श्रीमद भगवद गीता अध्याय 2

श्रीमद भगवद गीता अध्याय 2

अध्याय 2 श्लोक 1: और उस प्रकार करुणासे व्याप्त और आँसुओंसे पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त मोह रूपी अंधकार में डूबे उस अर्जुनके प्रति भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा।

अध्याय 2 श्लोक 2: हे अर्जुन! तुझे इस दुःखदाई असमयमें यह मोह किस हेतुसे प्राप्त हुआ? क्योंकि यह अश्रेष्ठ पुरुषोंका चरित है न स्वर्गको देनेवाला है और अपकीर्तिको करनेवाला ही है।

अध्याय 2 श्लोक 3: हे अर्जुन! नपंुसकताको मत प्राप्त हो तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्यागकर युद्धके लिये खड़ा हो जा।

अध्याय 2 श्लोक 4: हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें किस प्रकार बाणोंसे भीष्मपितामह और द्रोणाचार्यके विरुद्ध लडूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं।

अध्याय 2 श्लोक 5: महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर मैं इस लोकमें भिक्षाका अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनोंको मारकर भी इस लोकमें रुधिरसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोगोंको ही तो भोगूँगा।

अध्याय 2 श्लोक 6: तथा यह नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना इन दोनोंमेंसे कौन-सा श्रेष्ठ है अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्रके पुत्र मुकाबलेमें खड़े हैं।

अध्याय 2 श्लोक 7: कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो वह मेरे लिए कहिये क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये।

अध्याय 2 श्लोक 8: क्योंकि भूमिमें निष्कण्टक धनधान्य-सम्पन्न राज्यको और देवताओंके स्वामीपनेको प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ जो मेरी इन्द्रियोंके सूखानेवाले शोकको समाप्त कर सकें।

भावार्थ:- अर्जुन कह रहा है कि भगवन यदि मुझे सारी पृथ्वी का राज्य प्राप्त हो चाहे देवताओं का भी स्वामी अर्थात् इन्द्र पद प्राप्त हो, मैं नहीं देखता हूं कि कोई मुझे युद्ध के लिए तैयार कर सकता है अर्थात् मैं युद्ध नहीं करूंगा, ऐसे कह कर चुप हो गया।

अध्याय 2 श्लोक 9: हे राजन्! निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान्से युद्ध नहीं करूँगा यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये।

अध्याय 2 श्लोक 10: हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओंके बीचमें शोक करते हुए उस अर्जुनको हँसते हुए से यह वचन बोले।

अध्याय 2 श्लोक 11: तू न शोक करने योग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके से वचनोंको कहता है परंतु जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते।

अध्याय 2 श्लोक 12: न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।

अध्याय 2 श्लोक 13: जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन जवानी और वृद्धावस्था होती है वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता।

अध्याय 2 श्लोक 14: हे कुन्तीपुत्र! सर्दी गर्मी और सुख-दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयोंके संयोग तो उत्पत्ति विनाशशील और अनित्य हैं इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।

अध्याय 2 श्लोक 15: क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर अर्थात् तत्वदर्शी पुरुषको ये व्याकुल नहीं करते वह पूर्ण परमात्मा के आनन्द के योग्य होता है।

अध्याय 2 श्लोक 16: असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं जानी जाती और सत्का अभाव नहीं जाना जाता इस प्रकार इन दोनों की भी तत्व, वास्तविकता को तत्वज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी संतों द्वारा देखा गया है ।

अध्याय 2 श्लोक 17: नाशरहित तो तू उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत् दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।।

अध्याय 2 श्लोक 18: ये पंच भौतिक शरीर नाशवान् है अविनाशी परमात्मा जो आत्मा सहित शरीर में नित्य रहता है। साधारण साधक पूर्ण परमात्मा व आत्मा के अभेद सम्बन्ध से अपरिचित है इसलिए प्रमाण रहित को आत्मा के साथ नित्य रहने वाला अविनाशी कहा गया हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! युद्ध कर।

अध्याय 2 श्लोक 19: जो इसको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि वह वास्तवमें न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है।

अध्याय 2 श्लोक 20: यह किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है क्योंकि यह अजन्मा नित्य सनातन और पुरातन है शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।

अध्याय 2 श्लोक 21: हे पृथापुत्र अर्जुन! जो व्यक्ति इस आत्म सहित परमात्मा को नाशरहित नित्य अजन्मा और अविनाशी जानता है वह व्यक्ति किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?

