अध्याय 15 श्लोक 1: ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला नीचे को तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु व तमगुण शिव रूपी शाखा वाला अविनाशी विस्तारित पीपल का वृृक्ष है, जिसके जैसे वेद में छन्द है ऐसे संसार रूपी वृृक्ष के भी विभाग छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ व पत्ते कहे हैं उस संसाररूप वृक्षको जो इसे विस्तार से जानता है वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है।
अध्याय 15 श्लोक 2: उस वृक्षकी नीचे और ऊपर तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी फैली हुई विकार- काम क्रोध, मोह, लोभ अहंकार रूपी कोपल डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव जीवको कर्मोंमें बाँधने की जड़ें मुख्य कारण हैं तथा मनुष्यलोक – स्वर्ग,-नरक लोक पृथ्वी लोक में नीचे - नरक, चैरासी लाख जूनियों में ऊपर स्वर्ग लोक आदि में व्यवस्थित किए हुए हैं।
अध्याय 15 श्लोक 3: इस रचना का न शुरूवात तथा न अन्त है न वैसा स्वरूप पाया जाता है तथा यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी नहीं है क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है इस अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला मजबूत स्वरूपवाले निर्लेप तत्वज्ञान रूपी दृढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर।
अध्याय 15 श्लोक 4: {जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए} इसके पश्चात् उस परमेश्वर के परम पद अर्थात् सतलोक को भलीभाँति खोजना चाहिए जिसमें गये हुए साधक फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिस परम अक्षर ब्रह्म से आदि रचना-सृष्टि उत्पन्न हुई है उस सनातन पूर्ण परमात्मा की ही मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए।
अध्याय 15 श्लोक 5: जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है आसक्तता नष्ट हो गई हर समय पूर्ण परमात्मा में व्यस्त रहते हैं कामनाओं से रहित सुख-दुःख रूपी अधंकारसे अच्छी तरह रहित विद्वान उस अविनाशी सतलोक स्थान को जाते हैं।
अध्याय 15 श्लोक 6: जहाँ जाकर लौटकर संसारमें नहीं आते उस स्थान को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है न चन्द्रमा और न अग्नि ही वह सतलोक मेरे लोक से श्रेष्ठ है। गीता जी के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने लिखा है कि ‘‘वह मेरा परम धाम है’’ यदि यह भी माने तो यह गीता बोलने वाला ब्रह्म सत्यलोक अर्थात् परम धाम से निष्कासित है, इसलिए कहा है कि मेरा परमधाम भी वही है तथा मेरे लोक से श्रेष्ठ है, जहाँ जाने के पश्चात् फिर जन्म-मृत्यु में नहीं आते। इसीलिए अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि उसी आदि पुरूष परमात्मा की मैं शरण हूँ।
अध्याय 15 श्लोक 7: मृतलोक में आदि परमात्मा अंश जीवात्मा ही प्रकृतिमें स्थित मेरे काल का दूसरा स्वरूप मन है इस मन व पाँच इन्द्रियों सहित इन छःओं द्वारा आकर्षित करके सताई जाती है अर्थात् कृषित की जाती है।
अध्याय 15 श्लोक 8: हवा गन्धको ले जाती है क्योंकि गंध की वायु मालिक है इसी प्रकार सर्व शक्तिमान प्रभु भी इस जीवात्मा को इन पाँच इन्द्रियों व मन सहित सुक्ष्म शरीर ग्रहण करके जीवात्मा जिस पुराने शरीरको त्याग कर और जिस नए शरीरको प्राप्त होता है उसमें संस्कारवश ले जाता है। गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में भी प्रमाण है।
अध्याय 15 श्लोक 9: यह परमात्मा - अंश जीव आत्मा कान आँख और त्वचा और रसना नाक और मनके माध्यम से ही विषयों अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि का सेवन करता है। फिर उस का कर्म भोग जीवात्मा को ही भोगना पड़ता है।
अध्याय 15 श्लोक 10: अज्ञानीजन अन्त समय में शरीर त्याग कर जाते हुए अर्थात् शरीर से निकल कर जाते हुए अथवा शरीरमें स्थित अथवा भोगते हुए इन गुणों वाले आत्मा से अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा को भी नहीं देखते अर्थात् नहीं जानते ज्ञानरूप नेत्रोंवाले अर्थात् पूर्ण ज्ञानी जानते हैं। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12 से 23 तक भी है।
अध्याय 15 श्लोक 11: यत्न करनेवाले योगीजन अपने हृदय में स्थित इस परमात्माको जो आत्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जैसे सूर्य का ताप अपना निर्गुण प्रभाव निरन्तर बनाए रहता है को देखता है और जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध नहीं किया अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कम्र न करने वाले अज्ञानीजन तो यत्न करते रहनेपर भी इसको नहीं देखते।
अध्याय 15 श्लोक 12: सूर्यमें स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमामें है और जो अग्निमें है उसको तू मेरा ही तेज जान।
अध्याय 15 श्लोक 13: और मैं ही पृथ्वीमें प्रवेश करके शक्तिसे मेरे अन्तर्गत प्राणियों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियोंको अर्थात् वनस्पतियोंको पुष्ट करताहूँ।
अध्याय 15 श्लोक 14: मैं ही मेरे अन्तर्गत प्राणियोंके शरीरमें शरण रहनेवाला प्राण और अपानसे संयुक्त जठराग्नि होकर चार प्रकारके अन्नको पचाता हूँ।
अध्याय 15 श्लोक 15: मैं मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों के सब प्राणियोंके हृदयमें शास्त्रनुकूल विचार स्थित करता हूँ और मैं ही स्मृति ज्ञान और अपोहन-संश्य निवारण और वेदान्तका कत्र्ता और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही सब वेदोंद्वारा जाननेके योग्य हूँ।
अध्याय 15 श्लोक 16: इस संसारमें दो प्रकारके भगवान हैं नाशवान् और अविनाशी इसी प्रकार इन दोनों लोकों में सम्पूर्ण भूतप्राणियोंके शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है।
अध्याय 15 श्लोक 17: उत्तम भगवान तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरुष से अन्य ही है जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर परमात्मा इस प्रकार कहा गया है। यह प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 22 में भी है।
अध्याय 15 श्लोक 18: क्योंकि मैं नाशवान् स्थूल शरीर से तो सर्वथा श्रेष्ठ हूँ और अविनाशी जीवात्मासे भी उत्तम हूँ और इसलिये लोक वेद में अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से वेदमें श्रेष्ठ भगवान प्रसिद्ध हूँ पवित्र गीता बोलने वाला ब्रह्म-क्षर पुरुष कह रहा है कि मैं तो लोक वेद में अर्थात् सुने-सुनाए ज्ञान के आधार पर केवल मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों में ही श्रेष्ठ प्रभु प्रसिद्ध हूँ। वास्तव में पूर्ण परमात्मा तो कोई और ही है। जिसका विवरण श्लोक 17 में पूर्ण रूप से दिया है।
अध्याय 15 श्लोक 19: हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्वदर्शी संत के अभाव से पुरुषोत्तम जानता है वह सब प्रकारसे मुझकोही सर्वस्वा जानकर भजता है।
अध्याय 15 श्लोक 20: हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया और इसको तत्वसे जानकर ज्ञानवान् कृतार्थ हो जाता है अर्थात् पूर्ण संत जो तत्वदर्शी संत हो उसकी तलाश करके उपदेश प्राप्त करके काल जाल से निकल जाता है।