श्रीमद भगवद गीता अध्याय 5

श्रीमद भगवद गीता अध्याय 5

अध्याय 5 श्लोक 1: हे कृष्ण! आप कर्मोंके सन्यास अर्थात् कर्म छोड़कर आसन लगाकर कान आदि बन्द करके साधना करने की और फिर कर्मयोगकी अर्थात् कर्म करते करते साधना करने की प्रशंसा करते हैं इसलिए इन दोनोंमेंसे जो एक मेरे लिए भलीभाँती निश्चित कल्याणकारक साधन हो उसको कहिये। (1)

अध्याय 5 श्लोक 2: तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण वास्तविक भक्ति का ज्ञान न होने से शास्त्र विधि रहित साधना प्राप्त साधक प्रभु प्राप्ति से विशेष प्रेरित होकर गृहत्याग कर वन में चला जाना या कर्म त्याग कर एक स्थान पर बैठ कर कान नाक आदि बंद करके या तप आदि करना तथा शास्त्र विधि रहित साधना कर्म करते-करते भी करना दोनों ही व्यर्थ है अर्थात् श्रेयकर नहीं हैं तथा न करने वाली है शास्त्रविधी अनुसार साधना करने वाले जो सन्यास लेकर आश्रम में रहते हैं तथा कर्म सन्यास नहीं लेते तथा जो विवाह करा कर घर पर रहते हैं उन दोनों की साधना ही अमंगलकारी नहीं हैं परन्तु उपरोक्त उन दोनोंमें भी यदि आश्रम रह कर भी काम चोर है उस कर्मसंन्याससे कर्मयोग संसारिक कर्म करते-करते शास्त्र अनुसार साधना करना श्रेष्ठ है। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 41 से 46 में कहा है कि चारों वर्णों के व्यक्ति भी अपने स्वभाविक कर्म करते हुए परम सिद्धी अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। परम सिद्धी के विषय में स्पष्ट किया है श्लोक 46 में कि जिस परमात्मा परमेश्वर से सर्व प्राणियों की उत्पति हुई है जिस से यह समस्त संसार व्याप्त है, उस परमेश्वर कि अपने-2 स्वभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धी को प्राप्त हो जाता हैं अर्थात् कर्म करता हुआ सत्य साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। अध्याय 18 श्लोक 47 में स्पष्ट किया है कि शास्त्र विरूद्ध साधना करने वाले से अपना शास्त्र विधी अनुसार साधना करने वाला श्रेष्ठ है। क्योंकि अपने कर्म करता हुआ साधक पाप को प्राप्त नहीं होता। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि कर्म सन्यास करके हठ करना पाप है। श्लोक 48 में स्पष्ट किया है कि अपने स्वाभाविक कर्मों को नहीं त्यागना चाहिए चाहे उसमें कुछ पाप भी नजर आता है। जैसे खेती करने में जीव मरते हैं आदि-2।

अध्याय 5 श्लोक 3: हे अर्जुन! जो साधक न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है, वह तत्वदर्शी सन्यासी ही है क्योंकि राग द्वेष युक्त व्यक्ति का मन भटकता है तथा इन से रहित साधक का मन काम करते करते भी केवल प्रभु के भजन व गुणगान में लगा रहता है इसलिए वह सदा सन्यासी ही है क्योंकि वही व्यक्ति बन्धन से मुक्त होकर पूर्ण मुक्ति रूपी सुख के जानने योग्य ज्ञान को ढोल के डंके से अर्थात् पूर्ण निश्चय के साथ भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र होकर सही व्याख्या करता है।

अध्याय 5 श्लोक 4: तत्वज्ञान के आधार से गृहस्थी व ब्रह्मचारी रहकर जो एक ही प्रकार की साधना करते हैं उन दोनों को प्रथक.2 फल प्राप्त होता है एैसा नादान कहते हैं। वे पण्डित भी नहीं हैं एक सर्व शक्तिमान परमेश्वर पर सम्यक् प्रकार से स्थित पुरुष दोनों समान फलरूप को तत्वज्ञान आधार से ही प्राप्त करते हैं गीता अध्याय 13 श्लोक 24.25 में विस्तृत वर्णन है।

