अध्याय 3 श्लोक 1: हे जनार्दन! यदि आपको कर्मकी अपेक्षा तत्वदर्शी द्वारा दिया ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे एक स्थान पर बैठ कर इन्द्रियों को रोक कर, गर्दन व सिर को सीधा रख कर गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 तक वर्णित तथा युद्ध करने जैसे भयंकर तुच्छ कर्ममें क्यों लगाते हैं।
अध्याय 3 श्लोक 2: इस प्रकार आप मिले हुए से अर्थात् दो तरफा वचनोंसे मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है इसलिए उस एक बातको निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।
अध्याय 3 श्लोक 3: हे निष्पाप! इस लोकमें दो प्रकारकी निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है उनमेंसे ज्ञानियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग अर्थात् अपनी ही सूझ-बूझ से निकाले भक्ति विधि के निष्कर्ष में और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे अर्थात् सांसारिक कार्य करते हुए साधना करने में होती है।
अध्याय 3 श्लोक 4: न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना शास्त्रों में वर्णित शास्त्र अनुकुल साधना जो संसारिक कर्म करते-करते करने से पूर्ण मुक्ति होती है वह गति अर्थात् परमात्मा प्राप्त होता है जैसे किसी ने एक एकड़ गेहूँ की फसल काटनी है तो वह काटना प्रारम्भ करने से ही कटेगी। फिर काटने वाला कर्म शेष नही रहेगा और इसलिए कर्मोंके केवल त्यागमात्रासे एक स्थान पर बैठ कर विशेष आसन पर बैठ कर संसारिक कर्म त्यागकर हठ योग से सिद्धि प्राप्त नहीं होती है।
अध्याय 3 श्लोक 5: निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी कालमें क्षणमात्रा भी बिना कर्म किये नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति अर्थात् दुर्गा जनित रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी गुणोंद्वारा परवश हुआ कर्म करनेके लिये बाध्य किया जाता है।
अध्याय 3 श्लोक 6: जो महामूर्ख मनुष्य समस्त कर्म इन्द्रियोंको हठपूर्वक ऊपरसे रोककर मनसे उन ज्ञान इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है
अध्याय 3 श्लोक 7: किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मनसे गहरी नजर गीता में इन्द्रियोंको नियन्त्रिात अर्थात् वशमें करके अनासक्त हुआ समस्त कर्म इन्द्रियोंद्वारा शास्त्र विधि अनुसार संसारी कार्य करते-करते भक्ति कर्म अर्थात् कर्मयोगका आचरण करता है वही श्रेष्ठ है।
अध्याय 3 श्लोक 8: तू शास्त्रविहित कर्म कर क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा अर्थात् एक स्थान पर एकान्त स्थान पर विशेष कुश के आसन पर बैठ कर भक्ति कर्म हठपूर्वक करने की अपेक्षा संसारिक कर्म करते-करते भक्ति कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करनेसे अर्थात् हठयोग करके एकान्त स्थान पर बैठा रहेगा तो तेरा शरीर-निर्वाह अर्थात् तेरा परिवार पोषण भी नहीं सिद्ध होगा।
अध्याय 3 श्लोक 9: यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान के निमित किये जानेवाले शास्त्र विधि अनुसार कर्मोंसे अतिरिक्त शास्त्र विधि त्याग कर दूसरे कर्मोंमें लगा हुआ ही इस संसार में कर्मोंसे बँधता है अर्थात् चैरासी लाख योनियों में यातनाऐं सहन करता है।। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्तिसे रहित होकर उस शास्त्रनुकूल यज्ञके निमित ही भलीभाँति भक्ति के शास्त्र विधि अनुसार करने योग्य कर्म अर्थात् कर्तव्यकर्म संसारिक कर्म करता हुआ शास्त्र अनुकूल अर्थात् विधिवत् साधना कर।
अध्याय 3 श्लोक 10: प्रजापति ने कल्पके आदिमें यज्ञसहित प्रजाओंको रचकर उनसे कहा कि अन्न द्वारा होने वाला धार्मिक कर्म जिसे धर्म यज्ञ कहते हैं, जिसमें भण्डारे करना आदि है, इस यज्ञके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होओ और तुम को यह पूर्ण परमात्मा यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट ही इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो।
अध्याय 3 श्लोक 11: इस यज्ञके द्वारा देवताओं अर्थात् शाखाओं को उन्नत करो और वे देवता अर्थात् शाखायें तुमलोगोंको उन्नत करें अर्थात् संस्कार वश फल प्रदान करें। इस प्रकार निःस्वार्थभावसे एक-दूसरेको उन्नतकरते हुए परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।
अध्याय 3 श्लोक 12: क्योंकि उस यज्ञों में प्रतिष्ठित इष्ट देव अर्थात् पूर्ण परमात्मा को भोग लगाने से मिलने वाले प्रतिफल रूप भोगों को तुमको यज्ञों के द्वारा फले देवता इसका प्रतिफल देते रहेगें। उनके द्वारा दिये हुए भौतिक सुख को जो इनको बिना दिये अर्थात् यज्ञ दान आदि नहीं करते स्वयं ही खा जाते हैं, वह वास्तव में चोर है।
