Chapter 13 Verse 18

Chapter 13 Verse 18

Iti, kshetrm’, tatha, gyaanm’, gyeyam’, ch, uktam’, samaasatH,
Mad’bhaktH, etat’, vigyaay, mad’bhaavaay, uppadhyate ||18||

Translation: (Iti) thus (kshetrm’) body (tatha) and (gyeyam’) the God worthy of being known (gyaanm’) knowledge (samaasatH) in brief (uktam’) have said (ch) and (mad’bhaktH) Mat’ bhakt i.e an inquisitive person who knows this opinion/viewpoint is known as mad’bhakt i.e. my devotee who knows my opinion (etat’) this (vigyaay) knowing in essence (mad’bhaavaay) Matavlambi i.e. that same viewpoint of mine (uppadhyate) acquires. (18)

Translation

Thus I have said in brief the knowledge about the body and the God who is worthy of being known. And Mat’ bhakt i.e. an inquisitive person who knows this opinion/viewpoint i.e. my devotee who knows my opinion knowing this in essence acquires that same viewpoint i.e. Matavlambi. Abandoning Kaal i.e. Brahm-sadhna and by doing sadhna of Purna Brahm, SatPurush, is completely liberated from birth and death.

Important

In Yajurved Adhyay 40 Mantra 9, it is said that a worshipper who used to do Brahm-worship in the previous births, he acquires the same nature in the present life. He does Brahm-worship only. When he finds a Tatvdarshi saint who describes the difference between the bhakti of Brahm and Purna Brahm, he immediately engages in true worship.


इति, क्षेत्राम् तथा, ज्ञानम्, ज्ञेयम्, च, उक्तम्, समासतः।
मद्भक्तः, एतत्, विज्ञाय, मद्भावाय, उपपद्यते।।18।।

अनुवाद: (इति) इस प्रकार (क्षेत्राम्) शरीर (तथा) तथा (ज्ञेयम्) जानने योग्य परमात्मा का (ज्ञानम्) ज्ञान (समासतः) संक्षेपसे (उक्तम्) कहा है (च) और (मद्भक्तः) मत् भक्त अर्थात् इस मत् अर्थात् विचार को जानने वाला जिज्ञासु को मद्भक्त कहा है अर्थात् मेरे मत् को जानने वाला मेरा भक्त(एतत्) इसको (विज्ञाय) तत्त्वसे जानकर (मद्भावाय) मतावलम्बी अर्थात् मेरे उसी विचार भाव को (उपपद्यते) प्राप्त हो जाता है काल अर्थात् मेरे ब्रह्म साधना त्याग कर पूर्णब्रह्म अर्थात् सतपुरुष की साधना करके जन्म-मरण से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। (18)

विशेष:-- यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्रा 9 में कहा है कि जो साधक पूर्व जन्मों में ब्रह्म साधना करता था। वह वर्तमान जन्म में भी उसी भाव से भावित रहता है। वह ब्रह्म साधना ही करता है। जब उसे तत्वदर्शी सन्त जो ब्रह्म व पूर्ण ब्रह्म की भक्ति की भिन्नता बताता है, मिल जाता है तो तुरन्त सत्य साधना पर लग जाता है।