Na, aadtte, kasyachit, paapam, na, ch, ev, sukrtam, vibhuH,
Agyaanen, aavrtam, gyaanm, ten, muhyanti, jantavH ||15||
Translation: (VibhuH) the Supreme God (na) neither (kasyachit) anyone’s (paapam) of sins (ch) and (na) nor anyone’s (sukrtam) of auspicious acts (ev) indeed (aadtte) gives its result i.e. gives results according to the set rules; but (agyaanen) by ignorance (gyaanm) knowledge (aavrtam) is masked (ten) by that only (jantavH) due to absence of Tatvgyan all animal-like ignorant men (muhyanti) are being deluded, i.e. out of their nature by performing acts of bhakti and worldly acts opposite to the ordinances of the scriptures are getting attracted to the short-lived happiness. God forgives the sins of those devotees who perform acts of bhakti according to the injunctions of scriptures otherwise gives them what is destined. (15)
Neither does the Supreme God give results of anyone’s sins, nor of anyone’s auspicious acts i.e gives results according to the set rules but knowledge is masked by ignorance. Due to absence of Tatvgyan all animal-like ignorant men are being deluded by that only i.e. out of their nature by performing acts of bhakti and worldly acts opposite to the ordinances of the scriptures are getting attracted to the short-lived happiness. God forgives the sins of those devotees who perform acts of bhakti according to the injunctions of scriptures otherwise gives them what is destined. See a detailed account of this in Holy Gita Adhyay 16 and 17.
In Adhyay 5 Shlok 14-15 the ignorant men devoid of Tatvgyan have been said to be jantavH i.e. equivalent to animals because complete salvation is not possible without Tatvgyan. Without complete salvation there can not be supreme peace. Therefore it has been said that when the Supreme God (Purna Parmatma) had created nature in Satlok, at that time He had not produced anyone by making actions as the basis. He had given a beautiful body in Satlok which was imperishable. But God had definitely made the law of action-result. Therefore all living beings act according to their nature and experience joy and sorrow. Like, we all souls were produced in Satlok by Purna Brahm Parmatma (SatPurush) from within Himself by the power of word. There we did not have to do any action and all comforts were available. We ourselves out of our nature became attracted to Jyoti Niranjan (Brahm-Kaal) and turned our faces away from our happiness-giving God. And its result was that we ourselves got bound to the bondage of actions. Now whatever action we perform, we are getting its predetermined result according to the rules. The Supreme God forgives the sins of a worshipper who does scripture-based sadhna, otherwise, gives what is destined.
In the shloks from 16 to 28, it is mentioned that by doing acts of bhakti which are in accordance with the Holy Scriptures, and by remaining within the bounds (maryada), one can attain Purna Parmatma, and the Purna Prabhu (the Complete/ Supreme God) forgives sins. Therefore one attains complete salvation while doing one’s duties i.e. acts of bhakti and worldly actions which are worthy of being done.
न, आदत्ते, कस्यचित्, पापम्, न, च, एव, सुकृतम्, विभुः,
अज्ञानेन, आवृतम्, ज्ञानम्, तेन, मुह्यन्ति, जन्तवः।।15।।
अनुवाद: (विभुः) पूर्ण परमात्मा (न) न (कस्यचित्) किसीके (पापम्) पाप का (च) और (न) न किसीके (सुकृतम्) शुभकर्मका (एव) ही (आदत्ते) प्रति फल देता है अर्थात् निर्धारित किए नियम अनुसार फल देता है किंतु (अज्ञानेन) अज्ञानके द्वारा (ज्ञानम्) ज्ञान (आवृतम्) ढका हुआ है (तेन) उसीसे (जन्तवः) तत्वज्ञान हीनता के कारण जानवरों तुल्य सब अज्ञानी मनुष्य (मुह्यन्ति) मोहित हो रहे हैं अर्थात् स्वभाववश शास्त्रा विधि रहित भक्ति कर्म व सांसारिक कर्म करके क्षणिक सुखों में आसक्त हो रहे हैं। जो साधक शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति कर्म करते हैं उनके पाप को प्रभु क्षमा कर देता है अन्यथा संस्कार ही वर्तता है अर्थात् प्राप्त करता है। (15) इसी का विस्तृत विवरण पवित्र गीता अध्याय 16 व 17 में देखें।
भावार्थ:- अध्याय 5 श्लोक 14-15 में तत्व ज्ञानहीनत व्यक्तियों को जन्तवः अर्थात् जानवरों तुल्य कहा है क्योंकि तत्वज्ञान के बिना पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता पूर्ण मोक्ष बिना परम शान्ति नहीं हो सकती इसलिए कहा है कि पूर्ण परमात्मा ने जब सतलोक में सृष्टि रची थी उस समय किसी को कोई कर्म आधार बना कर उत्पत्ति नहीं की थी। सत्यलोक में सुन्दर शरीर दिया था जो कभी विनाश नहीं होता। परन्तु प्रभु ने कर्म फल का विद्यान अवश्य बनाया था। इसलिए सर्व प्राणी अपने स्वभाववश कर्म करके सुख व दुःख के भोगी होते हैं। जैसे हम सर्व आत्माऐं सत्यलोक में पूर्ण ब्रह्म परमात्मा(सतपुरुष) द्वारा अपने मध्य से शब्द शक्ति से उत्पन्न किए। वहाँ सत्यलोक में हमें कोई कर्म नहंीं करना था तथा सर्व सुख उपलब्ध थे। हम स्वयं अपने स्वभाव वश होकर ज्योति निरंजन (ब्रह्म-काल) पर आसक्त हो कर अपने सुखदाई प्रभु से विमुख हो गए। उसी का परिणाम यह निकला कि अब हम कर्म बन्धन में स्वयं ही बन्ध गए। अब जैसे कर्म करते हैं, उसी का फल निर्धारित नियमानुसार ही प्राप्त कर रहे हैं। जो साधक शास्त्रा अनुकूल साधना करता है उसके पाप को पूर्ण परमात्मा क्षमा करता है अन्यथा संस्कार ही वर्तता है अर्थात् संस्कार ही प्राप्त करता है। नीचे के मंत्रा 16 से 28 तक शास्त्रा अनुकूल भक्ति कर्म तथा मर्यादा में रहकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं तथा पूर्ण प्रभु पाप क्षमा कर देता है। इसलिए कत्र्तव्य कर्म अर्थात् करने योग्य भक्ति व संसारिक कर्म करता हुआ ही पूर्ण मुक्त होता है।