अध्याय 5 श्लोक 5: शास्त्र विधि अनुसार साधना करने से तत्वज्ञानियों द्वारा जो स्थान अर्थात् सत्यलोक प्राप्त किया जाता है तत्वदर्शीयों से उपदेश प्राप्त करके साधारण गृहस्थी व्यक्तियों अर्थात् कर्मयोगियोंद्वारा भी वही सत्यलोक स्थान प्राप्त किया जाता है और इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है वही यथार्थ देखता है अर्थात् वह वास्तव में भक्ति मार्ग जानता है

अध्याय 5 श्लोक 6: हे अर्जुन! इसके विपरित कर्म सन्यास से तो शास्त्र विधि रहित साधना होने के कारण दुःख ही प्राप्त होता है तथा शास्त्र अनुकूल साधना प्राप्त साधक प्रभु को अविलम्ब ही प्राप्त हो जाता है।

अध्याय 5 श्लोक 7: तत्वज्ञान तथा सत्य भक्ति से जिसका मन संस्य रहित है, इन्द्री जीता हुआ पवित्र आत्मा और सर्व प्राणियों के मालिक की सत्यसाधना से सर्व प्राणियों को आत्मा रूप में एक समझकर तत्वज्ञान को प्राप्त प्राणी संसार में रहता हुआ सत्य साधना में लगा हुआ सांसारिक कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता अर्थात् सन्तान व सम्पत्ति में आसक्त नहीं होता। क्योंकि उसे तत्वज्ञान से ज्ञान हो जाता है कि यह सन्तान व सम्पति अपनी नहीं है। जैसे कोई व्यक्ति किसी होटल में रह रहा हो, वहाँ के नौकरों व अन्य सामान जैसे टी.वी., सोफा सेट, दूरभाष, चारपाई व जिस कमरे में रह रहा है को अपना नहीं समझता उस व्यक्ति को पता होता है कि ये वस्तुऐं मेरी नहीं हंै। इसलिए उन से द्वेष भी नहीं होता तथा लगाव भी नहीं बनता तथा अपने मूल उद्देश्य को नहीं भूलता। इसलिए जिस घर में हम रह रहे हैं, इस सर्व सम्पत्ति व सन्तान को अपना न समझ कर प्रेम पूर्वक रहते हुए प्रभु प्राप्ति की लगन लगाए रखें।

अध्याय 5 श्लोक 8-9: तत्वदर्शी प्रभु में लीन योगी तो देखता हुआ सुनता हुआ स्पर्श करता हुआ सूँघता हुआ भोजन करता हुआ चलता हुआ सोता हुआ श्वांस लेता हुआ बोलता हुआ त्यागता हुआ ग्रहण करता हुआ तथा आँखोंको खोलता और मूँदता हुआ भी सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थोंमें बरत रही हैं अर्थात् दुराचार नहीं करता इस प्रकार समझकर निःसन्देह ऐसा मानता है कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ अर्थात् ऐसा कर्म नहीं करता जो पाप दायक है।

अध्याय 5 श्लोक 10: जो पुरुष सब कर्मोंको पूर्ण परमात्मामें अर्पण करके और आसक्तिको त्यागकर शास्त्र विधि अनुसार कर्म करता है वह साधक जलसे कमलके पत्ते की भाँति पापसे लिप्त नहीं होता अर्थात् पूर्ण परमात्मा की भक्ति से साधक सर्व बन्धनों से मुक्त हो जाता है जो पाप कर्म के कारण बन्धन बनता है।

अध्याय 5 श्लोक 11: होटल में निवास की तरह संसार में रहने वाले भक्त केवल इन्द्रिय मन बुद्धि और शरीरद्वारा भी आसक्तिको त्यागकर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये अर्थात् आत्म कल्याण के लिए सत्यनाम सुमरण, दान, सतगुरु सेवा व संसार में शुद्ध आचरण रूपी कर्म करते हैं।

अध्याय 5 श्लोक 12: शास्त्रनुकूल सत्य साधना में लगा भक्त कर्मोंके फलका त्याग करके स्थाई अर्थात् परम शान्तिको प्राप्त होता है और शास्त्र विधि रहित साधना करने वाला अर्थात् असाध मनो कामना की पूर्ति के लिए फलमें आसक्त होकर पाप कर्म के कारण बँधता है।

