष्य जिस धारणशक्तिके द्वारा अत्यन्त आसक्तिसे धर्म, अर्थ और कामोंको धारण करता है वह धारणभक्ति राजसी है।
अध्याय 18 श्लोक 35: हे पार्थ! नीच स्वभाव वाला जिस निंद्रा भय चिन्ता और दुःखको तथा नशे को भी नहीं छोड़ता वह भक्तिधारणा तामसी है।
अध्याय 18 श्लोक 36-37: हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकारके सुखको भी तू मुझसे सुन। जिस भजन अभ्यासमें लीन रहता है और जिससे दुःखोंके अन्तको प्राप्त हो जाता है जो ऐसा सुख है वह आरम्भकालमें यद्यपि विषके तुल्य प्रतीत होता है परंतु परिणाममें अमृतके तुल्य है इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाला सुख सात्विक कहा गया है।
अध्याय 18 श्लोक 38: जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है वह पहले भोगकालमें अमृतके तुल्य प्रतीत होनेपर भी परिणाममें विषके तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।
अध्याय 18 श्लोक 39: जो सुख तथा पहले भोगकालमें तथा परिणाममें आत्माको मोहित करनेवाला है वह निंद्रा आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है।
अध्याय 18 श्लोक 40: पृथ्वीमें या आकाशमें अथवा देवताओंमें फिर कहीं भी वह ऐसा कोई भी सत्व नहीं है जो प्रकृृतिसे उत्पन्न इन तीनों गुणोंसे रहित हो।
अध्याय 18 श्लोक 41: हे परन्तप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके तथा शूद्रोंके कर्म स्वभावसे उत्पन्न गुणोंके द्वारा विभक्त किये गये हैं।
अध्याय 18 श्लोक 42: छूआ छूत रहित तथा सुख दुःख को प्रभु कृप्या जानना इन्द्रियोंका दमन करना धार्मिंक नियमों के पालनके लिये कष्ट सहना बाहर-भीतरसे शुद्ध रहना अर्थात् छलकपट रहित रहना दूसरोंके अपराधोंको क्षमा करना मन, इन्द्रिय और शरीरको सरल रखना शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति से परमेश्वर तथा उसके सत्लोक में श्रद्धा रखना प्रभु भक्ति बहुत आवश्यक है। नहीं तो मानव जीवन व्यर्थ है, यह साधारण ज्ञान तथा पूर्ण परमात्मा कौन है, कैसा है? उसकी प्राप्ति की विधि क्या है इस प्रकार का ज्ञान और परमात्माके तत्वज्ञान को जानना तथा अन्य तीनों वर्णों को शास्त्रा विधि अनुसार साधना समझाना ही ब्रह्म के विषय में कत्र्तव्य कर्म को जानने वाले ब्रह्मण के कर्म हैं। जो स्वभाव जनित होते हैं क्योंकि भगवान प्राप्ति के विषय में भक्त के स्वाभाविक कर्म हैं।
अध्याय 18 श्लोक 43: शूर-वीरता तेज धैर्य चतुरता और युद्धमें भी न भागना दान देना और पूर्ण परमात्मामंे रूचि स्वामिभाव ये सब के सब ही क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं।
अध्याय 18 श्लोक 44: खेती, गऊ रक्षा और उदर के लिए परमात्मा प्राप्ति का सौदा करना ये वैश्यके स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णोंकी सेवा तथा पूर्ण प्रभु की भक्ति करना शूद्रका भी स्वाभाविक कर्म है।
अध्याय 18 श्लोक 45: अपने-अपने स्वाभाविक व्यवहारिक कर्मों तथा सत् भक्ति रूपी कर्मों में तत्परतासे लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है अपने स्वाभाविक कर्ममें लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकारसे परम सिद्धिको प्राप्त होता है उस विधिको तू सुन।
अध्याय 18 श्लोक 46: जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह माया रूप समस्त जगत् व्याप्त है उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा अर्थात् हठ योग न करके सांसारिक कार्य करता हुआ पूजा करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 47: गुण रहित स्वयं मनमाना अर्थात् शास्त्रा विधि रहित अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरेके धर्म अर्थात् धार्मिक पूजा से अपना धर्म अर्थात् शास्त्रा विधि अनुसार धार्मिक पूजा श्रेष्ठ है अपने वर्ण के स्वभाविक अर्थात् जो भी जिस क्षत्री, वैश्य, ब्राह्मण व शुद्र वर्ण में उत्पन्न है कर्म तथा भक्ति कर्म करता हुआ पापको प्राप्त नहीं होता।
