Yunjan, evam, sadaa, aatmaanam, yogi, niyatmaanasH,
Shaantim, nirvaanparmaam, matsansthaam, adhigachchhati ||15||
Translation: (Evam) Thus (sadaa) constantly (niyatmaanasH) controlling the mind according to the Hathyog mentioned above by me (aatmaanam) himself in God’s (yunjan) engaging in worship (matsansthaam) on the basis of the preset principle that one get results based on what one does, relying upon me alone (yogi) devotee (nirvaan parmaam) very peaceful i.e. nearly non-existent/nominal (shaantim) peace (adhigachchhati) attains i.e. attains the nominal salvation obtained from me. (15)
Thus a devotee, controlling the mind according to the Hathyog mentioned above by me and constantly engaging himself in the worship of God, relying on me alone on the basis of the preset principle that one obtains results based on what one does attains very peaceful i.e. nearly non-existent/nominal peace i.e. attains the nominal salvation obtained from me.
Brahm has himself called his salvation as very bad/inferior in Gita Adhyay 7 Shlok 18. In Gita Adhyay 6 Shlok 23, the meaning of anirvanam has been done as – not to become irksome i.e. to not wither; therefore, the meaning of nirvaanam will be – withered i.e. nearly dead, nominal peace.
In the above-mentioned Gita Adhyay 6 from Shlok 10 to 15, it has been suggested to sit in one place on a special seat and by practising Hathyog fix one’s gaze on the tip of the nose and in Gita Adhyay 3 Shlok 5 to 9 the same has been prohibited.
(In Shlok 16 to 30 there is knowledge about the Complete/Supreme God)
युंजन्, एवम्, सदा, आत्मानम्, योगी, नियतमानसः,
शान्तिम्, निर्वाणपरमाम्, मत्संस्थाम्, अधिगच्छति।।15।।
अनुवाद: (एवम्) इस प्रकार (सदा) निरन्तर (नियतमानसः) मेरे द्वारा उपरोक्त हठयोग बताया गया है उस के अनुसार मन को वश में करके (आत्मानम्) स्वयं को परमात्मा के (युंजन्) साधना में लगाता हुआ (मत्संस्थाम्) जैसे कर्म करेगा वैसा ही फल प्राप्त होने वाले नियमित सिद्धांत के आधार से मेरे ही ऊपर आश्रित रहने वाला (योगी) साधक (निवार्ण परमाम्) अति शान्त अर्थात् समाप्त प्रायः (शान्तिम्) शान्ति को (अधिगच्छति) प्राप्त होता है अर्थात् मेरे से मिलने वाली नाम मात्रा मुक्ति को प्राप्त होता है। अपनी मुक्ति को गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में स्वयं ही अति अश्रेष्ठ कहा है। गीता अध्याय 6 श्लोक 23 में अनिर्वणम् का अर्थात् न उकताए अर्थात् न मुर्झाए किया है इसलिए निर्वाणम् का अर्थ मुर्झायी हुई अर्थात् मरी हुई नाम मात्रा की शान्ति हुई। (15)
विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में एक स्थान पर विशेष आसन पर विराजमान होकर हठ करके ध्यान व दृृष्टि नाक के अग्र भाग पर लगाने आदि की सलाह दी है तथा गीता अध्याय 3 श्लोक 5 से 9 तक इसी को मना किया है।
(श्लोक 16 से 30 तक पूर्ण परमात्मा के विषय में ज्ञान है)