अध्याय 5 श्लोक 13: मन को तत्वज्ञान के आधार से काल लोक के लाभ से हटा कर दृढ़ इच्छा से सम्पूर्ण शास्त्र अनुकूल धार्मिक कर्मों अर्थात् सत्य साधना से संचित कर्म के आधार से अर्थात् सन्चय की हुई सत्य भक्ति कमाई के आधार से वास्तविक आनन्द में अर्थात् पूर्णमोक्ष रूपी परम शान्ति युक्त सत्यलोक में स्थित होकर निवास करता है इस प्रकार फिर शरीरी अर्थात् परमात्मा के साथ अभेद रूप में जीवात्मा पंच भौतिक नौ द्वारों वाले शरीर रूप किले में न तो कर्म करता हुआ न ही कर्म करवाता हुआ अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करके सत्यलोक में ही सुख पूर्वक रहता है।

अध्याय 5 श्लोक 14: कुल का स्वामी पूर्ण परमात्मा सर्व प्रथम विश्व की रचना करता है तब न तो कत्र्तापनका न कर्मों का आधार होता है न कर्मफलके संयोग ही इसके विपरीत सर्व प्राणियों द्वारा स्वभाव वश किए कर्म का फल ही बरत रहा है।

अध्याय 5 श्लोक 15: पूर्ण परमात्मा न किसीके पाप का और न किसीके शुभकर्मका ही प्रति फल देता है अर्थात् निर्धारित किए नियम अनुसार फल देता है किंतु अज्ञानके द्वारा ज्ञान ढका हुआ है उसीसे तत्वज्ञान हीनता के कारण जानवरों तुल्य सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं अर्थात् स्वभाववश शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म व सांसारिक कर्म करके क्षणिक सुखों में आसक्त हो रहे हैं। जो साधक शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्म करते हैं उनके पाप को प्रभु क्षमा कर देता है अन्यथा संस्कार ही वर्तता है अर्थात् प्राप्त करता है। 

अध्याय 5 श्लोक 16: दूसरी ओर जिनका अज्ञान पूर्ण परमात्मा जो आत्मा का अभेद साथी है इसलिए आत्मा कहा जाता है उस पूर्ण परमात्मा के तत्वज्ञान से नष्ट हो गया है उनका वह तत्वज्ञान उस पूर्ण परमात्मा को सूर्य के सदृश प्रकाश कर देता है अर्थात् अज्ञान रूपी अंधेरा हटा देता है।

अध्याय 5 श्लोक 17: वह तत्वज्ञान युक्त जीवात्मा उस पूर्ण परमात्मा के तत्व ज्ञान पर पूर्ण रूप से लगी बुद्धि से सर्वव्यापक परमात्मामें ही निरन्तर एकीभावसे स्थित है ऐसे उस परमात्मा पर आश्रित तत्वज्ञानके आधार पर शास्त्र विधि रहित साधना करना भी पाप है तथा उससे पुण्य के स्थान पर पाप ही लगता है इसलिए सत्य भक्ति करके पापरहित होकर जन्म-मरण से मुक्त होकर संसार में पुनर् लौटकर न आने वाली गति अर्थात् पूर्ण मुक्ति को प्राप्त होते हैं।

अध्याय 5 श्लोक 18: गुप्त तत्वज्ञान से परिपूर्ण अर्थात् पूर्ण तत्वज्ञानी साधक ब्राह्मण में गाय में हाथी में तथा कुत्ते और चाण्डालमें एक समान समझता है अर्थात् एक ही भाव रखता है वास्तव में इन लक्षणों से युक्त हैं ज्ञानीजन अर्थात् तत्वज्ञानी ही है।

अध्याय 5 श्लोक 19: वास्तव में जिनका मन समभावमें स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्थामें सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है अर्थात् वे मनजीत हो गए हैं निसंदेह वह पाप रहित साधक परमात्मा सम है अर्थात् निर्दोंष आत्मा हो गई हैं इससे वे पूर्ण परमात्मामें ही स्थित हैं। पाप रहित आत्मा तथा परमात्मा के बहुत से गुण समान है जैसे अविनाशी, राग, द्वेष रहित, जन्म मृत्यु रहित, स्वप्रकाशित भले ही शक्ति में बहुत अन्तर है।

