(Bhagwan uvaach)
Paarth, na, iv, ih, na, amutr, vinaashH, tasya, vidhyate,
Na, hi, kalyaankrt’, kashchit’, durgatim’, taat, gachchhati ||40||
(God said)
Translation: (Paarth) Oh Paarth! (ev) in reality, a devotee who has deviated from the path (na) neither (ih) remains of this world (na) nor (amutr) of that world (tasya) his (vinaashH) only destruction (vidhyate) is known (hi) undoubtedly (kashchit’) any person who (na kalyaankrt’) does not act within bound unto last breath for self-welfare i.e. who deviates from yog (taat) Oh dear, he (durgatim’) unfavourable destination / unfortunate circumstances /disaster (gachchhati) goes to i.e. attains. (40)
Oh Paarth! In reality, neither does a sadhak, who has deviated from the path, remain of this world, nor of that world. Only his destruction is known. Undoubtedly any person who does not act within bound unto last breath for self-welfare i.e. who deviates from yog, oh dear, he is destined to unfortunate circumstances/ suffers disaster. Its evidence is also given in Gita Adhyay 4 Shlok 40.
The other translators of Gita ji have written in this Shlok 40 that a worshipper, who is deviated from bhakti i.e. whose mind is not under control, neither gets destroyed in this lok/world nor in the other world/lok. Whereas it is written in Adhyay 6 Shlok 36 that according to my opinion one whose mind is not under control, it is difficult for him to get the benefit of bhakti (yog) i.e. there is no benefit of bhakti. That yog is only possible for one who has overpowered his mind.
Please contemplate then that is it justified to do the meaning of Shlok 40 as neither does that person deviated from yog get destroyed in this world, nor in the other world. Because in Adhyay 6 Shlok 42 to 44 also there is this same evidence. It has been stated that a person deviated from yog due to the sanskaar prior to getting deviated goes to Heaven for some days, then takes birth in a virtuous family, but that human birth is very rare in this world/lok. If he attains human birth then out of previous nature by behaving arbitrarily violates the Tatvgyan i.e. gets destroyed. Therefore the above-mentioned translation of Shlok 40 is correct. It is also clear in Adhyay 6 Shlok 45.
Example: A yogi named Jadbharat, because of developing attachment to a fawn and deviating from the path of bhakti, took birth as a fawn and suffered disaster.
(भगवान उवाच)
पार्थ, न, एव, इह, न, अमुत्रा, विनाशः, तस्य, विद्यते,
न, हि, कल्याणकृत्, कश्चित्, दुर्गतिम्, तात, गच्छति।।40।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (एव) वास्तव में पथ भ्रष्ट साधक (न) न तो (इह) यहाँ का रहता है (न) न (अमुत्रा) वहाँ का रहता है। (तस्य) उसका (विनाशः) विनाश ही (विद्यते) जाना जाता है (हि) निसंदेह (कश्चित्) कोई भी व्यक्ति जो (न कल्याणकृृत्) अन्तिम स्वांस तक मर्यादा से आत्म कल्याण के लिए कर्म करने वाला नहीं है अर्थात् जो योग भ्रष्ट हो जाता है (तात) हे प्रिय वह तो (दुर्गतिम्) दुर्गति को (गच्छति) चला जाता है अर्थात् प्राप्त होता है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 40 में भी है। (40)
भावार्थ:- गीता जी अन्य अनुवाद कर्ताओं ने इस श्लोक 40 में लिखा है कि योग भ्रष्ट अर्थात् जिसका मन वश नहीं है वह साधक इस लोक में भी नष्ट नहीं होता तथा परलोक में भी नष्ट नहीं होता। जबकि अध्याय 6 श्लोक 36 में लिखा है कि मेरे मत (विचार) अनुसार जिसका मन वश नहीं है उस को भक्ति (योग) का लाभ मिलना दुष्प्राप्य है अर्थात् भक्ति लाभ नहीं है। वह योग तो मन वश किए हुए को ही शक्य है।
विचार करें फिर श्लोक 40 का यह अर्थ करना कि वह योग भ्रष्ट व्यक्ति न तो इस लोक में नष्ट होता है न परलोक में न्याय संगत नहीं है। क्योंकि अध्याय 6 श्लोक 42 से 44 तक में भी यही प्रमाण है कहा है योग भ्रष्ट व्यक्ति योग भ्रष्ट होने से पूर्व के भक्ति संस्कार से कुछ दिन स्वर्ग में जाता है फिर अच्छे कुल में मानव जन्म प्राप्त करता है। परन्तु पुनः वह मानव जन्म इस लोक मे अत्यन्त दुर्लभ है। यदि मानव जन्म प्राप्त हो जाता है तो पूर्व के स्वभाव वश मनमाना आचरण करके तत्वज्ञान का उल्लंघन कर जाता है अर्थात् नष्ट हो जाता है। इसलिए श्लोक 40 का अनुवाद उपरोक्त सही है अध्याय 6 श्लोक 45 में भी स्पष्ट है।
उदाहरण:- जड़भरत नाम के योगी का एक हिरण के बच्चे में मोह हो जाने से भक्ति मार्ग से भ्रष्ट होने से हिरण का ही जन्म प्राप्त हुआ तथा दुर्गति को प्राप्त हुआ।