अध्याय 18 श्लोक 48: हे कुन्तीपुत्र! दोष युक्त होने पर भी सहज योग अर्थात् वर्णानुसार कार्य करते हुए शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति कर्मको नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धूएँसे अग्निकी भाँति सभी कर्म दोषसे युक्त हैं।
अध्याय 18 श्लोक 49: सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला स्पृहारहित और बुरे कर्मों से विजय प्राप्त भक्त आत्मा तत्व ज्ञान के अतिरिक्त सर्व ज्ञनों से सन्यास प्राप्त करने वाले द्वारा उस परम अर्थात् सर्व श्रेष्ठ पूर्ण पाप विनाश होने पर जो पूर्ण मुक्ति होती है, उस सिद्धि अर्थात् परमगति को प्राप्त होता है।
अध्याय 18 श्लोक 50: जो कि ज्ञानकी श्रेष्ठ उपलब्धि है उस नैष्कम्र्यसिद्धिको जिसे प्राप्त होकर परमात्मा को प्राप्त होता ह उस प्रकारको हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेपमें ही मुझसे समझ।
अध्याय 18 श्लोक 51: विशुद्ध बुद्धिसे युक्त तथा सात्विक धारण शक्ति के द्वारा अपने आप को संयमी करके और शब्दादी विकारों को त्यागकर राग द्वेष को सर्वदा नष्ट करके
गीता अध्याय 18 श्लोक 52: अन्न जल का संयमी व्यर्थ वार्ता से बच कर एकान्त प्रेमी मन-कर्म वचन पर संयम करने वाला निरन्तर सहज ध्यान योग के प्रायाण वैराग्य का आश्रय लेने वाला
गीता अध्याय 18 श्लोक 53: अहंकार शक्ति घमण्ड काम अर्थात् विलास क्रोध परिग्रह अर्थात् आवश्यकता से अधिक संग्रह का त्याग करके ममता रहित शान्त साधक पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने का पात्र होता है।
अध्याय 18 श्लोक 54: परमात्मा प्राप्ति योग्य हुआ प्राणी प्रसन्न मनवाला योगी न शोक करता है न आकांक्षा ही करता है ऐसा समस्त प्राणियोंमें एक जैसा भाव वाला मेरे वाली शास्त्रानुकूल श्रेष्ठ भक्ति को प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 55: वह भक्त मुझ को जो और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा तत्वसे जान लेता है तथा उस भक्तिसे मुझको तत्वसे जानकर तत्काल ही पूर्ण परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 56: मेरे द्वारा बताए शास्त्रानुकूल मार्ग के आश्रित अर्थात् मतावलम्बी सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरे उस मत अर्थात् शास्त्रानुकूल साधना के पूर्ण ज्ञान की कृृप्यासे सनातन अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 18 श्लोक 57: सब कर्मोंको मनसे त्याग कर तथा ज्ञान योगको आश्रय करके मेरे मत पर आधारित होकर और निरन्तर मेरे में चितवाला हो।
अध्याय 18 श्लोक 58: मेरे में चितवाला होकर तू मेरे द्वारा बताई शास्त्रानुकूल विचार धारा की कृप्यासे समस्त संकटोंको अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकारके कारण मेरे वचनोंको न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् योग भ्रष्ट हो गया तो नष्ट हो जाएगा। यही प्रमाण अध्याय 6 श्लोक 40.46 तक है।
अध्याय 18 श्लोक 59: जो तू अहंकारका आश्रय लेकर यह मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है क्योंकि तेरा क्षत्री स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्धमें लगा देगा।
अध्याय 18 श्लोक 60: हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्मको तू मोहके कारण करना नहीं चाहता उसको भी अपनेपूर्वकृत स्वाभाविक क्षत्री कर्मसे बँधा हुआ परवश होकर करेगा।
अध्याय 18 श्लोक 61: हे अर्जुन! शरीररूप यन्त्रामें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी ईश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमण करवाता हुआ सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित है।
