Mam’, ch, yaH, avyabhichaaren, bhaktiyogen, sevte,
SaH, gunaan’, samteetya, etaan’, brahmbhooyaay, kalpate ||26||
Translation: (Ch) and (yaH) a devotee who (avyabhichaaren) unadulterous (bhaktiyogen) through bhaktiyog (mam’) me, constantly (sevte) worships (saH) he too (etaan’) these (gunaan’) three gunas (samteetya) transcending (brahmbhooyaay) for attaining the Sachchidanandghan Brahm (kalpate) becomes worthy. (26)
And a devotee who constantly worships me through unadulterous bhakti yog, he too transcending these three gunas becomes worthy of attaining the Sachchidanandghan Brahm i.e. only desires for that one Purna Parmatma.
The meaning of Gita Adhyay 14 Shlok 26 is that if a worshipper of mine i.e. worshipper of Brahm simultaneously also worships Shri Brahma ji (Rajgun), Shri Vishnu ji (Satgun) and Shri Shiv ji (Tamgun), then on becoming familiar with the Tatvgyan for attaining the Supreme God, he transcends the three gods (gunas) for the attainment of the Supreme God i.e. immediately withdrawing his faith from them, engages in true worship, unadulterous devotion i.e. by having full faith in one Supreme God only becomes worthy of attaining Him. He does jaap of the mantra Om-Tat’-Sat’ mentioned in Gita Adhyay 17 Shlok 23.
माम्, च, यः, अव्यभिचारेण, भक्तियोगेन, सेवते,
सः, गुणान्, समतीत्य, एतान्, ब्रह्मभूयाय, कल्पते।।26।।
अनुवाद: (च) और (यः) जो भक्त (अव्यभिचारेण) अव्यभिचारी (भक्तियोगेन) भक्तियोगके द्वारा (माम्) मुझको निरन्तर (सेवते) भजता है (सः) वह भी (एतान्) इन (गुणान्) तीनों गुणोंको (समतीत्य) भलीभाँति लाँघकर (ब्रह्मभूयाय) सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होनेके लिये (कल्पते) योग्य बन जाता है अर्थात् उसी एक पूर्ण परमात्मा की ही कल्पना करता है। (26)
भावार्थ:-- गीता अध्याय 14 श्लोक 26 का भावार्थ है कि जो व्यक्ति पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के तत्वज्ञान से परिचित होने के पश्चात् मेरी पूजा करने वाला अथार्त् ब्रह्म का साधक यदि श्री ब्रह्मा जी (रजगुण) श्री विष्णु जी (सतगुण) तथा श्री शिव जी (तम्गुण) की भी साधना साथ-2 करता है तो वह पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए तीनों भगवानों (गुणों) का उल्लंघन कर देता है अर्थात् इस से अपनी आस्था तुरन्त हटाकर सत्य साधना में अव्यभिचारिणी भक्ति अर्थात् एक पूर्ण परमात्मा में ही पूर्ण आस्था करके उसको प्राप्त करने योग्य बन जाता है। वह गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में वर्णित ओम्-तत्-सत् मन्त्रा का जाप करता है।