अध्याय 2 श्लोक 22: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।

अध्याय 2 श्लोक 23: इसे शस्त्र नहीं काट सकते इसको आग नहीं जला सकती इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सूखा सकती।

अध्याय 2 श्लोक 24: यह अच्छेद्य है यह परमात्मा अदाह्य अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह परमात्मा नित्य सर्वव्यापी अचल स्थिर रहनेवाला और सनातन है।

अध्याय 2 श्लोक 25: यह परमात्मा इस आत्मा के साथ गुप्त रहता है यह अचिन्त्य है और यह विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस परमात्मा को इस प्रकारसे जानकर तू शोक करनेके योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है। भावार्थ है कि जब परमात्मा जीव के साथ है तो जीव का अहित नहीं होता।

अध्याय 2 श्लोक 26: और यदि इसके बाद तू इन्हें सदा जन्मनेवाला या सदा मरनेवाला मानता है तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करनेको योग्य नहीं है।

अध्याय 2 श्लोक 27: क्योंकि जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषयमें तू शोक करनेके योग्य नहीं है

अध्याय 2 श्लोक 28: हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं केवल बीच में ही प्रकट हैं फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है?

अध्याय 2 श्लोक 29: कोई एक ही इस परमात्मा सहित आत्माको आश्चर्यकी भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही आश्र्चयकी भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा इसे आश्र्चयकी भाँति सुनता है और कोई सुनकर भी इसको नहीं जानता।

अध्याय 2 श्लोक 30: हे अर्जुन! यह जीवाआत्मा परमात्मा के साथ सबके शरीरोंमें सदा ही अविनाशी है इस कारण सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये तू शोक करनेको योग्य नहीं है।

अध्याय 2 श्लोक 31: तथा अपनी शास्त्र अनुकूल धार्मिक पूजाओं को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं जाना जाता है।

विशेष:- गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता अध्याय 10 श्लोक 17 में विद्याम का अर्थ जानना अर्थात् जानूँ किया है।

अध्याय 2 श्लोक 32: हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्गके द्वाररूप इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं।

अध्याय 2 श्लोक 33: किंतु तू इस धार्मिकता युक्त ज्ञान के आधार से युद्धको नहीं करेगा वही स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा।

अध्याय 2 श्लोक 34: तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्तिका भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है।

अध्याय 2 श्लोक 35: और जिनकी दृष्टिमें तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुताको प्राप्त होगा वे महारथी लोग तुझे भयके कारण युद्धसे हटा हुआ मानेंगे।

अध्याय 2 श्लोक 36: तेरे वैरी लोग तेरे सामथ्र्यकी निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे उससे अधिक दुःख और क्या होगा?।

अध्याय 2 श्लोक 37: या तो तू युद्धमें मारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।

अध्याय 2 श्लोक 38: जय-पराजय लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा इस प्रकार पापको नहीं प्राप्त होगा।

अध्याय 2 श्लोक 39: हे पार्थ! यह ज्ञानवाणी तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी और अब तू इसको योगके विषयमें सुन जिस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मोंके बन्धनको भलीभाँति त्याग देगा यानी सर्वथा नष्ट कर डालेगा। गीता अध्याय 6 श्लोक 46 में कहा है कि ज्ञान योगियों और कर्मयोगियों से तत्वदर्शी सन्त अर्थात् योगी श्रेष्ठ है। इसी गीता अध्याय 5 श्लोक 2 में शास्त्रविरूद्ध ज्ञान योगी अर्थात् सन्यासी तथा कर्मयोगी दोनों को ही अश्रेष्ठ कहा है।

अध्याय 2 श्लोक 40: इस योगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं जानते बल्कि इस योगरूप धर्मका थोड़ा-सा भक्ति धन भी महान् भयसे रक्षा कर लेता है।

अध्याय 2 श्लोक 41: हे अर्जुन! इस योगमें निश्चयात्मिका बुद्धि व ज्ञान वाणी एक ही होती है किंतु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन सकाम मनुष्योंकी बुद्धियाँ अर्थात् ज्ञान विचार धाराऐं निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती है।

अध्याय 2 श्लोक 42-43-44: हे अर्जुन्! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है दूसरी नहीं है ऐसा कहनेवाले हैं वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणीको कहा करते हैं जन्मरूप कर्मफल देनेवाली भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्ति के लिए बहुत-सी क्रियाओंको वर्णन करनेवाली है। उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है। जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषोंकी परमात्मा के चिन्तन में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं जान पड़ती।