अध्याय 18 श्लोक 62: हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपा से ही तू परम शान्तिको तथा सदा रहने वाला सत स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सत्लोक को प्राप्त होगा।
अध्याय 18 श्लोक 63: इस प्रकार गोपनीयसे अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया इस रहस्ययुक्त ज्ञानको पूर्णतया भलीभाँति विचारकर जैसे चाहता है वैसे ही कर।
अध्याय 18 श्लोक 64: सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त हितकारक वचन तुझे फिर कहूँगा इसे सुन यह पूर्ण ब्रह्म मेरा पक्का निश्चित इष्टदेव अर्थात् पूज्यदेव है।
अध्याय 18 श्लोक 65: एक मनवाला मेरा मतानुसार भक्त हो मतानुसार मेरा पूजन करनेवाला मुझको प्रणाम कर। मुझे ही प्राप्त होगा तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ मेरा अत्यन्त प्रिय है।
अध्याय 18 श्लोक 66: गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 66 में भी उसी के विषय में कहा है कि मेरी सम्पूर्ण पूजाओंको मुझ में त्यागकर तू केवल एक उस अद्वितीय अर्थात् पूर्ण परमात्मा की शरणमें जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे छुड़वा दूँगा तू शोक मत कर।
अध्याय 18 श्लोक 67: तुझे यह गीतारूप रहस्यमय उपदेश किसी भी कालमें न तो तपरहित मनुष्यसे कहना चाहिए न भक्तिरहितसे और न बिना सुननेकी इच्छावालेसे ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृृष्टि रखता है नहीं कहना चाहिए।
अध्याय 18 श्लोक 68: जो पुरुष मुझमें परम भक्ति करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्राो भक्तोंमें कहेगा वह मुझको ही प्राप्त हेागा इसमें कोई संदेह नहीं है।
अध्याय 18 श्लोक 69: उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं।
अध्याय 18 श्लोक 70: जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनोंके संवादरूप गीताशास्त्रको पढ़ेगा उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञसे पूज्यदेव होऊँगा ऐसा मेरा मत है।
अध्याय 18 श्लोक 71: जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोष-दृष्टिसे रहित होकर इस गीताशास्त्रका श्रवण भी करेगा, वह भी मुक्त होकर उत्तम कर्म करनेवालोंके श्रेष्ठ लोकोंको प्राप्त होगा।
अध्याय 18 श्लोक 72: हे पार्थ! क्या इस गीताशास्त्राको तूने एकाग्रचितसे श्रवण किया और हे धन×जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया।
अध्याय 18 श्लोक 73: हे अच्युत! आपकी कृप्यासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया संश्यरहित होकर स्थित हूँ अतः आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
अध्याय 18 श्लोक 74: इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेवके और महात्मा अर्जुनके इस अद्भुत रहस्ययुक्त रोमांचकारक संवादको सुना।
अध्याय 18 श्लोक 75: श्रीव्यासजीकी कृप्यासे दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योगको अर्जुनके प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णसे प्रत्यक्ष सुना है।
अध्याय 18 श्लोक 76: हे राजन् भगवान् श्रीकृृष्ण और अर्जुनके इस रहस्ययुक्त कल्याणकारक और अद्भुत संवादको पुनः-पुनः सुमरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
अध्याय 18 श्लोक 77: हे राजन्! श्रीहरिके उस अत्यन्त विलक्षण रूपको भी पुनः-पुनः सुमरण करके मेरे चितमें महान् आश्चर्य होता है और बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
अध्याय 18 श्लोक 78: जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं वहींपर श्री विजय विभूति और अचल नीति है मेरा मत है।