अध्याय 3 श्लोक 13: यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट अर्थात् पूर्ण परमात्मा को भोग लगाने के बाद बने प्रसाद को खाने वाले साधु यज्ञादि न करने से होने वाले सब पापोंसे बच जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीर पोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं वे तो पापको ही खाते हैं।
अध्याय 3 श्लोक 14-15: प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं , अन्नकी उत्पत्ति वृ ष्टिसे होती है वृृष्टि यज्ञसे होती है और यज्ञ विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। कर्मको तू ब्रह्मसे उत्पन्न और ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष को अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परमात्मा सदा ही यज्ञमें प्रतिष्ठित है अर्थात् यज्ञों का भोग लगा कर फल दाता भी वही पूर्णब्रह्म है।
अध्याय 3 श्लोक 16: हे पार्थ! जो पुरुष इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कत्र्तव्यका पालन नहीं करता वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला पापी पुरुष व्यर्थ ही जीवित है।
अध्याय 3 श्लोक 17: परंतु जो मनुष्य वास्तव में आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा में लीन रहने वाला ही रमण और परमात्मा में ही तृप्त तथा परमात्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कत्र्तव्य नहीं जान पड़ता।
अध्याय 3 श्लोक 18: उस महापुरुषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी इसका किंचितमात्रा भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। क्योंकि वह स्वार्थ रहित होने से किसी को शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म नहीं करवाता, न ही स्वयं करता है। वह धन उपार्जन के उद्देश्य से साधना नहीं करता या करवाता।
अध्याय 3 श्लोक 19: इसलिये तू निरन्तर आसक्तिसे रहित होकर सदा शास्त्र विधि अनुसार कर्तव्यकर्मको भलीभाँति करता रह। क्योंकि इच्छासे रहित होकर भक्ति कर्म करता हुआ पूर्ण परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
अध्याय 3 श्लोक 20: जनकादि भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही सिद्धिको प्राप्त हुए थे। इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू सांसारिक कार्य करते हुए भी शास्त्र विधि अनुसार कर्म करनेको ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।
अध्याय 3 श्लोक 21: श्रेष्ठ पुरुष अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले साधक जो-जो आचरण करता है अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।
अध्याय 3 श्लोक 22: हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमे न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।
अध्याय 3 श्लोक 23: क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मोंमें न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाऐ क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं।
अध्याय 3 श्लोक 24: यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरताका करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ।
अध्याय 3 श्लोक 25: हे भारत! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार शास्त्रअनुकूल कर्म करते हैं आसक्तिरहित विद्वान् भी शिष्य बनाने की इच्छा से जनता इक्कठी करना चाहता हुआ उपरोक्त शास्त्र विधि अनुसार कर्म करे।
अध्याय 3का श्लोक 26: शास्त्र अनुकूल साधकों द्वारा दिए ज्ञान से शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्मों पर अडिग अशिक्षितों अर्थात् अज्ञानियोंकी साधनाओं शास्त्र विरुद्ध साधना से हानि तथा शास्त्र विधि अनुसार साधना से लाभ होता है, इसे प्रत्यक्ष देखकर उनकी बुद्धि में अन्तर उत्पन्न न करे अर्थात् उनको विचलित न करें कि तुम अशिक्षित हो तुम क्या जानों सत्य साधना। अपने मान वश उनको भ्रमित न करके अन्य शास्त्र विरूद्ध साधना में लीन ज्ञानी पुरुषको चाहिए कि वह भक्ति कर्मों को सुचारू रूप से करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे अर्थात् उनको भ्रमित न करके प्रोत्साहन करे।
अध्याय 3 श्लोक 27: सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृति दुर्गा से उत्पन्न रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी अर्थात् तीनों गुणोंद्वारा संस्कार वश किये जाते हैं तो भी अहंकार युक्त शिक्षित होते हुए तत्वज्ञान हीन अज्ञानी ‘मैं कत्र्ता हूँ‘ ऐसा मानता है।
अध्याय 3 श्लोक 28: परंतु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्मविभागके तत्वको जाननेवाला ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् जितनी शक्ति तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तमगुण शिव जी में है, उससे पूर्ण परिचित व्यक्ति की आस्था इन में इतनी रह जाती है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 45-46 में भी है ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता अर्थात् अहंकार त्यागकर तुरन्त शास्त्रअनुकूल साधना करने लग जाता है।