अध्याय 2 श्लोक 45: हे अर्जुन! तीनों गुणों अर्थात् रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव के भोगों के ज्ञान से तीनों गुणों से ऊपर उठ कर हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित नित्यवस्तु सत्यपुरूष अर्थात् पूर्ण परमात्मामें स्थित योग क्षेमको अर्थात् भक्ति के प्रतिफल में संसारिक सुख न चाहनेवाला आत्म विश्वासी हो।

अध्याय 2 श्लोक 46: सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है पूर्ण परमात्माको तत्वसे जाननेवाले विद्वानका समस्त ज्ञानों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।

अध्याय 2 श्लोक 47: तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिए तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।

अध्याय 2 श्लोक 48: हे धनजय! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान बुद्धिवाला होकर शास्त्रनुकूल भक्ति योगमें स्थित हुआ शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्तव्यकर्मोंको कर एक रूप ही योग अर्थात् वास्तविक भक्ति कहलाता है।

अध्याय 2 श्लोक 49: अपने आप निकाला भक्ति मार्ग का निष्कर्ष अर्थात् मनमाना आचरण अर्थात् अपनी बुद्धियोगसे भक्ति कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धन×जय! तू एक पूर्ण परमात्मा का ज्ञान देने वाले संत की शरण ढूँढ़ अर्थात् तत्वदर्शी संतों द्वारा बताया एक पूर्ण प्रभु की भक्ति साधन का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।

अध्याय 2 श्लोक 50: समबुद्धियुक्त अर्थात् तत्वदर्शी संत द्वारा बताया वास्तविक एक रूप शास्त्र अनुकूल भक्ति मार्ग पर लगा साधक पुरुष अच्छे कर्म जैसे मनमानी पूजाऐं जो सुकृत मान कर कर रहा था या मेरे बताए मार्ग अनुसार ओम् का जाप व यज्ञ आदि पुण्य करता था उस पुण्य को तथा बुरे कर्म जैसे मांस-मदिरा-तम्बाखु आदि नशीली वस्तुओं के सेवन रूपी दुष्कर्म पाप इन दोनोंको इसी लोक में अर्थात् काल लोक में त्याग देता है अर्थात् जैसे पूर्ण संत कहता है वैसे ही करता है इसलिए तू शास्त्र विधि अनुसार साधना अर्थात् समत्वरूप योगमें लग जा यह तत्वदर्शी संत द्वारा बताया भक्ति मार्ग ही भक्ति कर्मों में कुशलता है अर्थात् बुद्धिमत्ता है।

अध्याय 2 श्लोक 51: क्योंकि तत्वज्ञान के आधार से समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्यागकर जन्म रूपबन्धनसे पूर्ण रूप से मुक्त हो अनामी अर्थात् जन्म-मरण रोग रहित परम पद अर्थात् सतलोक को चले जाते हैं अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् जन्म-मरण का रोग पूर्णरूप से समाप्त हो जाता है।

अध्याय 2 श्लोक 52: जिस कालमें तेरी बुद्धि मोहरूप अर्थात् अज्ञान रूप दलदलको भलीभाँति पार कर जाएगी अर्थात् आपको तत्वज्ञान हो जायेगा उस समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले इस लोक और परलोक अर्थात् स्वर्ग-महास्वर्ग सम्बन्धी सभी भोगों का सुना सुनाया लोकवेद वेद विस्द्ध ज्ञान अर्थात् ज्ञानहीन वार्ता जैसा गया गुजरा महसूस होगा।

अध्याय 2 श्लोक 53: भाँति-भाँतिके वचनोंको सुननेसे विचलित हुई तेरी बुद्धि स्थिर होकर जब तत्वज्ञान के आधार से एक परमात्मा के चिन्तन में स्थाई रूप से ठहर जायगी तब तू योग अर्थात् भक्तिको प्राप्त हो जायगा। तब तेरी भक्ति प्रारम्भ हो जायेगी। अर्थात् तब तू योगी बनेगा। गीता अध्याय 6 श्लोक 46 में कहा है कि अर्जुन तू योगी बन।

अध्याय 2 श्लोक 54: हे केशव! सहज समाधिमें स्थित परमात्माको प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुषका क्या परिभाषा अर्थात् लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है कैसे बैठता है और कैसे चलता है।

