Chapter 13 Verse 31

Chapter 13 Verse 31

Anaaditvaat’, nirguntvaat’, parmatma, ayam’, avyyaH,
ShareerasthH, api, kauntey, na, karoti, na, lipyate ||31||

Translation: (Kauntey) Oh Arjun! (anaaditvaat’) because of being beginningless and (nirguntvaat’) because of His power being Nirgun [formless] (ayam’) this (avyyaH) eternal (Parmatma) Supreme God (shareerasthH) while residing in the body (api) also, in reality (na) neither (karoti) does anything (na) nor (lipyate) is tainted/affected. (31)

Translation

Oh Arjun! Because of being beginningless and His power being nirgun (formless), this eternal God while residing in the body also, in reality, neither does anything, nor is affected.

Meaning

The meaning of Shlok 31 is that just as sun even when situated far away is visible in a pot of water and keeps influencing us with his formless power i.e. warmth. Similarly, the Supreme God even when residing in Satyalok dwells in every soul in the form of shadow. Like the radiations of sun produce excessive heat on a concave lens and keeps its natural influence on a convex lens. Similarly, a devotee who is in accordance with the scriptures becomes a concave lens, by which he obtains maximum benefit of God’s power. And a devotee, who follows arbitrary way of worship by abandoning the injunctions of scriptures, only obtains the results of his actions. Consider him to be a convex lens.


अनादित्वात्, निर्गुणत्वात्, परमात्मा, अयम्, अव्ययः।
शरीरस्थः, अपि, कौन्तेय, न, करोति, न, लिप्यते।।31।।

अनुवाद: (कौन्तेय) हे अर्जुन! (अनादित्वात्) अनादि होनेसे और (निर्गुणत्वात्) उसकी शक्ति निर्गुण होनेसे (अयम्) यह (अव्ययः) अविनाशी (परमात्मा) परमात्मा (शरीरस्थः) शरीरमें रहता हुआ (अपि) भी वास्तवमें (न) न तो (करोति) कुछ करता है और (न) न (लिप्यते) लिप्त ही होता है। (31)

भावार्थ - श्लोक 31 का भाव है कि जैसे सूर्य दूरस्थ होने से भी जल के घड़े में दृृष्टिगोचर होता है तथा निर्गुण शक्ति अर्थात् ताप प्रभावित करता रहता है, इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा अपने सत्यलोक में रहते हुए भी प्रत्येक आत्मा में प्रतिबिम्ब रूप से रहता है। जैसे अवतल लैंस पर सूर्य की किरणें अधिक ताप पैदा कर देती हैं तथा उत्तल लैंस पर अपना स्वाभाविक प्रभाव ही रखती हैं। इसी प्रकार शास्त्रा विधि अनुसार साधक अवतल लैंस बन जाता है। जिससे ईश्वरीय शक्ति का अधिक लाभ प्राप्त करता है तथा शास्त्रा विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने वाला साधक केवल कर्म संस्कार ही प्राप्त करता है। उसे उत्तल लैंस जानो।