अध्याय 3 श्लोक 29: प्रकृति से उत्पन्न प्रकृति के पुत्रा तीनों गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी से अत्यन्त मोहित हुए मुर्ख मनुष्य गुणों अर्थात् तीनों प्रभुओं की साधना के कर्मोंमें आसक्त रहते हैं उन पूर्णतया न समझनेवाले अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर साधना करने वाले जो स्वभाव वश चल रहे हैं उन मन्दबुद्धि अशिक्षितों को सत्यभक्ति जाननेवाला ज्ञानी अर्थात् शास्त्र अनुसार साधना करने वाले मन्द बुद्धि अज्ञानियों को जो स्वभाववश तीनों गुणों अर्थात् श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी तक की साधना पर अडिग हैं, उनकी गलत साधना से विचलित नहीं कर सकते अर्थात् बहुत कठिन है, वे तो नष्ट ही हैं। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तक में भी है।
अध्याय 3 श्लोक 30: पूर्ण परमात्मामें लगे हुए चितद्वारा सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें त्याग करके आशारहित ममतारहित और संतापरहित होकर युद्ध कर। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में है कि मेरी सर्व धार्मिक पूजाओं को मुझमें छोड़ कर सर्व शक्तिमान परमेश्वर की शरण में जा।
अध्याय 3 श्लोक 31: जो कोई मनुष्य दोषदृष्टिसे रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत अर्थात् सिद्धांत का सदा अनुसरण करते हैं वे भी शास्त्र विधि त्याग कर अर्थात् सिद्धान्त छोड़ कर किए जाने वाले दोष युक्त कर्मोंसे बच जाते हैं।
अध्याय 3 श्लोक 32: परंतु जो दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत अर्थात् सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलते हैं उन मूर्खोंको तू सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और नष्ट हुए ही जान।
अध्याय 3 श्लोक 33: सभी प्राणी प्रकृति अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होते हैं ज्ञानवान् भी अपने निष्कर्ष द्वारा निकाले भक्ति मार्ग के आधार से स्वभावके अनुसार चेष्टा करता है हठ क्या करेगा?
अध्याय 3 श्लोक 34: इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये क्योंकि वे दोनों ही इसके विघ्न करनेवाले महान् शत्रु हैं।
अध्याय 3 श्लोक 35: गुणरहित अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर स्वयं मनमाना अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए दूसरोंकी धार्मिक पूजासे अपनी शास्त्र विधि अनुसार पूजा अति उत्तम है जो शास्त्रनुकूल है अपनी पूजा में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेकी पूजा भयको देनेवाली है।
अध्याय 3 श्लोक 36: हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयम् न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुएकी भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?
अध्याय 3 श्लोक 37: रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह विषय वासना अर्थात् सैक्स और यह क्रोध जीव को अत्यधिक खाने वाला अर्थात् नष्ट करने वाला बड़ा पापी है इस उपरोक्त पाप को ही तू इस विषयमें वैरी जान।
अध्याय 3 श्लोक 38: जिस प्रकार धुएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेरसे गर्भ ढका रहता है वैसे ही उपरोक्त विकारों द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है।
अध्याय 3 श्लोक 39: और हे कुन्ति पुत्रा अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होनेवाले कामरूप विषय वासना अर्थात् सैक्स रूपी ज्ञानियोंके नित्य वैरीके द्वारा मनुष्यका ज्ञान ढका हुआ है।
अध्याय 3 श्लोक 40: इन्द्रियाँ मन और बुद्धि ये सब इस कामदेव अर्थात् सैक्स का वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम विषय वासना की इच्छा इन मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके द्वारा ही ज्ञानको आच्छादित करके जीवात्माको मोहित करता है।
अध्याय 3 श्लोक 41: इसलिए भरतर्षभ अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करने वाले महापापी काम को अवश्य ही मार।
अध्याय 3 श्लोक 42: इन्द्रियोंको स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं, इन इन्द्रियोंसे अधिक मन है, मनसे तो उत्तम बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त शक्तिशाली है, वह परमात्मा सहित आत्मा है।
अध्याय 3 श्लोक 43: इस प्रकार बुद्धिसे अत्यन्त श्रेष्ठ परमात्मा को जानकर और अपने आप को स्वअभ्यास द्वारा संयमी हे महाबाहो! अर्जुन तू इस कामरूप अर्थात् भोग विलास रूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।