अध्याय 2 श्लोक 55: हे अर्जुन! जिस कालमें यह पुरुष मनमें स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको भलीभाँति त्याग देता है और आत्मासे अर्थात् समर्पण भाव से आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ अर्थात् स्थाई बुद्धि वाला कहा जाता है अर्थात् फिर वह विचलित नहीं होता, केवल तत्वदर्शी संत के तत्वज्ञान पर पूर्ण रूप से आधारित रहता है। वह योगी है।

अध्याय 2 श्लोक 56: दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमे उद्वेग नहीं होता सुखोंकी प्राप्तिमें जो सर्वथा इच्छा रहित है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं ऐसा मुनि अर्थात् साधक स्थिरबुद्धि कहा जाता है।

अध्याय 2 श्लोक 57: जो सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है। उसकी बुद्धि स्थिर है।

अध्याय 2 श्लोक 58: और जिस प्रकार कछुआ सब ओरसे अपने अंगोंको जैसे समेट लेता है वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर है ऐसा समझना चाहिए।

अध्याय 2 श्लोक 59: इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके भी केवल विकार निवृत्त हो जाते हंै आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थिर बुद्धि वालेके उत्तम देखने अर्थात् विकारों से होने वाली हानि को जानने वाले के आसक्ति भी निवृत्त हो जाती है।

अध्याय 2 श्लोक 60: हे अर्जुन! क्योंकि ये प्रमथन स्वभाववाली इन्द्रियाँ यतन करते हुए बुद्धिमान् पुरुषके मनको भी बलात् हर लेती हैं।

अध्याय 2 श्लोक 61: उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके समाहित चित हुआ शास्त्रनुसार साधना में दृढता से लगे क्योंकि जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें होती है उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है अर्थात् मन व इन्द्रियों के ऊपर बुद्धि की प्रभुत्ता रहती है।

अध्याय 2 श्लोक 62: विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।

अध्याय 2 श्लोक 63: क्रोधसे अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है मूढ़भावसे स्मृतिमें भ्रम हो जाता है स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञान-शक्तिका नाश हो जाता है। और बुद्धिका नाश हो जानेसे यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है।

अध्याय 2 श्लोक 64: परंतु तत्वज्ञान से अधीन किये हुए अन्तःकरणवाला साधक अपने वशमें की हुई राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ भी उसमें लीन न होकर प्रसन्नताको प्राप्त होता है।

अध्याय 2 श्लोक 65: अन्तःकरणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न-चित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।

अध्याय 2 श्लोक 66: न जीते हुए मन और इन्द्रियोंवाले पुरुषमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्यके अन्तःकरणमें भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्यको शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?

अध्याय 2 श्लोक 67: क्योंकि जैसे जलमें चलनेवाली नावको वायु हर लेती है वैसे ही विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे मन जिस इन्द्रियके अधूरे ज्ञान पर आधारित हो जाता है जिस कारण से इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि हर ली जाती है।

अध्याय 2 श्लोक 68: इसलिये हे महाबाहो! जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ तत्वज्ञान के आधार से इन्द्रियोंके विषयोंसे सब प्रकार निग्रह की हुई हैं उसीकी बुद्धि स्थिर है।

अध्याय 2 श्लोक 69: सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रिके समान है उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्दकी प्राप्तिमें स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक सुखकी प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं परमात्माके तत्वको जाननेवाले मुनिके लिये वह रात्रिके समान है।

अध्याय 2 श्लोक 70: जैसे नाना नदियोंके जल जब सब ओरसे परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं वही पुरुष परम शान्तिको प्राप्त होता है भोगोंको चाहनेवाला नहीं।

अध्याय 2 श्लोक 71: जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममता रहित अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है वही शान्तिको प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्तिको प्राप्त है।

अध्याय 2 श्लोक 72: हे अर्जुन! यह इच्छाओं आदि का त्याग, अहंकार रहित उपरोक्त स्थिति परमात्मा को प्राप्त साधक की स्थिति है। इसको प्राप्त न होकर साधक विषयों में मोहित हो जाता है और अन्त समय में जिस साधक के विकार समाप्त नहीं हुए वह इस स्थितिमें स्थित होकर भी पूर्ण परमात्माको प्राप्त होने की क्षमता समाप्त हो जाती है अर्थात् पूर्ण परमात्मा प्राप्ति के लाभ से वंचित रह जाता है।