अध्याय 5 श्लोक 20: प्रियको प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विगन्न न हो वह स्थिरबुद्धि संश्यरहित परमात्म तत्व को पूर्ण रूप से जानने वाले पूर्ण परमात्मामें एकीभावसे नित्य स्थित है।

अध्याय 5 श्लोक 21: बाहरके विषयोंमें आसक्तिरहित साधक को अपने आप में जो सुमरण आनन्द प्राप्त होता है वह परमात्माके अभ्यास योगमें अभिन्नभावसे स्थित भक्त आत्मा कभी समाप्त न होने वाले आनन्दका अनुभव करता है। अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं।

अध्याय 5 श्लोक 22: वास्तव में जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं वे निश्चय ही कष्ट दायक योनियों के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। हे अर्जुन! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।

अध्याय 5 श्लोक 23: जो साधक इस मनुष्य शरीरमें शरीरका नाश होनेसे पहले-पहले ही काम-क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले वेगको सहन करनेमें समर्थ हो जाता है वही व्यक्ति प्रभु में लीन भक्त है और वही सुखी है।

अध्याय 5 श्लोक 24: जो पुरुष निश्चय करके अन्तःकरण में ही सुखवाला है पूर्ण परमात्मा जो अन्तर्यामी रूप में आत्मा के साथ है उसी अन्तर्यामी परमात्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो अन्तः करण प्रकाश वाला अर्थात् सत्य भक्ति शास्त्र ज्ञान अनुसार करता हुआ मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता वह परमात्मा जैसे गुणों युक्त भक्त शान्त ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्माको प्राप्त होता है।

अध्याय 5 श्लोक 25: शास्त्र विधि अनुसार साधना करने से जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संश्य निवृत्त हो गये हैं अर्थात् जो पथ भ्रष्ट नहीं हैं जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं और परमात्मा के प्रयत्न अर्थात् साधना से स्थित हंै वे साधु पुरुष शान्त ब्रह्म को अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

अध्याय 5 श्लोक 26: काम-क्रोधसे रहित प्रभु भक्ति में प्रयत्न शील परमात्माका साक्षात्कार किये हुए परमात्मा आश्रित पुरुषोंके लिये सब ओरसे शान्त ब्रह्म को अर्थात् पूर्णब्रह्म परमात्मा को ही व्यवहार में लाते हैं अर्थात् केवल एक पूर्ण प्रभु की ही पूजा करते हैं।

अध्याय 5 श्लोक 27-28: वास्तव में बाहरके विषयभोगोंको बाहर निकालकर और नेत्रोंकी दृष्टिको भृकुटीके बीचमें स्थित करके तथा नासिकामें चलने प्राण और अपानवायु अर्थात् स्वांस-उस्वांस को सम करके सत्यनाम सुमरण करता है जिसने इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं, अर्थात् जो नाम स्मरण पर ध्यान लगाता है मन को भ्रमित नहीं होने देता ऐसा जो मोक्षपरायण मोक्ष के लिए प्रयत्न शील मननशील साधक इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वास्तव में वह सदा मुक्त है।

अध्याय 5 श्लोक 29:मुझको सब यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा जानकर मेरे पर ही आश्रित रहने मुझ से मिलने वाली अस्थाई, अश्रेष्ठ शान्ति को प्राप्त होते हैं जिस कारण से उनकी परम शान्ति पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है अर्थात् शान्ति की क्षमता समाप्त हो जाती है, पूर्ण मोक्ष से वंचित रह जाते हैं इसलिए मेरा साधक भी महादुःखी रहता है, इसी का प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 66 में है कि शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसा तथा अध्याय 7 श्लोक 18 में तथा गीता अध्याय 6 श्लोक 15 में भी स्पष्ट प्रमाण है, इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17 में कहा है कि वास्तव में उत्तम पुरूष अर्थात् पूर्ण मोक्ष दायक परमात्मा तो कोई अन्य है इसलिए अध्याय 18 श्लोक 62, 64, 66 में कहा है कि अर्जुन सर्वभाव से उस परमात्मा की शरण में जा, जिसकी कृप्या से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त होगा।